मिट्टीका घड़ा

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मिट्टीका घड़ा

योगिराज भर्तृहरिका नाम योग, विज्ञान एवं वैराग्यका ज्वलन्त प्रतीक है। क्षिप्रा नदीकी समीपवर्तिनी आनन्दमयी सरस भूमि उज्जयिनीमें महाराज भर्तृहरिने जन्म ग्रहण किया था। ये चक्रवर्ती नरेश थे। अनेक राजवंश उनके चरण-देशमें नतमस्तक रहते थे।
भर्तृहरिके विषयमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, जो अपने सन्देशोंसे पाठकके चित्तमें बोधका संचार करनेमें समर्थ हैं। एक ऐसी ही कथा यहाँ प्रस्तुत है, तदनुसार भर्तृहरिका विवाह अवन्तिकापुरीके प्रधानमन्त्री सुमन्तककी अत्यन्त रूपवती कन्या पिंगलासे हुआ था । वे अपनी रानीको अत्यधिक प्रेम करते थे। एक दिन उन्होंने अपनी रानी पिंगलासे पूछा- ‘पिंगला! यदि मैं मर जाऊँ तो तुम क्या करोगी?’ पिंगलाने उनके मुखपर अपना हाथ रखते हुए कहा – ‘महाराज ! ऐसी अशुभ बात आप क्यों करते हैं? भगवान् आपको अजर-अमर बनाये रखें।’ राजाने पुनः कहा- ‘नहीं पिंगला, तुम मुझे यह बता ही दो कि मेरी मृत्युके पश्चात् तुम क्या करोगी?’ बहुत आग्रह करनेपर रानीने कहा-‘आपके मरनेपर मैं सती हो जाऊँगी।’
इस प्रसंगके कुछ दिनों बाद राजा वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। अचानक उनके मनमें पिंगलाके प्रेमकी परीक्षा लेनेका विचार आया। उन्होंने अपने एक विश्वस्त सेवकको अपना फेंटा एवं कटार देते हुए कहा कि वह इन्हें लेकर सीधे महारानी पिंगलाके पास जाय और उन्हें बताये कि शिकार खेलते समय एक शेरने महाराजको मारकर खा लिया है तथा वह महाराजका फेंटा एवं कटार लेकर आया है।
सेवकने वैसा ही किया। यह सब वृत्तान्त जाननेपर महारानी शोकाकुल हो अत्यन्त विलाप करने लगीं। पूरे रनिवास एवं राज्यमें हाहाकार मच गया। रानी पिंगला विलाप करते-करते अचेत हो गयीं। होशमें आनेपर उन्होंने कहा- ‘मैं महाराजके फेंटे और कटारके साथ सती हो जाऊँगी।’
राजभवनके लोगोंके बहुत समझानेपर भी वे अपने |निर्णयपर अडिग रहीं। अन्ततः श्मशानमें चिता प्रज्वलित की गयी और महारानी पिंगला अपने पतिके फेंटे एवं कटारके साथ सती हो गयीं।
कुछ समय पश्चात् जब शिकार खेलकर राज वापस लौटे तो उन्हें पता चला कि उनके द्वारा किये गये परिहासको सत्य मानकर पिंगलाने अपने प्राण त्याग दिये थे।
पिंगलाका प्रेम सच्चा था। हाय! मैंने यह क्या किया? ऐसा विचारकर राजा भर्तृहरि शोकमें डूब गये। और जोर-जोरसे विलाप करने लगे। श्मशान में जहाँ पिंगलाकी चिता जली थी, वहीं बैठकर ‘हाय पिंगला!’ ‘हाय पिंगला’ कहते हुए रोने लगे। कहा जाता है कि इसी दशामें उन्होंने बारह वर्ष व्यतीत कर दिये।
