जब भगवान् विष्णुने वामनरूपसे वलिसे पृथ्वी तथा स्वर्गका राज्य छीनकर इन्द्रको दे दिया, तब कुछ ही दिनोंमें राज्यलक्ष्मीके स्वाभाविक दुर्गुण गर्वसे इन्द्र पुनः उन्मत्त हो उठे। एक दिन वे ब्रह्माजीके पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले— ‘पितामह! अब अपार दानी राजा बलिका कुछ पता नहीं लग रहा है। मैं सर्वत्र खोजता हूँ, पर उनका पता नहीं मिलता। आप कृपाकर मुझे उनका पता बताइये।’ ब्रह्माजीने कहा ‘तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं। तथापि किसीके पूछनेपर झूठा उत्तर नहीं देना चाहिये, अतएव मैं तुम्हें बलिका पता बतला देता हूँ। राजा बलि इस समय ऊँट, बैल, गधा या घोड़ा बनकर किसी खाली घरमें रहते हैं।’ इन्द्रने इसपर पूछा- ‘यदि मैं किसी स्थानपर बलिको पाऊँ तो उन्हें अपने वज्रसे मार डालूँ या नहीं ?’ ब्रह्माजीने कहा- ‘राजा बलि-अरे! वे कदापि मारने योग्य नहीं हैं। तुम्हें उनके पास जाकर कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।’
तदनन्तर इन्द्र दिव्य आभूषण धारणकर, ऐरावतपर चढ़कर बलिको खोजमें निकल पड़े। अन्तमें एक खाली घरमें उन्होंने एक गदहा देखा और कई लक्षणोंसे उन्होंने अनुमान किया कि ये ही राजा बलि हैं। इन्द्रने कहा-‘दानवराज! इस समय तुमने बड़ा विचित्र वेष बना रखा है। क्या तुम्हें अपनी इस दुर्दशापर कोई दुःख नहीं होता। इस समय तुम्हारे छत्र, चामर और वैजयन्ती माला कहाँ गयी ? कहाँ गया वह तुम्हारा अप्रतिहत दानका महाव्रत और कहाँ गया तुम्हारा सूर्य, वरुण, कुबेर, अग्रि और जलका रूप ?’
बलिने कहा – ‘देवेन्द्र! इस समय तुम मेरे छत्र, चामर, सिंहासनादि उपकरणोंको नहीं देख सकोगे। परफिर कभी मेरे दिन लौटेंगे और तब तुम उन्हें देख सकोगे। तुम जो इस समय अपने ऐश्वर्यके मदमें आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुम्हारी तुच्छ बुद्धिका ही परिचायक है। मालूम होता है, तुम अपने पूर्वके दिनोंको सर्वथा ही भूल गये। पर सुरेश! तुम्हें समझ लेना चाहिये, तुम्हारे वे दिन पुनः लौटेंगे। देवराज इस विश्वमें कोई वस्तु सुनिश्चित और सुस्थिर नहीं है। काल सबको नष्ट कर डालता है। इस कालके अद्भुत रहस्यको जानकर मैं किसीके लिये भी शोक नहीं करता। यह काल धनी, निर्धन, बली, निर्बल, पण्डित, मूर्ख, रूपवान्, कुरूप, भाग्यवान्, भाग्यहीन, बालक, युवा, वृद्ध, योगी, तपस्वी, धर्मात्मा, सुर और बड़े-से-बड़े अहंकारियोंमेंसे किसीको भी नहीं छोड़ता और सभीको एक समान ग्रस्त कर लेता है— सबका कलेवा कर जाता है। ऐसी दशामें महेन्द्र मैं क्यों सोचूँ? कालके ही कारण मनुष्योंको लाभ-हानि और सुख-दुःखकी प्राप्ति होती है। काल ही सबको देता और पुनः छीन भी लेता है। कालके हो प्रभावसे सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिये वासव! तुम्हारा अहंकार, मद तथा पुरुषार्थका गर्व केवल मोहमात्र हैं। ऐश्वर्योकी प्राप्ति या विनाश किसी मनुष्यके अधीन नहीं है। मनुष्यकी कभी उन्नति होती है और कभी अवनति । यह संसारका नियम है, इसमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिये। न तो सदा किसीकी उन्नति ही होती है और न सदा अवनति या पतन ही समयसे ही ऊँचा पद मिलता है और समय ही गिरा देता है। इसे तुम अच्छी तरह जानते हो कि एक दिन देवता, पितर, गन्धर्व, मनुष्य, नाग, राक्षस सब मेरे अधीन थे। अधिक क्या
