सच्चे भाई-बहन

sunflower flowers yellow flowers

लंबी लाठी कंधेपर रखे, कमरमें तलवार बाँधे • फतहसिंह अपनी स्त्री राजूलाको ससुरालसे विदा कराके | घर जा रहा था। उसका घर दूर था, सूर्यास्त हो चुका था और मार्गमें डाकुओंका भय था। मार्गके गाँवमें कुछ लोगोंने उसे रोका भी कि वह रात्रि गाँवमें व्यतीत करके तब आगे बढ़ेः किंतु जवानीका जोश ठहरा; भला, पालीके सम्मुख वह अपनेको दुर्बल कैसे स्वीकार करता। उसने यात्रा जारी रखी।

स्वाभाविक था कि मार्गमें स्त्री कुछ पीछे रह जाती। पुरुषके समान तेज चालसे वह कैसे चल सकती थी। इतने में डाकका थैला बल्लममें लटकाये, घुँघुरुका शब्द करते, तलवार बाँधे ‘जटा-हरकारा’ नामसे पुकारे जानेवाले जटाशंकर महाराज उसी मार्गसे निकले। राजूलाने उन्हें प्रणाम किया।

“कौन? अभयराम काकाकी कन्या राजूला बहिन, अंधेरा होनेपर तू इधर कहाँ जा रही है?’ जटाशंकर महाराजने उसे पहिचान लिया और अपनी चाल धीमी करके वे उसके साथ हो गये। फतहसिंहके पूछनेपर राजुलाने बता दिया कि जटाशंकर महाराज उसीके गाँवके हैं, उसके पड़ोसी हैं।

ये लोग कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक सोतेके किनारे बबूलके वृक्षोंके झुरमुटमें छिपे आँवला गाँवके चारह कोइरी तलवार लिये निकले। उन्होंने फतहसिंहको ललकारा – ‘चुपचाप तलवार रख दो।”

बारह कोइरियोंको देखकर फतहसिंहको हेकड़ी भूल गयी। उन्होंने चुपचाप तलवार नीचे डाल दी। लुटेरोंने फतहसिंहके हाथ बाँध दिये और उन्हें एक और बैठा दिया। अब वे राजूलाके शरीरपरसे गहने उतारने | लगे। राजूला भयके कारण पुकार उठी-‘जटाशंकर | भाई। दौड़ो! बचाओं!’

जटाशंकर महाराज जान-बूझकर कुछ पीछे आ रहे थे, जिससे राजूलाके पतिको संकोच न हो अब पुकार सुनकर उन्होंने डाकका थैला फेंक दिया और तलवार खींचकर दौड़े लुटेरोंने उनसे कहा-‘जटा महाराज! तुम अपने रास्ते जाओ, व्यर्थ क्यों लड़ाई मोल लेते हो।’ जटा महाराजने गर्जना की अपनी बहिनको अपनी आँखोंसे में लुटती हुई देखूं तो मेरे जीवनको धिक्कार है।’

जटाशंकर महाराज तलवारके मँजे हुए खिलाड़ी थे। उनके सधे हाथ पड़ने लगे। कोइरियोंने भी उनपर एक साथ आक्रमण कर दिया। छपाछप तलवारें चलने लग; किंतु जटा महाराजने जब दसको तलवारके घाट उतार दिया, तब शेष दो भाग खड़े हुए महाराजने उनका भी पीछा किया और उनमेंसे एकको काट गिराया; किंतु दूसरेने उनपर पीछेसे आघात किया। जटाशंकर महाराज भी गिर पड़े।

फतहसिंहने अब अपने हाथ खोल लिये, लाठी उठा ली और तलवार बाँध ली। पत्नीसे वे बोले ‘चल जल्दी!’

राजूलाने कहा- अब मैं कहाँ जाऊँ। जिसने तीन पद साथ चलकर मेरे लिये अपने प्राण दे दिये, मेरी इज्जत बचानेके लिये जो जूझ गया, उसकी लाश सियारोंसे नोची जानेको छोड़कर मैं तुम्हारे साथ संसारके सुख भोगने जाऊँ? मेरा सच्चा भाई मरा पड़ा है, उसके देहके साथ मैं अपनी देशको आहुति दूंगी l

‘तेरे जैसी स्त्री मुझे बहुत मिलेंगी।’ कहकर कायर फतहसिंह तो चला गया; किंतु राजूला वहाँ जटाशंकर महाराजके शरीरके पास रातभर बैठी रही। सबेरा होनेपर उसने लकड़ियाँ एकत्र करके चिता बनायी। उस चितामें सच्चे भाईके देहके साथ वह सच्ची बहिन भी भस्म हो गयी। उस सोतेपर उन दोनोंके स्मारककी आज भी पूजा होती है।

