भगवन्नाम समस्त पापोंको भस्म कर देता है

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कलौंजके आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिलने कुलटा दासीको पत्नी बना लिया था। न्याय अन्यायसे जैसे भी धन मिले, वैसे प्राप्त करना और उस दासीको | संतुष्ट करना ही उसका काम हो गया था। माता पिताकी | सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नीका पालन भी कर्तव्य है, यह बात उसे सर्वथा भूल चुकी थी। उनकी तो उसने खोज-खबर ही नहीं ली। न रहा आचार, न रहा संयम, न रहा धर्म। खाद्य अखाद्यका विचार गया और करणीय- अकरणीयका ध्यान भी जाता रहा। अजामिल ब्राह्मण नहीं रहा, म्लेच्छप्राय हो गया। पापरत पामर जीवन हो गया उसका और महीने दो महीने नहीं, पूरा जीवन ही उसका ऐसे ही पापोंमें बीता।

उस कुलटा दासीसे अजामिलके कई संतानें हुई। पहलेका किया पुण्य सहायक हुआ, किसी सत्पुरुषका उपदेश काम कर गया। अपने सबसे छोटे पुत्रका नाम अजामिलने ‘नारायण’ रखा। बुढ़ापेकी अन्तिम संतानपर पिताका अपार मोह होता है। अजामिलके प्राण जैसे उस छोटे बालकमें ही बसते थे। वह उसीके प्यार दुलारमें लगा रहता था। बालक कुछ देरको भी दूर हो जाय तो अजामिल व्याकुल होने लगता था। इसी मोहग्रस्त दशामें जीवनकाल समाप्त हो गया। मृत्युकी बड़ी आ गयी। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें पाश लिये आ धमके और अजामिलके सूक्ष्मशरीरको उन्होंने बाँध लिया। उन विकराल दूतोंको देखते ही अपसे व्याकुल अजामिलने पास खेलते अपने पुत्रको कातर स्वरमें पुकारा-‘नारायण नारायण!’

‘नारायण!’ एक मरणासन्न प्राणीकी कातर पुकार सदा सर्वत्र अप्रमत्त, अपने स्वामी के जनकी रक्षा में पर रहनेवाले भगवत्पादोंने और वे दौड़ पड़े। यमदूतोंका पाश उन्होंने छिन्न-भिन्न कर दिया। बलपूर्वक दूर हटा दिया यमदूतको अजामिलके पाससे।

ऐसा बेचारे यमदूत हक्के-बक्के देखते रह गये। उनका
अपमान कहीं नहीं हुआ था। उन्होंने इतने तेजस्वी |
देवता भी नहीं देखे थे। सब के सब इन्दीवर सुन्दर,
कमललोचन, रत्नाभरणभूषित, चतुर्भुज, शङ्ख-चक्र- गदा-पद्म लिये, अमिततेजस्वी- इन अद्भुत देवताओंसे यमदूतोंका कुछ वश भी नहीं चल सकता था। साहस करके वे भगवत्पार्षदोंसे बोले-‘आपलोग कौन हैं? हम तो धर्मराजके सेवक हैं। उनकी आज्ञासे पापीको उनके समक्ष ले जाते हैं। जीवके पाप पुण्यके फलका निर्णय तो हमारे स्वामी संयमनी नाथ ही करते हैं। आप हमें अपने कर्तव्यपालनसे क्यों रोकते हैं ?”

भगवत्पार्षदोंने तनिक फटकार दिया- “तुम धर्मराजके सेवक सही हो, किंतु तुम्हें धर्मका ज्ञान ही नहीं है। जानकर या अनजानमें ही जिसने ‘भगवान् नारायण’ का नाम ले लिया वह पापी रहा कहाँ संकेतसे, हँसीमें, छलसे गिरनेपर या और किसी भी बहाने लिया गया भगवन्नाम जीवके जन्म-जन्मान्तरके पापको वैसे ही भस्म कर देता है जैसे अग्रिकी छोटी चिनगारी सूखी लकड़ियोंकी महान देखेको भस्म कर देती है। इस पुरुषने पुत्रके बहाने सही नाम तो नारायण प्रभुका लिया है; फिर इसके पाप रहे कहाँ तुम एक निष्पापको कष्ट देनेकी धृष्टता मत करो!”