तब गुरु गोरखनाथजी राजा भर्तृहरिका मोह दूर करनेके लिये वहाँ पधारे। राजाके समक्ष पहुँचकर गोरखनाथने असावधान होनेका अभिनय करते हुए अपने हाथमें लिये मिट्टीके घड़ेको हाथसे छोड़ दिया। मिट्टीका घड़ा भूमिपर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। यह देख गोरखनाथ ‘हाय मेरा घड़ा! हाय मेरा घड़ा।’ कहते हुए विलाप करने लगे। उनका विलाप सुनकर राजाका ध्यान भंग हुआ। टूटे घड़ेके लिये विलाप करते गोरखनाथको देखकर राजा बोले-‘महाराज। आप तो विरक्त योगी लगते हैं। आप एक मिट्टीके घड़ेके फूटनेपर क्यों इतना रोते हैं? इतना शोक करनेकी क्या आवश्यकता है? घड़े तो और भी मिल जायेंगे।’ गोरखनाथने कहा- ‘मुझे तो अपना यही घड़ा चाहिये। अपनी प्रिय वस्तुका वियोग तो सभीको खलता है। जिस प्रकार तुम अपनी रानीके लिये विलाप कर रहे हो, उसी प्रकार मैं भी अपने घड़ेके लिये विलाप कर रहा हूँ। यदि तुम यह मानते हो कि घड़ा तो दूसरा भी मिल जायगा। तो मैं तुमसे कहता हूँ कि भी हजारों मिल जायेंगी। ऐसी स्थितिमें तुम बारह वर्षोंसे शोक क्यों मना रहे हो ?’ यह सुनकर राजा बोले-‘घड़े तो बाजारमें हजारों मिल जायेंगे, किंतु मेरी पिंगला कहाँ मिलेगी ?*
तब गोरखनाथजीने अपनी योग-सिद्धिके द्वारा हजारों पिंगलाएँ वहाँ उत्पन्न कर दीं और राजासे कहा- ‘यदि सांसारिक सुख भोगना है तो इनमेंसे अपनी एक पिंगलाको लेकर चले जाओ और यदि अमर होना चाहते हो तो भौतिक मोह-मायाको त्यागकर, ईश्वरसे लौ लगाओ, जिससे जन्म-मरणसे छूटकर मुक्ति प्राप्त होगी।’ राजा भर्तृहरिने गुरु गोरखनाथके चरण पकड़ लिये और योगमार्गमें दीक्षित करानेकी प्रार्थना की।
बादमें भर्तृहरिने राजपाट अपने भाई विक्रमादित्यको सौंप दिया तथा स्वयं गुरु गोरखनाथके साथ गिरनार पर्वतपर साधना करने लगे। कालान्तरमें उन्हें महान् योगी भर्तृहरिनाथके नामसे जाना गया।

मिट्टीका घड़ा
योगिराज भर्तृहरिका नाम योग, विज्ञान एवं वैराग्यका ज्वलन्त प्रतीक है। क्षिप्रा नदीकी समीपवर्तिनी आनन्दमयी सरस भूमि उज्जयिनीमें महाराज भर्तृहरिने जन्म ग्रहण किया था। ये चक्रवर्ती नरेश थे। अनेक राजवंश उनके चरण-देशमें नतमस्तक रहते थे।
भर्तृहरिके विषयमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, जो अपने सन्देशोंसे पाठकके चित्तमें बोधका संचार करनेमें समर्थ हैं। एक ऐसी ही कथा यहाँ प्रस्तुत है, तदनुसार भर्तृहरिका विवाह अवन्तिकापुरीके प्रधानमन्त्री सुमन्तककी अत्यन्त रूपवती कन्या पिंगलासे हुआ था । वे अपनी रानीको अत्यधिक प्रेम करते थे। एक दिन उन्होंने अपनी रानी पिंगलासे पूछा- ‘पिंगला! यदि मैं मर जाऊँ तो तुम क्या करोगी?’ पिंगलाने उनके मुखपर अपना हाथ रखते हुए कहा – ‘महाराज ! ऐसी अशुभ बात आप क्यों करते हैं? भगवान् आपको अजर-अमर बनाये रखें।’ राजाने पुनः कहा- ‘नहीं पिंगला, तुम मुझे यह बता ही दो कि मेरी मृत्युके पश्चात् तुम क्या करोगी?’ बहुत आग्रह करनेपर रानीने कहा-‘आपके मरनेपर मैं सती हो जाऊँगी।’
इस प्रसंगके कुछ दिनों बाद राजा वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। अचानक उनके मनमें पिंगलाके प्रेमकी परीक्षा लेनेका विचार आया। उन्होंने अपने एक विश्वस्त सेवकको अपना फेंटा एवं कटार देते हुए कहा कि वह इन्हें लेकर सीधे महारानी पिंगलाके पास जाय और उन्हें बताये कि शिकार खेलते समय एक शेरने महाराजको मारकर खा लिया है तथा वह महाराजका फेंटा एवं कटार लेकर आया है।
