शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
मनुष्यका यह स्वभाव है कि दूसरे आदमी उसे जैसा पुनः पुनः कहते हैं, धीरे-धीरे वह स्वयं भी अपने बारेमें वैसा ही विश्वास करने लगता है।
चाहे हम ऊपरसे दूसरोंकी बातोंसे मन फेर लें; किंतु, दूसरोंकी बातचीत और टीका-टिप्पणीका गुप्त प्रभाव हमारे ऊपर बहुत जल्द पड़ता है। हम चाहे वास्तवमें लाख अच्छे ही हों; पर यदि हमें अपने अच्छेपनका सबूत दूसरोंके शब्दोंद्वारा नहीं मिलता, तो हमारे गुप्त मनपर गहरा आघात पहुँचता है। हमारे अच्छेपनके गुण क्षीण होने लगते हैं।
श्री श्रीप्रकाशजीने एक बार श्रीमती ऐनी बेसेन्टसे पूछा था कि ‘हम भारतीयोंमें क्या दोष है कि हम उन्नति नहीं कर पाते ?’
श्रीरीमती ऐनी बेसेन्ट शिष्टाचारकी मूर्ति थीं। वे किसीके हृदयको कष्ट देना नहीं चाहती थीं। वे उत्तर देनेमें संकोच कर रही थीं। जब श्री श्रीप्रकाशजीने बार बार आग्रह किया, तो उन्होंने केवल इतना ही कहा था-‘तुम लोगोंमें उदारता नहीं है’ (यू आर नाट ए जेनरस पीपुल ) ।
श्रीमती ऐनी बेसेन्ट तो सदासे हीभारतीयोंकी प्रशंसक थीं। लेकिन जिस त्रुटिकी ओर उन्होंने हमारा ध्यान आकृष्ट किया था, वह दूसरोंको प्रोत्साहन देने में उदारताकी कमी थी।
वास्तवमें प्रोत्साहनका अभाव हमारे राष्ट्रीय जीवनकी एक बड़ी कमजोरी बन गयी है। हम दूसरेके प्रति दो-चार अच्छे या मीठे शब्द कहनेके बजाय उसे तुच्छताका भ्रम कराना ही पसन्द करते हैं।
बहुत से माता-पिता, शिक्षक इत्यादिमें यह खोटी आदत होती है कि बच्चोंकी जरा-सी भूलोंपर अथवा शीघ्र पाठ न समझ सकनेपर चिढ़कर कटु वचनोंका उच्चारण करने लगते हैं। ‘तुमसे कुछ न होगा। तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा हुआ है। तुमसे जीवनमें कुछ न होगा।’ इन संकेतोंका ऐसा कुप्रभाव पड़ता है कि कोमल शिशु अपनी महानताको नहीं पहचान पाता। बालक वैसे ही भावुक होता है। जरा-सी मानसिक ठेससे उसमें तुच्छताकी हानिकर भावना जड़ पकड़ जाती है और उसकी बाढ़ हमेशाके लिये रुक जाती है। आप गम्भीरतासे देखें तो आपको अनेक ऐसे डरे-दुबके भीरु प्रकृतिके अधपनपे बच्चे मिल जायेंगे, जो इस तुच्छताकी ग्रन्थिसे परेशान हो अपनी महानता न खोज सके हैं, न पनपा ही सके हैं।
इसलिये जिसका सुधार करना हो, उसके सद्गुणों को सही दिशामें प्रोत्साहितकर उसकी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्तियोंका मार्ग खोलिये।
way to open powers
It is the nature of man that as other men tell him again and again, gradually he himself starts believing the same thing about himself.
Even if we turn our mind away from the words of others; But, the secret effect of other’s talk and comment falls on us very soon. We may be really good; But if we do not get the proof of our goodness through the words of others, then our secret mind gets deeply hurt. Our qualities of goodness start to wane.
Shri Shriprakashji once asked Mrs. Anne Besant, ‘What is the fault of us Indians that we are not able to progress?’
Mrs. Annie Besant was the epitome of etiquette. She didn’t want to hurt anyone’s heart. She was hesitant to answer. When Shri Sri Prakash ji repeatedly urged, he only said – ‘You are not a generous people’ (You are not a generous people).
Mrs. Annie Besant was always an admirer of Indians. But the error to which he drew our attention was a lack of generosity in encouraging others.
In fact lack of encouragement has become a major weakness of our national life. Instead of saying two or four good or sweet words towards others, we prefer to give them the illusion of insignificance.
Many parents, teachers etc. have this bad habit that they start pronouncing harsh words by getting irritated on the slightest mistakes of the children or on not being able to understand the lesson quickly. Nothing will happen to you. Your mind is full of chaff. Nothing will happen to you in life.’ These signals have such a bad effect that a tender child does not recognize his greatness. A child is just as emotional. With the slightest mental trauma, the harmful feeling of insignificance takes root in him and its flood stops forever. If you look seriously, you will find many such timid and underprivileged children of nature, who, being troubled by this knot of insignificance, have neither been able to find their greatness, nor have been able to flourish.
That’s why by encouraging his virtues in the right direction of the one who has to be reformed, open the way for his physical, mental and intellectual powers.