‘नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनिर्वलिः –
‘जिस दिशामें राजा बलि हों, उस दिशाको भी नमस्कार’ यों कहकर मैं जिस दिशामें रहता था, उस दिशाको भी लोग नमस्कार करते थे। पर जब मुझपर भी कालका आक्रमण हुआ, मेरा भी दिन पलटा खा गया और मैं इस दशामें पहुँच गया, तब किस गरजते और तपते हुएपर कालका चक्र न फिरेगा? मैं अकेला बारह सूर्योका तेज रखता था, मैं ही पानीका आकर्षण करता और बरसाता था। मैं ही तीनों लोकोंको प्रकाशित करता और तपाता था। सब लोकोंका पालन, संहार, दान, ग्रहण, बन्धन और मोचन मैं ही करता था। मैं तीनों लोकोंका स्वामी था, किंतु कालके फेरसे इस समय मेरा वह प्रभुत्व समाप्त हो गया। विद्वानोंने कालको दुरतिक्रम और परमेश्वर कहा है। बड़े वेग से दौड़नेपर भी कोई मनुष्य कालको लाँघ नहीं सकता। उसी कालके अधीन हम तुम सब कोई हैं। इन्द्र ! तुम्हारी बुद्धि सचमुच बालकों जैसी है। शायद तुम्हें पता नहीं कि अबतक तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र हुए और नष्ट हो चुके वह राज्यलक्ष्मी, सौभाग्यश्री, जो आज तुम्हारे पास है, तुम्हारी बपौती या खरीदी हुई दासी नहीं है; वह तो तुम जैसे हजारों इन्द्रोंके पास रह चुकी है। वह इसके पूर्व मेरे पास थी। अब मुझे छोड़कर तुम्हारे पास गयी है और शीघ्र ही तुमको भी छोड़कर दूसरेके पास चली जायगी। मैं इस रहस्यको जानकर रत्तीभर भी दुःखी नहीं होता। बहुत से कुलीन धर्मात्मा गुणवान् राजा अपने योग्य मन्त्रियोंके साथ भी घोर क्लेश पाते हुए देखे जाते हैं, साथ ही इसके विपरीत में नीच कुलमें उत्पन्न मूर्ख मनुष्योंको बिना किसीकी सहायता के राजा बनते देखता हूँ। अच्छे लक्षणोंवाली परम सुन्दरी तो अभागिनी औरदुःखसागरमें डूबती दीख पड़ती है और कुलक्षणा, कुरूपा भाग्यवती देखी जाती है। मैं पूछता हूँ, इन्द्र ! इसमें भवितव्यता- काल यदि कारण नहीं है तो और बन्धु क्या है ? कालके द्वारा होनेवाले अनर्थ बुद्धि या बलसे हटाये नहीं जा सकते। विद्या, तपस्या, दान और बान्धव – कोई भी कालग्रस्त मनुष्यकी रक्षा नहीं कर सकता। आज तुम मेरे सामने वज्र उठाये खड़े हो । अभी चाहूँ तो एक घूँसा मारकर वज्रसमेत तुमको गिरा दूँ। चाहूँ तो इसी समय अनेक भयंकर रूप धारण कर लूँ, जिनको देखते ही तुम डरकर भाग खड़े हो जाओ। परंतु करूँ क्या? यह समय सह लेनेका है पराक्रम दिखलानेका नहीं। इसलिये यथेच्छ गदहेका ही रूप बनाकर मैं अध्यात्मनिरत हो रहा हूँ। शोक करनेसे दुःख मिटता नहीं, वह तो और बढ़ता है। इसीसे मैं बेखटके हूँ, बहुत निश्चिन्त इस दुरवस्था में भी।’
बलिके विशाल धैर्यको देखकर इन्द्रने उनकी बड़ी प्रशंसा की और कहा—’निस्संदेह तुम बड़े धैर्यवान् हो जो इस अवस्थामें भी मुझ वज्रधरको देखकर तनिक भी विचलित नहीं होते। निश्चय ही तुम राग-द्वेषसे शून्य और जितेन्द्रिय हो। तुम्हारी शान्तचित्तता, सर्वभूतसुहृदता तथा निर्वैरता देखकर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम महापुरुष हो । अब मेरा तुमसे कोई द्वेष नहीं रहा। तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम मेरी ओरसे बेखटके रहो और निश्चिन्त और नीरोग होकर समयकी प्रतीक्षा करो।’
यों कहकर देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर चले गये और बलि पुनः अपने स्वरूपचिन्तनमें स्थिर हो गये।
-जा0 श0 (महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म, अध्याय 223-227)
