लालच बुरी बला है – वृद्ध व्याघ्र-विप्रकथा

cemetery angel sculpture

लालच बुरी बला है – वृद्ध व्याघ्र-विप्रकथा (श्रीशरद कौटिल्यजी मुदगिल)

एक समय किसी वनमें एक बूढ़ा बाघ स्नानकर हाथमें कुशा लेकर एक पथिकसे कहने लगा-‘ओपथिक! इस सोनेके कंगनको ले लो, ये मेरे किसी कामका नहीं।’ यह देखकर वह पथिक ब्राह्मण सोचने लगा कि ऐसे अवसर : भाग्यसे आते हैं, परंतु इसमें जीवन-मरणका सन्देह है, इसलिये इसमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि अपने अहितकरसे इष्ट वस्तु मिलनेपर भी अच्छा परिणाम नहीं होता, जैसे- जिस अमृतमें विषका संसर्ग है, वह अमृत भी विष बनकर मृत्युका कारण बन जाता है। परंतु मनुष्य बिना संशय में पड़े लाभका भागी भी नहीं होता। यह सोचकर विप्रने बाघसे कहा- ‘कहाँ है सोनेका कंगन ?’ वाघने हाथ पसारकर सोनेका कंगन विप्रको दिखला दिया। सोनेका कंगन देखकर विप्रने बाघसे कहा- ‘तुम हिंसक पशु हो, तुम्हारा कैसे विश्वास करूँ ?’ व्याघ्र बोला- ‘युवावस्थामें मैं बहुत दुराचारी था, अनेक गौ, ब्राह्मण मनुष्योंको मारने से मेरे पुत्र और स्त्री सब मर गये। तब किसी धार्मिकने मुझे उपदेश दिया कि आप दान-धर्म कीजिये, उन्होंके कहनेसे मैं स्नानकर दान दे रहा हूँ। मेरे नख-दाँत सब टूट गये हैं, मेरे ऊपर विश्वास करो। जैसे मरुस्थलमें वर्षा तथा भूखेको दिया हुआ भोजन सफल होता है, वैसे ही निर्धनको दिया हुआ दान सफल होता है। तुम निर्धन हो, इसलिये यह कंगन तुम्हें दान कर रहा हूँ; क्योंकि रोगीके लिये औषधि लाभदायक होती है। जो लोग निरोग हों, उन्हें औषधिकी क्या आवश्यकता ? इसलिये मुझपर विश्वासकर तुम इस तालाब में स्नान करके यह सुवर्ण कंगन ग्रहण करो।’
व्याघ्रकी बातोंपर विश्वास करके वह विप्र ज्यों ही स्नान करनेके लिये तालाब में घुसा, वह कीचड़ में फँस गया और निकल न सका। उसको कीचड़में फँसा देखकर ‘अच्छा मैं निकालता हूँ-यह कहकर व्याघ्रने धीरे-धीरे विप्रके पास जाकर उसको पकड़ लिया। तब वह पथिक विचार करने लगा कि जो लोग अपने ज्ञानका उपयोग नहीं करते, उनका ज्ञान भी भारमात्र है, इसलिये मैंने अच्छा नहीं किया, जो एक हिंसक पशुका विश्वास कर लिया। वैसे भी कहा है कि नदियोंका, हाथमें शस्त्र लिये शत्रुका, नख और सींगवाले जन्तुओंका तथा राजकुलका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये।
सोनेके मृगका होना यद्यपि असंभव है, तथापि दशरथनन्दन राम मृगके लोभमें पड़े। जबकि उनको पता था कि सोनेका मृग नहीं हो सकता। प्रायः विपत्ति आनेपर मनुष्यको बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। मेरा भी यही हाल हुआ है, जो लोभमें आकर मुझे अपने प्राण गवाने पड़ रहे हैं। विप्र पथिक ऐसा सोच हो रहा था कि वृद्ध व्याघ्रने उसको मारकर खा लिया।
इसलिये लालचमें नहीं पड़ना चाहिये और भली भाँति बिना विचार किये कोई काम नहीं करना चाहिये।
[ हितोपदेश, मित्रलाभ ]

