कुदरतका कानून
एक सन्त अपने शिष्योंके साथ स्थान-स्थानपर भ्रमण कर रहे थे। एक दिन वे एक गाँवमें जा पहुँचे। के एक लोहारकी दुकानपर पहुँचे और रात बिताने की जगह माँगी। लुहारने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। सन्त बोले- ‘बेटा! हम तेरी सेवासे बड़े प्रसन्न हैं और तुझे तीन वरदान देते हैं। जो चाहो, सो माँग लो।’
पहले हो लुहार सकुचाया,
फिरबोला-‘महात्माजी! मुझे सौ वर्षकी आयुका वरदान दीजिये।’ सन्त बोले- ‘तथास्तु’। दूसरा वर माँगो उसने दूसरे वरमें माँगा कि उसे जीवनभर कामकी कोई कमी न रहे।
सन्तने वह वर भी दे दिया। फिर तीसरा वर माँगनेको कहा। लुहारको एकाएक कुछ न सूझा, फिर एकदम वह बोला-‘आप मेरी जिस कुर्सीपर बैठे हैं, उसपर जब भी कोई दूसरा बैठे तो मेरी मर्जी के बिना उठ न सके।’
सन्त कुर्सीसे उठे और तथास्तु कहकर अपने शिष्योंके साथ वहाँसे चले गये। सन्तने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। लुहारके सभी संगी-साथी, एक एक करके समय आनेपर मृत्युका वरण कर गये, पर तुहार वैसा का वैसा हट्टा-कट्टा बना रहा। उसकी दुकानपर कामकी कोई कमी नहीं थी। वह दिनभर गाते हर लोहा पीटता था। एक न एक दिन तो सभीका
समय समाप्त होता है, वरदानके सौ वर्ष पूरे होते ही यमराज आये और उसे साथ चलनेके लिये कहा। लुहार पहले तो घबराया, पर फिर संभलकर बोला- ‘आइये यमराजजी में जरा अपने औजार संभालकर रख दूँ तबतक आप इस कुर्सीपर विराजिये।’ यमराज कुर्सीपर बैठे ही थे कि लुहार ठहाका मारकर हँसा और बोला “अब आप मेरी मर्जी के बिना यहाँसे उठ नहीं सकते।’ यमराजने बड़ी कोशिश की, पर वे कुर्सीसे नहीं उठ सके। यमराजको अब अपनी कैदमें पाकर लुहारको अपनी मृत्युका कोई डर नहीं रहा। इसी खुशीमें उसका दावत उड़ानेका मन हुआ। उसने एक मुर्गेको दड़बेसे निकालकर हलाल करनेकी सोची, मगर जैसे ही उसने मुर्गेकी गर्दनपर चाकू चलायी, वह फिरसे जुड़ गयी। मुर्गा फड़फड़ाता हुआ भाग निकला।
लुहार मुर्गेके पीछे दौड़ा, पर उसे पकड़ न पाया। तब उसने एक बकरेपर हाथ डाला, पर घोर आश्चर्य, बकरा भी पुनः जीवित होकर उसके हाथसे निकल गया। लुहारको तुरंत ही यह रहस्य समझमें आ गया और वह बोला-‘मैं भी कैसा मूर्ख हूँ। जब यमराज ही मेरी कैदमें हैं तो किसीकी मृत्यु कैसे हो सकती है ? चलो अच्छा है, किसीको किसीके मरनेका दुःख नहीं
होगा। मैं तो दलिया और खिचड़ीसे गुजारा कर लूंगा। सभीकी जान तो सलामत रहेगी।’ पूरी दुनियाकी मुसीबतें बढ़ने लगीं। किसीके भी न मरनेके कारण जीव जन्तुओंकी संख्या बढ़ने लगी। अनगिनत मक्खी-मच्छर, कीड़े-मकोड़े, चूहे और मेढक पैदा हुए, मगर मरा एक भी नहीं। चूहोंने खेतों और खलिहानोंमें रखी सारी फसलें एवं अनाज चट कर डाले।
पेड़ोंका एक-एक फल पक्षियों और कीड़ोंने कुतर दिया। नदियाँ और समुद्र मछलियों, मेढकों और अन्य पानीके जीवोंसे इतने भर गये कि उनमेंसे बदबू आने लगी और उनका पानी पीनेलायक नहीं रहा। आकाश टिड्डियों और मच्छरोंसे भरा रहनेके कारण काला दिखाई पड़ने लगा। धरतीपर भयानक साँप और जीव-जन्तु विचरने लगे। प्रकृतिका संतुलन बिगड़ गया। लोग अत्यन्त दुखी हो उठे। यह सब विनाश देखकर लुहारको अपनी भूलका एहसास हुआ। उसे अब पता लगा कि विनाशके बिना सारा विकास अधूरा है। प्रकृतिके संतुलनके लिये मृत्यु अनिवार्य है। लुहार दौड़ता हुआ अपने घर पहुँचा और यमराजको मुक्त कर दिया। यमराजने उसकी गर्दनमें फंदा डाला और उसे यमलोक ले गये। उसके बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। इसलिये कहते हैं- प्रकृतिके साथ खिलवाड़ मत करो।