यमदूत क्या करते, वे अजामिलको छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामी के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्होंने उन धर्मराजरो ही पूछा “स्वामी क्या विश्वका आपके अतिरिक्त भी कोई शासक है? हम एक पापीको लेने गये थे। उसने अपने पुत्र नारायणको पुकारा; किंतु उसके ‘नारायण’ कहते ही वहाँ कई तेजोमय सिद्ध पुरुष आ धमके। उन सिद्धोंने आपके पाश तोड़ डाले और हमारी बड़ी दुर्गति की। वे अन्ततः हैं कौन जो निर्भय आपकी भी अवज्ञा करते हैं?’

दूतोंकी बात सुनकर यमराजने हाथ जोड़कर किसी अलक्ष्यको मस्तक झुकाया। वे बोले-‘दयामय भगवान् नारायण मेरा अपराध क्षमा करें मेरे अज्ञानी दूतोंने उनके जनकी अवहेलना की है। इसके पश्चात् वे दूतोंसे बोले-‘सेवको! समस्त जगत्के जो आदिकारण हैं, सृष्टि-स्थिति-संहार जिनके भूभङ्गमात्रसे होता है, वे भगवान् नारायण ही सर्वेश्वर हैं। मैं तो उनका क्षुद्रतमसेवकमात्र हूँ । उन नारायणभगवान्के नित्य सावधान पार्षद सदा-सर्वत्र उनके जनोंकी रक्षाके लिये घूमते रहते हैं। मुझसे और दूसरे समस्त संकटोंसे वे प्रभुके जनोंकी रक्षा करते हैं।’

यमराजने बताया- ‘तुमलोग केवल उसी पापी जीवको लेने जाया करो, जिसकी जीभसे कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो, जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो, जिसके पैर कभी भगवान्के पावन लीलास्थलोंमें न गये हों अथवा जिसके हाथोंने कभी भगवान्‌के श्रीविग्रहकी पूजा न की हो।’ यमदूतोंने अपने स्वामीकी यह आज्ञा उसी दिन भली-भाँति रटकर स्मरण कर ली; क्योंकि इसमें प्रमाद होनेका परिणाम वे भोग चुके थे ।

यमदूतोंके अदृश्य होते ही अजामिलकी चेतना सजग हुई; किंतु वह कुछ पूछे या बोले, इससे पूर्व ही भगवत्पार्षद भी अदृश्य हो गये। भले भगवत्पार्षद अदृश्य हो जायँ; किंतु अजामिल उनका दर्शन कर चुका था। यदि एक क्षणके कुसङ्गने उसे पापके गड्ढे मेंढकेल दिया था तो एक क्षणके सत्सङ्गने उसे उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया। उसका हृदय बदल चुका था। आसक्ति नष्ट हो चुकी थी। अपने अपकर्मोंके लिये घोर पश्चात्ताप उसके हृदयमें जाग्रत् हो गया था ।

तनिक सावधान होते ही अजामिल उठा। अब जैसे इस परिवार और इस संसारसे उसका कोई सम्बन्ध ही न था। बिना किसीसे कुछ कहे वह घरसे निकला और चल पड़ा। धीरे-धीरे वह हरिद्वार पहुँच गया। वहाँ भगवती पतितपावनी भागीरथीमें नित्य स्नान और उनके तटपर ही आसन लगाकर भगवान्‌का सतत भजन यही उसका जीवन बन गया।

आयुको तो समाप्त होना ही ठहरा; किंतु जब अजामिलकी आयु समाप्त हुई, वह मरा नहीं। वह तो देह त्यागकर मृत्युके चंगुलसे सदाको छूट गया। भगवान्के वे ही पार्षद विमान लेकर पधारे और उस विमानमें बैठकर अजामिल भगवद्धाम चला गया।

