श्रीकेवलरामजी ऐसे ही थे। श्रीकृष्णके नयन शरके लक्ष्य ये हो चुके थे। श्रीकृष्णके अतिरिक्त इनकी आँखोंमें और कोई था ही नहीं। ये विषय-वासनाको बहुत दूर छोड़ आये थे। मायाकी छाया भी इनको स्पर्श नहीं कर पाती थी। करुणा और प्रेमके आप मूर्तिमान् स्वरूप थे l
‘भिक्षा दो, माँ!’ किसीकी देहरीपर पहुँचकर ये आवाज लगा देते। माताएँ चावल, दाल, शाक और घृतादि लेकर आपके सामने आतीं तो आप कहने लगते- ‘अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करें, मेरी यही भिक्षा है!’ और उलटे पाँव लौट पड़ते। बड़ा प्रभाव पड़ता इनकी बातोंका सुननेवालोंपर। इसी प्रकार ये प्रत्येक स्त्री-पुरुषको श्रीकृष्ण-प्रेम-पथपर अग्रसर करनेके लिये सतत प्रयत्न करते रहते।
‘मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें!’ किसी अनाचारी वैष्णवको देखते ही ये झटसे विनयपूर्वक कहते। से भगवद्भक्त थे। इनके मनमें अविरल शान्ति लहरें लेती रहती। पर श्रीकृष्णके पूजा-प्रचारके लिये जैसे इनके मनमें आग लगी रहती थी। जिस किसीको देखते ही ये उसके पीछे पड़ जाते थे। श्रीकृष्णका नाम-जप करनेका वचन ले ही लेते थे। विनय और आग्रहको देखकर वैष्णव पूछ बैठते ‘क्या कहते हैं ?”
‘आप श्यामसुन्दरकी प्रतिदिन नियमपूर्वक अन्तर्हृदय के विशुद्ध प्रेमसे पूजा किया करें!’ कहते हुए ये श्यामसुन्दरकी मनोहर प्रतिमा सामने रख देते। साथ ही इनकी आँखेंछलक पड़तीं।
साधु इनका ढंग देखकर दंग हो जाते। उनके मनमें पश्चात्ताप होता और प्रभुकी प्रतिमा लेकर प्रेमपूर्वक उपासनामें लग जाते।
एक बारकी बात है, आप एक गाड़ीवानके साथ चल रहे थे। गाड़ीवान गाड़ीपर बैठा गाड़ी हाँकता जा रहा था और श्रीकेवलरामजी पृथ्वीपर पैदल ही गाड़ीवानको श्रीकृष्णकथा सुनाते जा रहे थे।
एक स्थानपर बैल थोडेसे रुके तो गाड़ीवानने क्रोधित होकर दो-तीन साँटियाँ जोरसे उनकी पीठपर दे मारी। बैल साँटीके भयसे दौड़ने लगे। गाड़ीवानने कथा सुननेके लिये श्रीकेवलरामजीकी ओर देखा तो वे नहीं थे। गाड़ीवानने गाड़ीपर खड़े होकर देखा तो आप पीछे मूच्छित होकर गिर पड़े थे।
गाड़ीवान घबराकर गाड़ीसे कूद पड़ा और उसने दौड़कर श्रीकेवलरामजीको अपनी गोदमें उठा लिया। उसने देखा जो साँटी उसने बैलको मारी थी, वह श्री केवलरामजीकी पीठपर लगी थी। उसका चिह्न स्पष्ट दीख रहा था।
ये संत इतनी उच्चकोटिपर पहुँच गये हैं, इसकी गाड़ीवानके मनमें कल्पना भी नहीं थी। वह उनके चरणोंपर गिरकर क्षमा-प्रार्थना करने लगा। गाड़ीपर और भी कई आदमी थे। सब-के-सब श्रीकेवलरामजीके चरणोंपर माथा रखकर क्षमाकी याचना कर रहे थे। ‘भगवान् श्रीकृष्ण प्रेम और क्षमाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं।सृष्टिके कर्त्ता, पालक और विनाशक वे ही हैं। माया मोह उन्हींकी देन है; पर जो सबको त्यागकर उनके चरण-कमलोंके भ्रमर बन जाते हैं, बड़ी सरलतासे वे भवसागर पार कर लेते हैं। तुमलोग श्रीकृष्णके बनजाओ। बस, वे स्वयं क्षमा कर देंगे।’ कहकर श्रीकेवलरामजी हँसने लगे, पर उपस्थित व्यक्तियोंकी आँखोंसे अश्रु- सरिता प्रवाहित हो रही थी।
– शि0 दु0