कुदरतका कानून
एक सन्त अपने शिष्योंके साथ स्थान-स्थानपर भ्रमण कर रहे थे। एक दिन वे एक गाँवमें जा पहुँचे। के एक लोहारकी दुकानपर पहुँचे और रात बिताने की जगह माँगी। लुहारने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। सन्त बोले- ‘बेटा! हम तेरी सेवासे बड़े प्रसन्न हैं और तुझे तीन वरदान देते हैं। जो चाहो, सो माँग लो।’
पहले हो लुहार सकुचाया,
फिरबोला-‘महात्माजी! मुझे सौ वर्षकी आयुका वरदान दीजिये।’ सन्त बोले- ‘तथास्तु’। दूसरा वर माँगो उसने दूसरे वरमें माँगा कि उसे जीवनभर कामकी कोई कमी न रहे।
सन्तने वह वर भी दे दिया। फिर तीसरा वर माँगनेको कहा। लुहारको एकाएक कुछ न सूझा, फिर एकदम वह बोला-‘आप मेरी जिस कुर्सीपर बैठे हैं, उसपर जब भी कोई दूसरा बैठे तो मेरी मर्जी के बिना उठ न सके।’
सन्त कुर्सीसे उठे और तथास्तु कहकर अपने शिष्योंके साथ वहाँसे चले गये। सन्तने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। लुहारके सभी संगी-साथी, एक एक करके समय आनेपर मृत्युका वरण कर गये, पर तुहार वैसा का वैसा हट्टा-कट्टा बना रहा। उसकी दुकानपर कामकी कोई कमी नहीं थी। वह दिनभर गाते हर लोहा पीटता था। एक न एक दिन तो सभीका
समय समाप्त होता है, वरदानके सौ वर्ष पूरे होते ही यमराज आये और उसे साथ चलनेके लिये कहा। लुहार पहले तो घबराया, पर फिर संभलकर बोला- ‘आइये यमराजजी में जरा अपने औजार संभालकर रख दूँ तबतक आप इस कुर्सीपर विराजिये।’ यमराज कुर्सीपर बैठे ही थे कि लुहार ठहाका मारकर हँसा और बोला “अब आप मेरी मर्जी के बिना यहाँसे उठ नहीं सकते।’ यमराजने बड़ी कोशिश की, पर वे कुर्सीसे नहीं उठ सके। यमराजको अब अपनी कैदमें पाकर लुहारको अपनी मृत्युका कोई डर नहीं रहा। इसी खुशीमें उसका दावत उड़ानेका मन हुआ। उसने एक मुर्गेको दड़बेसे निकालकर हलाल करनेकी सोची, मगर जैसे ही उसने मुर्गेकी गर्दनपर चाकू चलायी, वह फिरसे जुड़ गयी। मुर्गा फड़फड़ाता हुआ भाग निकला।
लुहार मुर्गेके पीछे दौड़ा, पर उसे पकड़ न पाया। तब उसने एक बकरेपर हाथ डाला, पर घोर आश्चर्य, बकरा भी पुनः जीवित होकर उसके हाथसे निकल गया। लुहारको तुरंत ही यह रहस्य समझमें आ गया और वह बोला-‘मैं भी कैसा मूर्ख हूँ। जब यमराज ही मेरी कैदमें हैं तो किसीकी मृत्यु कैसे हो सकती है ? चलो अच्छा है, किसीको किसीके मरनेका दुःख नहीं
होगा। मैं तो दलिया और खिचड़ीसे गुजारा कर लूंगा। सभीकी जान तो सलामत रहेगी।’ पूरी दुनियाकी मुसीबतें बढ़ने लगीं। किसीके भी न मरनेके कारण जीव जन्तुओंकी संख्या बढ़ने लगी। अनगिनत मक्खी-मच्छर, कीड़े-मकोड़े, चूहे और मेढक पैदा हुए, मगर मरा एक भी नहीं। चूहोंने खेतों और खलिहानोंमें रखी सारी फसलें एवं अनाज चट कर डाले।
पेड़ोंका एक-एक फल पक्षियों और कीड़ोंने कुतर दिया। नदियाँ और समुद्र मछलियों, मेढकों और अन्य पानीके जीवोंसे इतने भर गये कि उनमेंसे बदबू आने लगी और उनका पानी पीनेलायक नहीं रहा। आकाश टिड्डियों और मच्छरोंसे भरा रहनेके कारण काला दिखाई पड़ने लगा। धरतीपर भयानक साँप और जीव-जन्तु विचरने लगे। प्रकृतिका संतुलन बिगड़ गया। लोग अत्यन्त दुखी हो उठे। यह सब विनाश देखकर लुहारको अपनी भूलका एहसास हुआ। उसे अब पता लगा कि विनाशके बिना सारा विकास अधूरा है। प्रकृतिके संतुलनके लिये मृत्यु अनिवार्य है। लुहार दौड़ता हुआ अपने घर पहुँचा और यमराजको मुक्त कर दिया। यमराजने उसकी गर्दनमें फंदा डाला और उसे यमलोक ले गये। उसके बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। इसलिये कहते हैं- प्रकृतिके साथ खिलवाड़ मत करो।