जब भगवान् विष्णुने वामनरूपसे वलिसे पृथ्वी तथा स्वर्गका राज्य छीनकर इन्द्रको दे दिया, तब कुछ ही दिनोंमें राज्यलक्ष्मीके स्वाभाविक दुर्गुण गर्वसे इन्द्र पुनः उन्मत्त हो उठे। एक दिन वे ब्रह्माजीके पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले— ‘पितामह! अब अपार दानी राजा बलिका कुछ पता नहीं लग रहा है। मैं सर्वत्र खोजता हूँ, पर उनका पता नहीं मिलता। आप कृपाकर मुझे उनका पता बताइये।’ ब्रह्माजीने कहा ‘तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं। तथापि किसीके पूछनेपर झूठा उत्तर नहीं देना चाहिये, अतएव मैं तुम्हें बलिका पता बतला देता हूँ। राजा बलि इस समय ऊँट, बैल, गधा या घोड़ा बनकर किसी खाली घरमें रहते हैं।’ इन्द्रने इसपर पूछा- ‘यदि मैं किसी स्थानपर बलिको पाऊँ तो उन्हें अपने वज्रसे मार डालूँ या नहीं ?’ ब्रह्माजीने कहा- ‘राजा बलि-अरे! वे कदापि मारने योग्य नहीं हैं। तुम्हें उनके पास जाकर कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।’
तदनन्तर इन्द्र दिव्य आभूषण धारणकर, ऐरावतपर चढ़कर बलिको खोजमें निकल पड़े। अन्तमें एक खाली घरमें उन्होंने एक गदहा देखा और कई लक्षणोंसे उन्होंने अनुमान किया कि ये ही राजा बलि हैं। इन्द्रने कहा-‘दानवराज! इस समय तुमने बड़ा विचित्र वेष बना रखा है। क्या तुम्हें अपनी इस दुर्दशापर कोई दुःख नहीं होता। इस समय तुम्हारे छत्र, चामर और वैजयन्ती माला कहाँ गयी ? कहाँ गया वह तुम्हारा अप्रतिहत दानका महाव्रत और कहाँ गया तुम्हारा सूर्य, वरुण, कुबेर, अग्रि और जलका रूप ?’
बलिने कहा – ‘देवेन्द्र! इस समय तुम मेरे छत्र, चामर, सिंहासनादि उपकरणोंको नहीं देख सकोगे। परफिर कभी मेरे दिन लौटेंगे और तब तुम उन्हें देख सकोगे। तुम जो इस समय अपने ऐश्वर्यके मदमें आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुम्हारी तुच्छ बुद्धिका ही परिचायक है। मालूम होता है, तुम अपने पूर्वके दिनोंको सर्वथा ही भूल गये। पर सुरेश! तुम्हें समझ लेना चाहिये, तुम्हारे वे दिन पुनः लौटेंगे। देवराज इस विश्वमें कोई वस्तु सुनिश्चित और सुस्थिर नहीं है। काल सबको नष्ट कर डालता है। इस कालके अद्भुत रहस्यको जानकर मैं किसीके लिये भी शोक नहीं करता। यह काल धनी, निर्धन, बली, निर्बल, पण्डित, मूर्ख, रूपवान्, कुरूप, भाग्यवान्, भाग्यहीन, बालक, युवा, वृद्ध, योगी, तपस्वी, धर्मात्मा, सुर और बड़े-से-बड़े अहंकारियोंमेंसे किसीको भी नहीं छोड़ता और सभीको एक समान ग्रस्त कर लेता है— सबका कलेवा कर जाता है। ऐसी दशामें महेन्द्र मैं क्यों सोचूँ? कालके ही कारण मनुष्योंको लाभ-हानि और सुख-दुःखकी प्राप्ति होती है। काल ही सबको देता और पुनः छीन भी लेता है। कालके हो प्रभावसे सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिये वासव! तुम्हारा अहंकार, मद तथा पुरुषार्थका गर्व केवल मोहमात्र हैं। ऐश्वर्योकी प्राप्ति या विनाश किसी मनुष्यके अधीन नहीं है। मनुष्यकी कभी उन्नति होती है और कभी अवनति । यह संसारका नियम है, इसमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिये। न तो सदा किसीकी उन्नति ही होती है और न सदा अवनति या पतन ही समयसे ही ऊँचा पद मिलता है और समय ही गिरा देता है। इसे तुम अच्छी तरह जानते हो कि एक दिन देवता, पितर, गन्धर्व, मनुष्य, नाग, राक्षस सब मेरे अधीन थे। अधिक क्या