(श्रीमद्भागवत 6 । 1-3)

कलौंजके आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिलने कुलटा दासीको पत्नी बना लिया था। न्याय अन्यायसे जैसे भी धन मिले, वैसे प्राप्त करना और उस दासीको | संतुष्ट करना ही उसका काम हो गया था। माता पिताकी | सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नीका पालन भी कर्तव्य है, यह बात उसे सर्वथा भूल चुकी थी। उनकी तो उसने खोज-खबर ही नहीं ली। न रहा आचार, न रहा संयम, न रहा धर्म। खाद्य अखाद्यका विचार गया और करणीय- अकरणीयका ध्यान भी जाता रहा। अजामिल ब्राह्मण नहीं रहा, म्लेच्छप्राय हो गया। पापरत पामर जीवन हो गया उसका और महीने दो महीने नहीं, पूरा जीवन ही उसका ऐसे ही पापोंमें बीता।
उस कुलटा दासीसे अजामिलके कई संतानें हुई। पहलेका किया पुण्य सहायक हुआ, किसी सत्पुरुषका उपदेश काम कर गया। अपने सबसे छोटे पुत्रका नाम अजामिलने ‘नारायण’ रखा। बुढ़ापेकी अन्तिम संतानपर पिताका अपार मोह होता है। अजामिलके प्राण जैसे उस छोटे बालकमें ही बसते थे। वह उसीके प्यार दुलारमें लगा रहता था। बालक कुछ देरको भी दूर हो जाय तो अजामिल व्याकुल होने लगता था। इसी मोहग्रस्त दशामें जीवनकाल समाप्त हो गया। मृत्युकी बड़ी आ गयी। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें पाश लिये आ धमके और अजामिलके सूक्ष्मशरीरको उन्होंने बाँध लिया। उन विकराल दूतोंको देखते ही अपसे व्याकुल अजामिलने पास खेलते अपने पुत्रको कातर स्वरमें पुकारा-‘नारायण नारायण!’
‘नारायण!’ एक मरणासन्न प्राणीकी कातर पुकार सदा सर्वत्र अप्रमत्त, अपने स्वामी के जनकी रक्षा में पर रहनेवाले भगवत्पादोंने और वे दौड़ पड़े। यमदूतोंका पाश उन्होंने छिन्न-भिन्न कर दिया। बलपूर्वक दूर हटा दिया यमदूतको अजामिलके पाससे।
ऐसा बेचारे यमदूत हक्के-बक्के देखते रह गये। उनका
अपमान कहीं नहीं हुआ था। उन्होंने इतने तेजस्वी |
देवता भी नहीं देखे थे। सब के सब इन्दीवर सुन्दर,
कमललोचन, रत्नाभरणभूषित, चतुर्भुज, शङ्ख-चक्र- गदा-पद्म लिये, अमिततेजस्वी- इन अद्भुत देवताओंसे यमदूतोंका कुछ वश भी नहीं चल सकता था। साहस करके वे भगवत्पार्षदोंसे बोले-‘आपलोग कौन हैं? हम तो धर्मराजके सेवक हैं। उनकी आज्ञासे पापीको उनके समक्ष ले जाते हैं। जीवके पाप पुण्यके फलका निर्णय तो हमारे स्वामी संयमनी नाथ ही करते हैं। आप हमें अपने कर्तव्यपालनसे क्यों रोकते हैं ?”
भगवत्पार्षदोंने तनिक फटकार दिया- “तुम धर्मराजके सेवक सही हो, किंतु तुम्हें धर्मका ज्ञान ही नहीं है। जानकर या अनजानमें ही जिसने ‘भगवान् नारायण’ का नाम ले लिया वह पापी रहा कहाँ संकेतसे, हँसीमें, छलसे गिरनेपर या और किसी भी बहाने लिया गया भगवन्नाम जीवके जन्म-जन्मान्तरके पापको वैसे ही भस्म कर देता है जैसे अग्रिकी छोटी चिनगारी सूखी लकड़ियोंकी महान देखेको भस्म कर देती है। इस पुरुषने पुत्रके बहाने सही नाम तो नारायण प्रभुका लिया है; फिर इसके पाप रहे कहाँ तुम एक निष्पापको कष्ट देनेकी धृष्टता मत करो!”
