धन कुबेरके दो पुत्र थे- नलकूबर और मणिग्रीव कुबेरके पुत्र, फिर सम्पत्तिका पूछना क्या। युवावस्था थी, यक्ष होनेके कारण अत्यन्त बली थे, लोकपालके पुत्र होनेके कारण परम स्वतन्त्र थे।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता ।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥
युवावस्था, धन, प्रभुत्व और विचारहीनता –
इनमें प्रत्येक अनर्थका कारण है; फिर जहाँ चारों हॉ वहाँ तो पूछना ही क्या। कुबेरके पुत्रोंमें चारों दोष एक साथ आ गये। धन-मदसे वे उन्मत्त रहने लगे।
एक बार वे स्त्रियोंके साथ मदिरा पीकर जल क्रीडा कर रहे थे नंगे होकर उसी समय देवर्षि नारद उधरसे निकले। देवर्षिको देखकर स्त्रियाँ झटपट जलसे बाहर निकल आयीं और उन्होंने वस्त्र पहिनलिये; किंतु दोनों कुबेरपुत्र वैसे ही नंग-धड़ंग खड़े रहे। देवर्षिका कोई सत्कार या संकोच करना उन्हें अनावश्यक लगा।
देवर्षिको उनकी दशा देखकर क्रोध तो नहीं आया, दया आ गयी। कुबेरजी लोकपाल हैं, उनके गण भी उपदेव माने जाते हैं, भगवान् शंकर उन्हें अपना सखा कहते हैं; उनके पुत्र ऐसे असभ्य और मदान्ध ! दया करके देवर्षिने शाप दे दिया- ‘तुम दोनों जडकी भाँति खड़े हो, अतः जड वृक्ष हो जाओ।’
संतके दर्शनसे कोई बन्धनमें नहीं पड़ता। संतके शापसे किसीका अमङ्गल नहीं होता। संत तो है ही मङ्गलमय। उसका दर्शन, स्पर्श, सेवन तो मङ्गलकारी है ही, उसके रोष और शापसे भी जीवका परिणाममें मङ्गल ही होता है। देवर्षिने शाप देते हुए कहा- ‘ – ‘तुमदोनों व्रजमें नन्दद्वारपर सटे हुए अर्जुनके वृक्ष बनो। द्वापरमें अवतार लेकर श्रीकृष्णचन्द्र वृक्षयोनिसे तुम्हारा उद्धार करेंगे और तब तुम्हें भगवद्भक्ति प्राप्त होगी।’
यह शाप है या वरदान ? श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन प्राप्त होगा, स्पर्श प्राप्त होगा और भगवद्भक्ति प्राप्त होगी। व्रजमें निवास प्राप्त होगा उससे पूर्व, और वह भी नन्दद्वार पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब श्यामसुन्दरकी स्तुति की वत्सहरणके पश्चात्, तब वे भी इतना साहस नहीं कर सके कि नन्दपौरिपर वृक्ष होनेकी प्रार्थना कर सकें। डरते-डरते उन्होंने यही प्रार्थना की- ‘नाथ! मुझे व्रजमें कुछ भी बना दीजिये।’ सृष्टिकर्ता प्रार्थना करके भी व्रजके तृण होनेका वरदान नहीं पा सके और उद्धतकुबेरपुत्रोंको शाप मिल गया नन्दद्वारपर दीर्घकालतक वृक्ष होकर रहनेका—यह संतके दर्शनका प्रभाव था । लीलामय नटनागरने द्वापरमें अवतार लेकर अपने ही घरमें दहीका मटका फोड़ा, माखन चुराया और इस प्रकार मैया यशोदाको रुष्ट करके उनके हाथों अपनेको ऊखलसे बँधवाया। इसके बाद रस्सीमें ऊखलसे बँधा वह दामोदर ऊखल घसीटता अपने द्वारपर अर्जुन-वृक्ष बने कुबेरपुत्रोंके पास पहुँचा । वृक्षोंके मध्य ऊखल अटकाकर उसने बलपूर्वक वृक्षोंको गिरा दिया; क्योंकि अपने प्रिय भक्त देवर्षिकी बात उसे सत्य करनी थी। कुबेरके पुत्रोंको वृक्षयोनिसे परित्राण दिया उसने ।
– सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 10 । 9-10 )