लालच बुरी बला है – वृद्ध व्याघ्र-विप्रकथा (श्रीशरद कौटिल्यजी मुदगिल)
एक समय किसी वनमें एक बूढ़ा बाघ स्नानकर हाथमें कुशा लेकर एक पथिकसे कहने लगा-‘ओपथिक! इस सोनेके कंगनको ले लो, ये मेरे किसी कामका नहीं।’ यह देखकर वह पथिक ब्राह्मण सोचने लगा कि ऐसे अवसर : भाग्यसे आते हैं, परंतु इसमें जीवन-मरणका सन्देह है, इसलिये इसमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि अपने अहितकरसे इष्ट वस्तु मिलनेपर भी अच्छा परिणाम नहीं होता, जैसे- जिस अमृतमें विषका संसर्ग है, वह अमृत भी विष बनकर मृत्युका कारण बन जाता है। परंतु मनुष्य बिना संशय में पड़े लाभका भागी भी नहीं होता। यह सोचकर विप्रने बाघसे कहा- ‘कहाँ है सोनेका कंगन ?’ वाघने हाथ पसारकर सोनेका कंगन विप्रको दिखला दिया। सोनेका कंगन देखकर विप्रने बाघसे कहा- ‘तुम हिंसक पशु हो, तुम्हारा कैसे विश्वास करूँ ?’ व्याघ्र बोला- ‘युवावस्थामें मैं बहुत दुराचारी था, अनेक गौ, ब्राह्मण मनुष्योंको मारने से मेरे पुत्र और स्त्री सब मर गये। तब किसी धार्मिकने मुझे उपदेश दिया कि आप दान-धर्म कीजिये, उन्होंके कहनेसे मैं स्नानकर दान दे रहा हूँ। मेरे नख-दाँत सब टूट गये हैं, मेरे ऊपर विश्वास करो। जैसे मरुस्थलमें वर्षा तथा भूखेको दिया हुआ भोजन सफल होता है, वैसे ही निर्धनको दिया हुआ दान सफल होता है। तुम निर्धन हो, इसलिये यह कंगन तुम्हें दान कर रहा हूँ; क्योंकि रोगीके लिये औषधि लाभदायक होती है। जो लोग निरोग हों, उन्हें औषधिकी क्या आवश्यकता ? इसलिये मुझपर विश्वासकर तुम इस तालाब में स्नान करके यह सुवर्ण कंगन ग्रहण करो।’
व्याघ्रकी बातोंपर विश्वास करके वह विप्र ज्यों ही स्नान करनेके लिये तालाब में घुसा, वह कीचड़ में फँस गया और निकल न सका। उसको कीचड़में फँसा देखकर ‘अच्छा मैं निकालता हूँ-यह कहकर व्याघ्रने धीरे-धीरे विप्रके पास जाकर उसको पकड़ लिया। तब वह पथिक विचार करने लगा कि जो लोग अपने ज्ञानका उपयोग नहीं करते, उनका ज्ञान भी भारमात्र है, इसलिये मैंने अच्छा नहीं किया, जो एक हिंसक पशुका विश्वास कर लिया। वैसे भी कहा है कि नदियोंका, हाथमें शस्त्र लिये शत्रुका, नख और सींगवाले जन्तुओंका तथा राजकुलका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये।
सोनेके मृगका होना यद्यपि असंभव है, तथापि दशरथनन्दन राम मृगके लोभमें पड़े। जबकि उनको पता था कि सोनेका मृग नहीं हो सकता। प्रायः विपत्ति आनेपर मनुष्यको बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। मेरा भी यही हाल हुआ है, जो लोभमें आकर मुझे अपने प्राण गवाने पड़ रहे हैं। विप्र पथिक ऐसा सोच हो रहा था कि वृद्ध व्याघ्रने उसको मारकर खा लिया।
इसलिये लालचमें नहीं पड़ना चाहिये और भली भाँति बिना विचार किये कोई काम नहीं करना चाहिये।
[ हितोपदेश, मित्रलाभ ]

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