सेवकने वैसा ही किया। यह सब वृत्तान्त जाननेपर महारानी शोकाकुल हो अत्यन्त विलाप करने लगीं। पूरे रनिवास एवं राज्यमें हाहाकार मच गया। रानी पिंगला विलाप करते-करते अचेत हो गयीं। होशमें आनेपर उन्होंने कहा- ‘मैं महाराजके फेंटे और कटारके साथ सती हो जाऊँगी।’
राजभवनके लोगोंके बहुत समझानेपर भी वे अपने |निर्णयपर अडिग रहीं। अन्ततः श्मशानमें चिता प्रज्वलित की गयी और महारानी पिंगला अपने पतिके फेंटे एवं कटारके साथ सती हो गयीं।
कुछ समय पश्चात् जब शिकार खेलकर राज वापस लौटे तो उन्हें पता चला कि उनके द्वारा किये गये परिहासको सत्य मानकर पिंगलाने अपने प्राण त्याग दिये थे।
पिंगलाका प्रेम सच्चा था। हाय! मैंने यह क्या किया? ऐसा विचारकर राजा भर्तृहरि शोकमें डूब गये। और जोर-जोरसे विलाप करने लगे। श्मशान में जहाँ पिंगलाकी चिता जली थी, वहीं बैठकर ‘हाय पिंगला!’ ‘हाय पिंगला’ कहते हुए रोने लगे। कहा जाता है कि इसी दशामें उन्होंने बारह वर्ष व्यतीत कर दिये।
तब गुरु गोरखनाथजी राजा भर्तृहरिका मोह दूर करनेके लिये वहाँ पधारे। राजाके समक्ष पहुँचकर गोरखनाथने असावधान होनेका अभिनय करते हुए अपने हाथमें लिये मिट्टीके घड़ेको हाथसे छोड़ दिया। मिट्टीका घड़ा भूमिपर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। यह देख गोरखनाथ ‘हाय मेरा घड़ा! हाय मेरा घड़ा।’ कहते हुए विलाप करने लगे। उनका विलाप सुनकर राजाका ध्यान भंग हुआ। टूटे घड़ेके लिये विलाप करते गोरखनाथको देखकर राजा बोले-‘महाराज। आप तो विरक्त योगी लगते हैं। आप एक मिट्टीके घड़ेके फूटनेपर क्यों इतना रोते हैं? इतना शोक करनेकी क्या आवश्यकता है? घड़े तो और भी मिल जायेंगे।’ गोरखनाथने कहा- ‘मुझे तो अपना यही घड़ा चाहिये। अपनी प्रिय वस्तुका वियोग तो सभीको खलता है। जिस प्रकार तुम अपनी रानीके लिये विलाप कर रहे हो, उसी प्रकार मैं भी अपने घड़ेके लिये विलाप कर रहा हूँ। यदि तुम यह मानते हो कि घड़ा तो दूसरा भी मिल जायगा। तो मैं तुमसे कहता हूँ कि भी हजारों मिल जायेंगी। ऐसी स्थितिमें तुम बारह वर्षोंसे शोक क्यों मना रहे हो ?’ यह सुनकर राजा बोले-‘घड़े तो बाजारमें हजारों मिल जायेंगे, किंतु मेरी पिंगला कहाँ मिलेगी ?*
तब गोरखनाथजीने अपनी योग-सिद्धिके द्वारा हजारों पिंगलाएँ वहाँ उत्पन्न कर दीं और राजासे कहा- ‘यदि सांसारिक सुख भोगना है तो इनमेंसे अपनी एक पिंगलाको लेकर चले जाओ और यदि अमर होना चाहते हो तो भौतिक मोह-मायाको त्यागकर, ईश्वरसे लौ लगाओ, जिससे जन्म-मरणसे छूटकर मुक्ति प्राप्त होगी।’ राजा भर्तृहरिने गुरु गोरखनाथके चरण पकड़ लिये और योगमार्गमें दीक्षित करानेकी प्रार्थना की।
बादमें भर्तृहरिने राजपाट अपने भाई विक्रमादित्यको सौंप दिया तथा स्वयं गुरु गोरखनाथके साथ गिरनार पर्वतपर साधना करने लगे। कालान्तरमें उन्हें महान् योगी भर्तृहरिनाथके नामसे जाना गया।

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