श्रीकेवलरामजी ऐसे ही थे। श्रीकृष्णके नयन शरके लक्ष्य ये हो चुके थे। श्रीकृष्णके अतिरिक्त इनकी आँखोंमें और कोई था ही नहीं। ये विषय-वासनाको बहुत दूर छोड़ आये थे। मायाकी छाया भी इनको स्पर्श नहीं कर पाती थी। करुणा और प्रेमके आप मूर्तिमान् स्वरूप थे l
‘भिक्षा दो, माँ!’ किसीकी देहरीपर पहुँचकर ये आवाज लगा देते। माताएँ चावल, दाल, शाक और घृतादि लेकर आपके सामने आतीं तो आप कहने लगते- ‘अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करें, मेरी यही भिक्षा है!’ और उलटे पाँव लौट पड़ते। बड़ा प्रभाव पड़ता इनकी बातोंका सुननेवालोंपर। इसी प्रकार ये प्रत्येक स्त्री-पुरुषको श्रीकृष्ण-प्रेम-पथपर अग्रसर करनेके लिये सतत प्रयत्न करते रहते।
‘मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें!’ किसी अनाचारी वैष्णवको देखते ही ये झटसे विनयपूर्वक कहते। से भगवद्भक्त थे। इनके मनमें अविरल शान्ति लहरें लेती रहती। पर श्रीकृष्णके पूजा-प्रचारके लिये जैसे इनके मनमें आग लगी रहती थी। जिस किसीको देखते ही ये उसके पीछे पड़ जाते थे। श्रीकृष्णका नाम-जप करनेका वचन ले ही लेते थे। विनय और आग्रहको देखकर वैष्णव पूछ बैठते ‘क्या कहते हैं ?”
‘आप श्यामसुन्दरकी प्रतिदिन नियमपूर्वक अन्तर्हृदय के विशुद्ध प्रेमसे पूजा किया करें!’ कहते हुए ये श्यामसुन्दरकी मनोहर प्रतिमा सामने रख देते। साथ ही इनकी आँखेंछलक पड़तीं।
साधु इनका ढंग देखकर दंग हो जाते। उनके मनमें पश्चात्ताप होता और प्रभुकी प्रतिमा लेकर प्रेमपूर्वक उपासनामें लग जाते।
एक बारकी बात है, आप एक गाड़ीवानके साथ चल रहे थे। गाड़ीवान गाड़ीपर बैठा गाड़ी हाँकता जा रहा था और श्रीकेवलरामजी पृथ्वीपर पैदल ही गाड़ीवानको श्रीकृष्णकथा सुनाते जा रहे थे।
एक स्थानपर बैल थोडेसे रुके तो गाड़ीवानने क्रोधित होकर दो-तीन साँटियाँ जोरसे उनकी पीठपर दे मारी। बैल साँटीके भयसे दौड़ने लगे। गाड़ीवानने कथा सुननेके लिये श्रीकेवलरामजीकी ओर देखा तो वे नहीं थे। गाड़ीवानने गाड़ीपर खड़े होकर देखा तो आप पीछे मूच्छित होकर गिर पड़े थे।
गाड़ीवान घबराकर गाड़ीसे कूद पड़ा और उसने दौड़कर श्रीकेवलरामजीको अपनी गोदमें उठा लिया। उसने देखा जो साँटी उसने बैलको मारी थी, वह श्री केवलरामजीकी पीठपर लगी थी। उसका चिह्न स्पष्ट दीख रहा था।
ये संत इतनी उच्चकोटिपर पहुँच गये हैं, इसकी गाड़ीवानके मनमें कल्पना भी नहीं थी। वह उनके चरणोंपर गिरकर क्षमा-प्रार्थना करने लगा। गाड़ीपर और भी कई आदमी थे। सब-के-सब श्रीकेवलरामजीके चरणोंपर माथा रखकर क्षमाकी याचना कर रहे थे। ‘भगवान् श्रीकृष्ण प्रेम और क्षमाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं।सृष्टिके कर्त्ता, पालक और विनाशक वे ही हैं। माया मोह उन्हींकी देन है; पर जो सबको त्यागकर उनके चरण-कमलोंके भ्रमर बन जाते हैं, बड़ी सरलतासे वे भवसागर पार कर लेते हैं। तुमलोग श्रीकृष्णके बनजाओ। बस, वे स्वयं क्षमा कर देंगे।’ कहकर श्रीकेवलरामजी हँसने लगे, पर उपस्थित व्यक्तियोंकी आँखोंसे अश्रु- सरिता प्रवाहित हो रही थी।
– शि0 दु0