‘नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनिर्वलिः –
‘जिस दिशामें राजा बलि हों, उस दिशाको भी नमस्कार’ यों कहकर मैं जिस दिशामें रहता था, उस दिशाको भी लोग नमस्कार करते थे। पर जब मुझपर भी कालका आक्रमण हुआ, मेरा भी दिन पलटा खा गया और मैं इस दशामें पहुँच गया, तब किस गरजते और तपते हुएपर कालका चक्र न फिरेगा? मैं अकेला बारह सूर्योका तेज रखता था, मैं ही पानीका आकर्षण करता और बरसाता था। मैं ही तीनों लोकोंको प्रकाशित करता और तपाता था। सब लोकोंका पालन, संहार, दान, ग्रहण, बन्धन और मोचन मैं ही करता था। मैं तीनों लोकोंका स्वामी था, किंतु कालके फेरसे इस समय मेरा वह प्रभुत्व समाप्त हो गया। विद्वानोंने कालको दुरतिक्रम और परमेश्वर कहा है। बड़े वेग से दौड़नेपर भी कोई मनुष्य कालको लाँघ नहीं सकता। उसी कालके अधीन हम तुम सब कोई हैं। इन्द्र ! तुम्हारी बुद्धि सचमुच बालकों जैसी है। शायद तुम्हें पता नहीं कि अबतक तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र हुए और नष्ट हो चुके वह राज्यलक्ष्मी, सौभाग्यश्री, जो आज तुम्हारे पास है, तुम्हारी बपौती या खरीदी हुई दासी नहीं है; वह तो तुम जैसे हजारों इन्द्रोंके पास रह चुकी है। वह इसके पूर्व मेरे पास थी। अब मुझे छोड़कर तुम्हारे पास गयी है और शीघ्र ही तुमको भी छोड़कर दूसरेके पास चली जायगी। मैं इस रहस्यको जानकर रत्तीभर भी दुःखी नहीं होता। बहुत से कुलीन धर्मात्मा गुणवान् राजा अपने योग्य मन्त्रियोंके साथ भी घोर क्लेश पाते हुए देखे जाते हैं, साथ ही इसके विपरीत में नीच कुलमें उत्पन्न मूर्ख मनुष्योंको बिना किसीकी सहायता के राजा बनते देखता हूँ। अच्छे लक्षणोंवाली परम सुन्दरी तो अभागिनी औरदुःखसागरमें डूबती दीख पड़ती है और कुलक्षणा, कुरूपा भाग्यवती देखी जाती है। मैं पूछता हूँ, इन्द्र ! इसमें भवितव्यता- काल यदि कारण नहीं है तो और बन्धु क्या है ? कालके द्वारा होनेवाले अनर्थ बुद्धि या बलसे हटाये नहीं जा सकते। विद्या, तपस्या, दान और बान्धव – कोई भी कालग्रस्त मनुष्यकी रक्षा नहीं कर सकता। आज तुम मेरे सामने वज्र उठाये खड़े हो । अभी चाहूँ तो एक घूँसा मारकर वज्रसमेत तुमको गिरा दूँ। चाहूँ तो इसी समय अनेक भयंकर रूप धारण कर लूँ, जिनको देखते ही तुम डरकर भाग खड़े हो जाओ। परंतु करूँ क्या? यह समय सह लेनेका है पराक्रम दिखलानेका नहीं। इसलिये यथेच्छ गदहेका ही रूप बनाकर मैं अध्यात्मनिरत हो रहा हूँ। शोक करनेसे दुःख मिटता नहीं, वह तो और बढ़ता है। इसीसे मैं बेखटके हूँ, बहुत निश्चिन्त इस दुरवस्था में भी।’
बलिके विशाल धैर्यको देखकर इन्द्रने उनकी बड़ी प्रशंसा की और कहा—’निस्संदेह तुम बड़े धैर्यवान् हो जो इस अवस्थामें भी मुझ वज्रधरको देखकर तनिक भी विचलित नहीं होते। निश्चय ही तुम राग-द्वेषसे शून्य और जितेन्द्रिय हो। तुम्हारी शान्तचित्तता, सर्वभूतसुहृदता तथा निर्वैरता देखकर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम महापुरुष हो । अब मेरा तुमसे कोई द्वेष नहीं रहा। तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम मेरी ओरसे बेखटके रहो और निश्चिन्त और नीरोग होकर समयकी प्रतीक्षा करो।’
यों कहकर देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर चले गये और बलि पुनः अपने स्वरूपचिन्तनमें स्थिर हो गये।
-जा0 श0 (महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म, अध्याय 223-227)