लगभग चौबीस सौ वर्ष पहलेकी बात है। खुतन देशमें नदीका जल सूख जानेसे घोर अकाल पड़ गया। प्रजा भूखों मरने लगी। खुतन नरेश बहुत चिन्तित हो उठा। मन्त्रियोंकी सम्मतिसे वह राज्यमें ही निकटस्थ पहाड़ीपर निवास करनेवाले एक बौद्ध भिक्षुकी सेवामें उपस्थित हुआ।
‘देव! मेरे राज्यमें अन्यायका प्राबल्य तो नहीं हो गया है? ऐसा तो नहीं है कि मेरा पुण्य फल संसारके समस्त प्राणियोंको समानरूपसे नहीं मिल रहा है ? मैंने आजतक प्रजाका कभी उत्पीड़न नहीं किया। जब मेरा कोई अपराध ही नहीं है तब प्रजाको दुःखका मुख क्यों देखना पड़ रहा है? देव! ऐसा उपाय बताइये कि नदीमें जल फिर आ जाय।’ खुतन नरेशने चिन्ता प्रकट की।
श्रमणने नद-नागकी पूजाका आदेश दिया राज्यकी जनताने नदीके तटपर जाकर धूम-धामसे पूजा की; राजा अपने प्रमुख अधिकारीवर्गके सहित उपस्थित था।
“मेरा पति (नाग) स्वर्गस्थ हो गया है। इसीलिये हमारे कार्यका क्रम बिगड़ गया है।’ नागपत्नीने कमनीय रमणी – वेषमें मध्य धारापर प्रकट होकर एक राज्यकार्य कुशल व्यक्तिकी माँग की।
राजा उसकी इच्छा पूर्तिका आश्वासन देकर राजधानीमें लौट आया।’देवराज (राजाकी उपाधि) ! आप इतने चिन्तित क्यों है? मेरा जीवन आजतक ठीक तरह प्रजाके हित में नहीं लग सका। यद्यपि चित्तमें स्वदेशकी सेवाकी प्रवृत्ति सदा रही, फिर भी उसको कार्यरूपमें परिणत करनेका अभीतक अवसर ही नहीं आया था।’ प्रधानमन्त्रीने नरेशकी चिन्ता कम की।
” पर प्रधानमन्त्री ही राज्यका दुर्ग होता है। वह समस्त देशकी अमूल्य सम्पत्ति है। उसका प्राण किसी भी मूल्यपर भी निछावर नहीं किया जा सकता।’ राजा गम्भीर हो उठा।
“आप ठीक ही सोच रहे हैं, पर प्रजा और देशके हितके सामने साधारण मन्त्रीके जीवनका कुछ भी महत्त्व नहीं है। मन्त्री तो सहायकमात्र है। किंतु प्रजा मुख्य अङ्ग है राज्यका । यह सच्चा बलिदान है, महँगा नहीं है देवराज!’ प्रधानमन्त्रीका उत्तर था ।
मन्त्रीने नागभवनमें जानेकी व्यवस्था की। नागरिकोंने उसके सम्मानमें भोजका आयोजन किया। वह एक सफेद घोड़े पर सवार हो गया। उसका वस्त्र भी श्वेत था। उसने घोड़े की पीठपर बैठे हुए नदीमें प्रवेश किया; पर किसी भी स्थानपर इतना जल नहीं था कि वह उसमें अश्वसमेत डूबकर अदृश्य हो सके। मन्त्रीने मध्यधारामें पहुँचकर जलको कोड़ेसे प्रताड़ित किया। अथाह जलराशि उमड़ पड़ी और प्रधानमन्त्री नदीके गहरे जलमें विलीन हो | गया। लोग तटपर खड़े होकर उसकी जय बोल रहे थे।थोड़ी देरके बाद घोड़ा जलके ऊपर तैरने लगा। उसकी पीठपर चन्दनका एक नगारा बँधा था। एक पत्र भी था, उसमें लिखा था कि ‘खुतन नरेशकी प्रसन्नताकी सदा वृद्धि होती रहे, प्रजा स्वस्थ और सुखी रहे। जिस समय राज्यपर शत्रुका आक्रमण होगा, उस समय नगारा अपनेआप बजने लगेगा।’- नदी जलसे परिपूर्ण हो उठी।
खुतन- राज्यके प्रधानमन्त्रीने आत्मत्यागका आदर्श उपस्थितकर अपना ही जीवन नहीं सफल कर लिया, राष्ट्रकी महान् सेवा भी की। स्वार्थ त्यागकी महिमा अकथनीय है।
– रा0 श्री0