यमदूत क्या करते, वे अजामिलको छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामी के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्होंने उन धर्मराजरो ही पूछा “स्वामी क्या विश्वका आपके अतिरिक्त भी कोई शासक है? हम एक पापीको लेने गये थे। उसने अपने पुत्र नारायणको पुकारा; किंतु उसके ‘नारायण’ कहते ही वहाँ कई तेजोमय सिद्ध पुरुष आ धमके। उन सिद्धोंने आपके पाश तोड़ डाले और हमारी बड़ी दुर्गति की। वे अन्ततः हैं कौन जो निर्भय आपकी भी अवज्ञा करते हैं?’
दूतोंकी बात सुनकर यमराजने हाथ जोड़कर किसी अलक्ष्यको मस्तक झुकाया। वे बोले-‘दयामय भगवान् नारायण मेरा अपराध क्षमा करें मेरे अज्ञानी दूतोंने उनके जनकी अवहेलना की है। इसके पश्चात् वे दूतोंसे बोले-‘सेवको! समस्त जगत्के जो आदिकारण हैं, सृष्टि-स्थिति-संहार जिनके भूभङ्गमात्रसे होता है, वे भगवान् नारायण ही सर्वेश्वर हैं। मैं तो उनका क्षुद्रतमसेवकमात्र हूँ । उन नारायणभगवान्के नित्य सावधान पार्षद सदा-सर्वत्र उनके जनोंकी रक्षाके लिये घूमते रहते हैं। मुझसे और दूसरे समस्त संकटोंसे वे प्रभुके जनोंकी रक्षा करते हैं।’
यमराजने बताया- ‘तुमलोग केवल उसी पापी जीवको लेने जाया करो, जिसकी जीभसे कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो, जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो, जिसके पैर कभी भगवान्के पावन लीलास्थलोंमें न गये हों अथवा जिसके हाथोंने कभी भगवान्‌के श्रीविग्रहकी पूजा न की हो।’ यमदूतोंने अपने स्वामीकी यह आज्ञा उसी दिन भली-भाँति रटकर स्मरण कर ली; क्योंकि इसमें प्रमाद होनेका परिणाम वे भोग चुके थे ।
यमदूतोंके अदृश्य होते ही अजामिलकी चेतना सजग हुई; किंतु वह कुछ पूछे या बोले, इससे पूर्व ही भगवत्पार्षद भी अदृश्य हो गये। भले भगवत्पार्षद अदृश्य हो जायँ; किंतु अजामिल उनका दर्शन कर चुका था। यदि एक क्षणके कुसङ्गने उसे पापके गड्ढे मेंढकेल दिया था तो एक क्षणके सत्सङ्गने उसे उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया। उसका हृदय बदल चुका था। आसक्ति नष्ट हो चुकी थी। अपने अपकर्मोंके लिये घोर पश्चात्ताप उसके हृदयमें जाग्रत् हो गया था ।
तनिक सावधान होते ही अजामिल उठा। अब जैसे इस परिवार और इस संसारसे उसका कोई सम्बन्ध ही न था। बिना किसीसे कुछ कहे वह घरसे निकला और चल पड़ा। धीरे-धीरे वह हरिद्वार पहुँच गया। वहाँ भगवती पतितपावनी भागीरथीमें नित्य स्नान और उनके तटपर ही आसन लगाकर भगवान्‌का सतत भजन यही उसका जीवन बन गया।
आयुको तो समाप्त होना ही ठहरा; किंतु जब अजामिलकी आयु समाप्त हुई, वह मरा नहीं। वह तो देह त्यागकर मृत्युके चंगुलसे सदाको छूट गया। भगवान्के वे ही पार्षद विमान लेकर पधारे और उस विमानमें बैठकर अजामिल भगवद्धाम चला गया।
(श्रीमद्भागवत 6 । 1-3)

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