लंबी लाठी कंधेपर रखे, कमरमें तलवार बाँधे • फतहसिंह अपनी स्त्री राजूलाको ससुरालसे विदा कराके | घर जा रहा था। उसका घर दूर था, सूर्यास्त हो चुका था और मार्गमें डाकुओंका भय था। मार्गके गाँवमें कुछ लोगोंने उसे रोका भी कि वह रात्रि गाँवमें व्यतीत करके तब आगे बढ़ेः किंतु जवानीका जोश ठहरा; भला, पालीके सम्मुख वह अपनेको दुर्बल कैसे स्वीकार करता। उसने यात्रा जारी रखी।
स्वाभाविक था कि मार्गमें स्त्री कुछ पीछे रह जाती। पुरुषके समान तेज चालसे वह कैसे चल सकती थी। इतने में डाकका थैला बल्लममें लटकाये, घुँघुरुका शब्द करते, तलवार बाँधे ‘जटा-हरकारा’ नामसे पुकारे जानेवाले जटाशंकर महाराज उसी मार्गसे निकले। राजूलाने उन्हें प्रणाम किया।
“कौन? अभयराम काकाकी कन्या राजूला बहिन, अंधेरा होनेपर तू इधर कहाँ जा रही है?’ जटाशंकर महाराजने उसे पहिचान लिया और अपनी चाल धीमी करके वे उसके साथ हो गये। फतहसिंहके पूछनेपर राजुलाने बता दिया कि जटाशंकर महाराज उसीके गाँवके हैं, उसके पड़ोसी हैं।
ये लोग कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक सोतेके किनारे बबूलके वृक्षोंके झुरमुटमें छिपे आँवला गाँवके चारह कोइरी तलवार लिये निकले। उन्होंने फतहसिंहको ललकारा – ‘चुपचाप तलवार रख दो।”
बारह कोइरियोंको देखकर फतहसिंहको हेकड़ी भूल गयी। उन्होंने चुपचाप तलवार नीचे डाल दी। लुटेरोंने फतहसिंहके हाथ बाँध दिये और उन्हें एक और बैठा दिया। अब वे राजूलाके शरीरपरसे गहने उतारने | लगे। राजूला भयके कारण पुकार उठी-‘जटाशंकर | भाई। दौड़ो! बचाओं!’
जटाशंकर महाराज जान-बूझकर कुछ पीछे आ रहे थे, जिससे राजूलाके पतिको संकोच न हो अब पुकार सुनकर उन्होंने डाकका थैला फेंक दिया और तलवार खींचकर दौड़े लुटेरोंने उनसे कहा-‘जटा महाराज! तुम अपने रास्ते जाओ, व्यर्थ क्यों लड़ाई मोल लेते हो।’ जटा महाराजने गर्जना की अपनी बहिनको अपनी आँखोंसे में लुटती हुई देखूं तो मेरे जीवनको धिक्कार है।’
जटाशंकर महाराज तलवारके मँजे हुए खिलाड़ी थे। उनके सधे हाथ पड़ने लगे। कोइरियोंने भी उनपर एक साथ आक्रमण कर दिया। छपाछप तलवारें चलने लग; किंतु जटा महाराजने जब दसको तलवारके घाट उतार दिया, तब शेष दो भाग खड़े हुए महाराजने उनका भी पीछा किया और उनमेंसे एकको काट गिराया; किंतु दूसरेने उनपर पीछेसे आघात किया। जटाशंकर महाराज भी गिर पड़े।
फतहसिंहने अब अपने हाथ खोल लिये, लाठी उठा ली और तलवार बाँध ली। पत्नीसे वे बोले ‘चल जल्दी!’
राजूलाने कहा- अब मैं कहाँ जाऊँ। जिसने तीन पद साथ चलकर मेरे लिये अपने प्राण दे दिये, मेरी इज्जत बचानेके लिये जो जूझ गया, उसकी लाश सियारोंसे नोची जानेको छोड़कर मैं तुम्हारे साथ संसारके सुख भोगने जाऊँ? मेरा सच्चा भाई मरा पड़ा है, उसके देहके साथ मैं अपनी देशको आहुति दूंगी l
‘तेरे जैसी स्त्री मुझे बहुत मिलेंगी।’ कहकर कायर फतहसिंह तो चला गया; किंतु राजूला वहाँ जटाशंकर महाराजके शरीरके पास रातभर बैठी रही। सबेरा होनेपर उसने लकड़ियाँ एकत्र करके चिता बनायी। उस चितामें सच्चे भाईके देहके साथ वह सच्ची बहिन भी भस्म हो गयी। उस सोतेपर उन दोनोंके स्मारककी आज भी पूजा होती है।

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *