गर्व देवताओंका भी व्यर्थ है
पूर्वकालकी बात है, मदसे उन्मत्त दानवोंने देवताओंके साथ सौ वर्षोंतक एक अत्यन्त विस्मयकारक युद्ध किया था।
अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहार तथा अनेक प्रकारकी मायाओंके प्रयोगसे भरा उनका वह युद्ध जगत्के लिये अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस समय पराशक्ति भगवतीकी कृपासे देवताओंने युद्धमें दैत्योंको जीत लिया और वे दैत्य भूलोक तथा स्वर्ग छोड़कर पाताललोकमें चले गये। इस विजयसे अत्यन्त हर्षित देवतागण मोहके कारण अभिमानयुक्त होकर चारों ओर परस्पर अपने पराक्रमकी इस प्रकार चर्चा करने लगे-हमारी विजय क्यों न हो? क्योंकि हमारी महिमा सर्वोत्तम है। कहाँ ये अधम और पराक्रमहीन दैत्य तथा कहाँ सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले हम यशस्वी देवता! तो फिर हमारे सामने असहाय दैत्योंकी बात ही क्या ?
पराशक्तिके प्रभावको न जाननेके कारण ही वे देवता मोहित हो गये थे। तब उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये दयामयी जगदम्बा एक यक्षके रूपमें प्रकट हुईं। करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशवाले, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान अत्यन्त शीतल, करोड़ों विद्युत्के समान आभावाले और हाथ-पैर आदि अवयवोंसे यक्षके समान जान पड़नेवाले, पहले कभी न देखे गये उस परम सुन्दर तेजको देखकर देवता महान् विस्मयमें पड़ गये और कहने लगे- यह क्या है। यह क्या है। यह दैत्योंकी चेष्टा है अथवा कोई बलवती माया है? देवताओंको आश्चर्यचकित करनेवाली यह माया किसके द्वारा रची गयी है? तब उन सभी देवताओंने एकत्र होकर उत्तम विचार किया कि यक्षके समीप जाकर पूछना चाहिये कि ‘तुम कौन हो ?’ इस प्रकार उसके बलाबलकी जानकारी कर लेनेके पश्चात् ही कोई प्रतिक्रिया करनी चाहिये।
तत्पश्चात् देवराज इन्द्रने अग्निको बुलाकर उनसे कहा- ‘हे अग्निदेव ! आप जाइये। चूँकि आप ही हम लोगोंके उत्तम मुख हैं, इसलिये वहाँ जाकर इसकी जानकारी कीजिये कि यह यक्ष कौन है।” नेत्रोंवाले इन्द्रके मुखसे अपने पराक्रमके सूचक वचन सुनकर वे अग्निदेव अत्यन्त वेगपूर्वक निकल पड़े और शीघ्र ही यक्षके पास जा पहुंचे। तब यक्षने उन अग्निसे पूछा—’तुम कौन हो ? तुममें कौन-सा पराक्रम है? जो हो, वह सब मुझे बतलाओ।’
हजार उन्होंने कहा—’मैं अग्नि हूँ; मैं जातवेदा हूँ। सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर डालनेका सामर्थ्य मुझमें विद्यमान है।’ तब परम तेजस्वी यक्षने अग्निके समक्ष एक तृण रख दिया और कहा-‘यदि विश्वको भस्म करनेकी शक्ति तुममें है, तो इसे जला दो।’
तब अग्निने अपनी सम्पूर्ण शक्तिका प्रयोग करते हुए उस तृणको जलानेका प्रयास किया, किंतु वे उस तृणको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हुए और लज्जित होकर देवताओंके पास लौट गये। देवताओंके द्वारा वृत्तान्त पूछे जानेपर अग्निदेवने सब कुछ बता दिया और कहा- हे देवताओ! सर्वेश आदि बननेमें हमलोगोंका अभिमान सर्वथा व्यर्थ है। तत्पश्चात् वृत्रासुरका संहार करनेवाले इन्द्रने वायुको बुलाकर कहा-‘हे वायुदेव। सम्पूर्ण जगत् आपसे व्याप्त है और आपकी ही चेष्टाओंसे यह क्रियाशील है। आप प्राणरूप होकर सभी प्राणियोंमें सम्पूर्ण शक्तिका संचार करते हैं। आप ही जाकर यह जानकारी प्राप्त कीजिये कि यह यक्ष कौन है ? क्योंकि अन्य कोई भी उस परम तेजस्वी यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं है। गुण और गौरवसे समन्वित इन्द्रकी बात सुनकर वे वायुदेव अभिमानसे भर उठे और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये, जहाँ यक्ष विराजमान था। तब वायुको देखकर पक्षने मधुर वाणीमें कहा- तुम कौन हो ? तुममें कौन सी शक्ति है? यह सब मेरे सामने बतलाओ ।
