रोगी कौन नहीं है ?
जीवनकी साधना सफल होनेके लिये सबसे पहली बात शरीरकी तन्दुरुस्ती है। तन्दुरुस्त शरीर ही साधना कर सकता है, बीमार शरीर नहीं जब ऋषि चरक आयुर्वेदके ग्रन्थोंकी रचना तथा प्रचार कर चुके तो वे एक पक्षीका रूप धारणकर वैद्योंकी बस्तीमें पहुँचे और एक वृक्षकी शाखापर बैठकर ऊँची आवाजमें बोले- ‘कोsरुक् ?’ अर्थात् रोगी कौन नहीं है? पक्षीका स्वर सुनकर वैद्यगण अपनी-अपनी डफली बजाने लगे। ऋषिको इससे बड़ा दुःख हुआ, तो वे नदी तटपर स्नानार्थ बैठे वैद्य वाग्भटके पास गये और पूछा, ‘कोऽरुक् ?’
वाग्भटने पक्षीकी ओर मुखातिब होकर कहा
‘हितभुक्, मितभुक्, ऋतभुक् ।’
हितभुक् अर्थात् हमें सात्त्विक भोजन खाना चाहिये, जो शरीरके लिये हितकर हो।
मितभुक् अर्थात् आहार भोजन सात्त्विक होनेके साथ-साथ सीमित मात्रामें ही खाना चाहिये। किन्तु हितभुक् तथा मितभुक्से ही काम नहीं चलेगा। आदर्श जीवनके लिये तक भी होना चाहिये। इंसान सात्त्विक भोजन करे, मर्यादित भोजन करे, लेकिन हो ऋभुक् आहार-जैसा।
ऋतभुक् आहारका भोजन नेक कमाईके पैसेसे पैदा किया गया होता है। पापकी कमाईका अन्न खानेसे आत्माका पतन होता है। [ श्रीकेशवानन्दजी ममगाई ।
Who is not a patient?
The first thing to be successful in the spiritual practice of life is the health of the body. Only a healthy body can do meditation, not a sick body. When Rishi Charak had composed and propagated the texts of Ayurveda, he reached the colony of doctors in the form of a bird and sitting on the branch of a tree said in a loud voice – ‘Kosruk?’ That is, who is not a patient? Hearing the voice of the bird, the doctors started playing their drums. The sage was deeply saddened by this, so he went to Vaidya Vagbhata sitting on the river bank to bathe and asked, ‘Who stopped?’
Vagbhat turned to the bird and said
‘Hitbhuk, Mitbhuk, Ritbhuk.’
Hitbhuk means we should eat sattvik food, which is beneficial for the body.
Mitbhuk means dietary food should be sattvik as well as should be eaten in limited quantity. But only benevolent and frugal will not work. It should be there even for an ideal life. A person should eat sattvik food, eat limited food, but it should be like a ribhuk diet.
The food of Ritbhuk diet is produced from the money of righteous earnings. Eating the food earned by sin leads to the downfall of the soul. [Shrikeshwanandji Mamgai.