धन कुबेरके दो पुत्र थे- नलकूबर और मणिग्रीव कुबेरके पुत्र, फिर सम्पत्तिका पूछना क्या। युवावस्था थी, यक्ष होनेके कारण अत्यन्त बली थे, लोकपालके पुत्र होनेके कारण परम स्वतन्त्र थे।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता ।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥
युवावस्था, धन, प्रभुत्व और विचारहीनता –
इनमें प्रत्येक अनर्थका कारण है; फिर जहाँ चारों हॉ वहाँ तो पूछना ही क्या। कुबेरके पुत्रोंमें चारों दोष एक साथ आ गये। धन-मदसे वे उन्मत्त रहने लगे।
एक बार वे स्त्रियोंके साथ मदिरा पीकर जल क्रीडा कर रहे थे नंगे होकर उसी समय देवर्षि नारद उधरसे निकले। देवर्षिको देखकर स्त्रियाँ झटपट जलसे बाहर निकल आयीं और उन्होंने वस्त्र पहिनलिये; किंतु दोनों कुबेरपुत्र वैसे ही नंग-धड़ंग खड़े रहे। देवर्षिका कोई सत्कार या संकोच करना उन्हें अनावश्यक लगा।
देवर्षिको उनकी दशा देखकर क्रोध तो नहीं आया, दया आ गयी। कुबेरजी लोकपाल हैं, उनके गण भी उपदेव माने जाते हैं, भगवान् शंकर उन्हें अपना सखा कहते हैं; उनके पुत्र ऐसे असभ्य और मदान्ध ! दया करके देवर्षिने शाप दे दिया- ‘तुम दोनों जडकी भाँति खड़े हो, अतः जड वृक्ष हो जाओ।’
संतके दर्शनसे कोई बन्धनमें नहीं पड़ता। संतके शापसे किसीका अमङ्गल नहीं होता। संत तो है ही मङ्गलमय। उसका दर्शन, स्पर्श, सेवन तो मङ्गलकारी है ही, उसके रोष और शापसे भी जीवका परिणाममें मङ्गल ही होता है। देवर्षिने शाप देते हुए कहा- ‘ – ‘तुमदोनों व्रजमें नन्दद्वारपर सटे हुए अर्जुनके वृक्ष बनो। द्वापरमें अवतार लेकर श्रीकृष्णचन्द्र वृक्षयोनिसे तुम्हारा उद्धार करेंगे और तब तुम्हें भगवद्भक्ति प्राप्त होगी।’
यह शाप है या वरदान ? श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन प्राप्त होगा, स्पर्श प्राप्त होगा और भगवद्भक्ति प्राप्त होगी। व्रजमें निवास प्राप्त होगा उससे पूर्व, और वह भी नन्दद्वार पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब श्यामसुन्दरकी स्तुति की वत्सहरणके पश्चात्, तब वे भी इतना साहस नहीं कर सके कि नन्दपौरिपर वृक्ष होनेकी प्रार्थना कर सकें। डरते-डरते उन्होंने यही प्रार्थना की- ‘नाथ! मुझे व्रजमें कुछ भी बना दीजिये।’ सृष्टिकर्ता प्रार्थना करके भी व्रजके तृण होनेका वरदान नहीं पा सके और उद्धतकुबेरपुत्रोंको शाप मिल गया नन्दद्वारपर दीर्घकालतक वृक्ष होकर रहनेका—यह संतके दर्शनका प्रभाव था । लीलामय नटनागरने द्वापरमें अवतार लेकर अपने ही घरमें दहीका मटका फोड़ा, माखन चुराया और इस प्रकार मैया यशोदाको रुष्ट करके उनके हाथों अपनेको ऊखलसे बँधवाया। इसके बाद रस्सीमें ऊखलसे बँधा वह दामोदर ऊखल घसीटता अपने द्वारपर अर्जुन-वृक्ष बने कुबेरपुत्रोंके पास पहुँचा । वृक्षोंके मध्य ऊखल अटकाकर उसने बलपूर्वक वृक्षोंको गिरा दिया; क्योंकि अपने प्रिय भक्त देवर्षिकी बात उसे सत्य करनी थी। कुबेरके पुत्रोंको वृक्षयोनिसे परित्राण दिया उसने ।
– सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 10 । 9-10 )