यक्षका वचन सुनकर वायुने गर्वपूर्वक कहा-‘मैं मातरिश्वा हूँ; मैं वायु हूँ। सबको संचालित करने तथा ग्रहण करनेकी शक्ति मुझमें विद्यमान है। मेरी चेष्टासे ही सम्पूर्ण जगत् सब प्रकारके व्यवहारवाला होता है।’ वायुकी यह वाणी सुनकर परम तेजस्वी यक्षने कहा तुम्हारे सामने यह जो तृण रखा हुआ है, उसे तुम अपनी इच्छाके अनुसार गतिमान् कर दो; अन्यथा इस अभिमानका त्याग करके लज्जित हो इन्द्रके पास लौट जाओ। यक्षका वचन सुनकर वायुदेवने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उस तृणको उड़ानेका प्रयत्न किया, किंतु वह
तृण अपने स्थानसे हिलातक नहीं। तब वे पवनदेव भी लज्जित होकर अभिमानका त्याग करके इन्द्रके पास चले गये।
उन्होंने अभिमानको चूर करनेवाला सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए कहा—’मिथ्या गर्व तथा अभिमान करनेवाले हमलोग इस यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं हैं। परम प्रचण्ड तेजवाला यह यक्ष अलौकिक प्रतीत हो रहा है।’ तत्पश्चात् सभी देवताओंने सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रसे कहा ‘आप देवताओंके स्वामी हैं, अतः अब आप ही यक्षके विषयमें ठीक-ठीक जाननेका प्रयत्न कीजिये।’
तब इन्द्र अत्यन्त अभिमानपूर्वक उस यक्षके पास गये। उनके पहुँचते ही यक्षरूप परात्पर परम तेज शीघ्र ही अदृश्य हो गया। जब वह यक्ष इन्द्रके सामनेसे अन्तर्हित हो गया, तब देवराज इन्द्र अत्यन्त लज्जित हो गये और यक्षके उनसे बाततक न करनेके कारण वे मनमें अपनेको छोटा समझने लगे। वे सोचने लगे कि अब मुझे देवताओंके समाजमें नहीं जाना चाहिये; क्योंकि वहाँ समक्ष अपनी इस हीनताके विषयमें क्या बताऊँगा। अतः शरीरका त्याग कर देना ही मेरे लिये अच्छा होगा; क्योंकि मान ही महापुरुषोंका धन होता है। मानके नष्ट हो जानेपर मनुष्यका जीवित रहना मृत्युके समान है, इसमें संशय नहीं है। यह निश्चय करके देवराज इन्द्र अभिमान त्यागकर उन्हीं पराशक्तिकी शरणमें गये, जिनकी ऐसी अद्भुत लीला है। उसी क्षण गगन मण्डलमें यह आकाशवाणी हुई- ‘हे सहस्राक्ष ! तुम मायाबीजका जप करो और उससे सुखी हो जाओ।’
तब इन्द्रने नेत्र बन्द करके देवीका ध्यान करते हुए निराहार रहकर एक लाख वर्षतक अतिश्रेष्ठ मायाबीजका जप किया। एक दिन चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें नवमी तिथिको मध्याह्नकालमें उसी स्थलपर सहसा एक महान् तेज प्रकट हुआ। इन्द्रने उस तेजमण्डलके मध्यमें ‘उमा’ नामसे विख्यात जगदम्बा हैमवती भगवती शिवाको अपने समक्ष देखा। इससे इन्द्रका अन्तःकरण प्रेमसे गद्गद हो उठा। प्रेमाश्रुओंसे पूर्ण नयनवाले तथा रोमांचित शरीरवाले इन्द्रने उन जगदीश्वरीके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम किया और अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की। भक्ति भावसे सम्पन्न हो सिर झुकाकर परम प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रने देवीसे कहा- हे सुशोभने। यह यक्ष कौन था और किसलिये प्रकट हुआ था ? यह सब आप मुझे बतलाइये।