लगभग चौबीस सौ वर्ष पहलेकी बात है। खुतन देशमें नदीका जल सूख जानेसे घोर अकाल पड़ गया। प्रजा भूखों मरने लगी। खुतन नरेश बहुत चिन्तित हो उठा। मन्त्रियोंकी सम्मतिसे वह राज्यमें ही निकटस्थ पहाड़ीपर निवास करनेवाले एक बौद्ध भिक्षुकी सेवामें उपस्थित हुआ।
‘देव! मेरे राज्यमें अन्यायका प्राबल्य तो नहीं हो गया है? ऐसा तो नहीं है कि मेरा पुण्य फल संसारके समस्त प्राणियोंको समानरूपसे नहीं मिल रहा है ? मैंने आजतक प्रजाका कभी उत्पीड़न नहीं किया। जब मेरा कोई अपराध ही नहीं है तब प्रजाको दुःखका मुख क्यों देखना पड़ रहा है? देव! ऐसा उपाय बताइये कि नदीमें जल फिर आ जाय।’ खुतन नरेशने चिन्ता प्रकट की।
श्रमणने नद-नागकी पूजाका आदेश दिया राज्यकी जनताने नदीके तटपर जाकर धूम-धामसे पूजा की; राजा अपने प्रमुख अधिकारीवर्गके सहित उपस्थित था।
“मेरा पति (नाग) स्वर्गस्थ हो गया है। इसीलिये हमारे कार्यका क्रम बिगड़ गया है।’ नागपत्नीने कमनीय रमणी – वेषमें मध्य धारापर प्रकट होकर एक राज्यकार्य कुशल व्यक्तिकी माँग की।
राजा उसकी इच्छा पूर्तिका आश्वासन देकर राजधानीमें लौट आया।’देवराज (राजाकी उपाधि) ! आप इतने चिन्तित क्यों है? मेरा जीवन आजतक ठीक तरह प्रजाके हित में नहीं लग सका। यद्यपि चित्तमें स्वदेशकी सेवाकी प्रवृत्ति सदा रही, फिर भी उसको कार्यरूपमें परिणत करनेका अभीतक अवसर ही नहीं आया था।’ प्रधानमन्त्रीने नरेशकी चिन्ता कम की।
” पर प्रधानमन्त्री ही राज्यका दुर्ग होता है। वह समस्त देशकी अमूल्य सम्पत्ति है। उसका प्राण किसी भी मूल्यपर भी निछावर नहीं किया जा सकता।’ राजा गम्भीर हो उठा।
“आप ठीक ही सोच रहे हैं, पर प्रजा और देशके हितके सामने साधारण मन्त्रीके जीवनका कुछ भी महत्त्व नहीं है। मन्त्री तो सहायकमात्र है। किंतु प्रजा मुख्य अङ्ग है राज्यका । यह सच्चा बलिदान है, महँगा नहीं है देवराज!’ प्रधानमन्त्रीका उत्तर था ।
मन्त्रीने नागभवनमें जानेकी व्यवस्था की। नागरिकोंने उसके सम्मानमें भोजका आयोजन किया। वह एक सफेद घोड़े पर सवार हो गया। उसका वस्त्र भी श्वेत था। उसने घोड़े की पीठपर बैठे हुए नदीमें प्रवेश किया; पर किसी भी स्थानपर इतना जल नहीं था कि वह उसमें अश्वसमेत डूबकर अदृश्य हो सके। मन्त्रीने मध्यधारामें पहुँचकर जलको कोड़ेसे प्रताड़ित किया। अथाह जलराशि उमड़ पड़ी और प्रधानमन्त्री नदीके गहरे जलमें विलीन हो | गया। लोग तटपर खड़े होकर उसकी जय बोल रहे थे।थोड़ी देरके बाद घोड़ा जलके ऊपर तैरने लगा। उसकी पीठपर चन्दनका एक नगारा बँधा था। एक पत्र भी था, उसमें लिखा था कि ‘खुतन नरेशकी प्रसन्नताकी सदा वृद्धि होती रहे, प्रजा स्वस्थ और सुखी रहे। जिस समय राज्यपर शत्रुका आक्रमण होगा, उस समय नगारा अपनेआप बजने लगेगा।’- नदी जलसे परिपूर्ण हो उठी।
खुतन- राज्यके प्रधानमन्त्रीने आत्मत्यागका आदर्श उपस्थितकर अपना ही जीवन नहीं सफल कर लिया, राष्ट्रकी महान् सेवा भी की। स्वार्थ त्यागकी महिमा अकथनीय है।
– रा0 श्री0