उनकी यह बात सुनकर करुणासागर भगवतीने कहा- यह मेरा ही रूप है; यही ब्रह्म है, जो मायाका अधिष्ठानस्वरूप, सबका साक्षी, निर्विकार और समस्त कारणोंका भी कारण है। ब्रह्माको सृष्टि करने, विष्णुको जगत्का पालन करने और कारणरूप रुद्रको संहार करनेके लिये मैं ही प्रेरणा प्रदान करती हूँ। वायु मेरे भयसे प्रवाहित होता है और सूर्य मेरा भय मानकर निरन्तर गति करता रहता है। उन्हींकी भाँति इन्द्र, अग्नि और यम भी मेरे भयसे अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। इसीलिये मैं सर्वश्रेष्ठ कही गयी हूँ। आप सभी देवताओंने मेरी ही कृपासे सब प्रकारकी विजय प्राप्त की है। मैं आपलोगोंको कठपुतलीके समान नचाती रहती हूँ। मैं कभी देवताओंकी विजय कराती हूँ और कभी दैत्योंकी। मैं स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छासे सभीके कर्म विपाकके अनुसार सब कुछ सम्पादित करती हूँ। अहंकारसे आवृत बुद्धिवाले तुमलोग अपने गर्वसे वैसे प्रभाववाली मुझ सर्वात्मिका भगवतीको भूलकर दुःखदायी मोहको प्राप्त हो गये थे। इसलिये तुमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये तुमलोगंकि शरीरसे मेरा दिव्य तेज निकलकर यक्षके रूपमें प्रकट हो गया था। अब तुमलोग गर्वका सब प्रकारसे त्याग करके मुझ सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवतीकी ही शरणमें आ जाओ। ऐसा कहकर मूलप्रकृतिरूपा सर्वेश्वरी महादेवी देवताओंके द्वारा भक्तिपूर्वक सुपूजित होकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं। तत्पश्चात् सभी देवता अपने अभिमानका त्याग करके भगवतीके परात्पर चरणकमलकी विधिवत् आराधना करने लगे। वे सब तीनों सन्ध्याओंमें सदा गायत्री जपमें संलग्न रहते थे और यज्ञ-याग आदिके द्वारा नित्य भगवतीकी उपासना करते थे। [ श्रीमद्देवीभागवत ]
गर्व देवताओंका भी व्यर्थ है
पूर्वकालकी बात है, मदसे उन्मत्त दानवोंने देवताओंके साथ सौ वर्षोंतक एक अत्यन्त विस्मयकारक युद्ध किया था।
अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहार तथा अनेक प्रकारकी मायाओंके प्रयोगसे भरा उनका वह युद्ध जगत्के लिये अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस समय पराशक्ति भगवतीकी कृपासे देवताओंने युद्धमें दैत्योंको जीत लिया और वे दैत्य भूलोक तथा स्वर्ग छोड़कर पाताललोकमें चले गये। इस विजयसे अत्यन्त हर्षित देवतागण मोहके कारण अभिमानयुक्त होकर चारों ओर परस्पर अपने पराक्रमकी इस प्रकार चर्चा करने लगे-हमारी विजय क्यों न हो? क्योंकि हमारी महिमा सर्वोत्तम है। कहाँ ये अधम और पराक्रमहीन दैत्य तथा कहाँ सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले हम यशस्वी देवता! तो फिर हमारे सामने असहाय दैत्योंकी बात ही क्या ?
पराशक्तिके प्रभावको न जाननेके कारण ही वे देवता मोहित हो गये थे। तब उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये दयामयी जगदम्बा एक यक्षके रूपमें प्रकट हुईं। करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशवाले, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान अत्यन्त शीतल, करोड़ों विद्युत्के समान आभावाले और हाथ-पैर आदि अवयवोंसे यक्षके समान जान पड़नेवाले, पहले कभी न देखे गये उस परम सुन्दर तेजको देखकर देवता महान् विस्मयमें पड़ गये और कहने लगे- यह क्या है। यह क्या है। यह दैत्योंकी चेष्टा है अथवा कोई बलवती माया है? देवताओंको आश्चर्यचकित करनेवाली यह माया किसके द्वारा रची गयी है? तब उन सभी देवताओंने एकत्र होकर उत्तम विचार किया कि यक्षके समीप जाकर पूछना चाहिये कि ‘तुम कौन हो ?’ इस प्रकार उसके बलाबलकी जानकारी कर लेनेके पश्चात् ही कोई प्रतिक्रिया करनी चाहिये।
तत्पश्चात् देवराज इन्द्रने अग्निको बुलाकर उनसे कहा- ‘हे अग्निदेव ! आप जाइये। चूँकि आप ही हम लोगोंके उत्तम मुख हैं, इसलिये वहाँ जाकर इसकी जानकारी कीजिये कि यह यक्ष कौन है।” नेत्रोंवाले इन्द्रके मुखसे अपने पराक्रमके सूचक वचन सुनकर वे अग्निदेव अत्यन्त वेगपूर्वक निकल पड़े और शीघ्र ही यक्षके पास जा पहुंचे। तब यक्षने उन अग्निसे पूछा—’तुम कौन हो ? तुममें कौन-सा पराक्रम है? जो हो, वह सब मुझे बतलाओ।’
हजार उन्होंने कहा—’मैं अग्नि हूँ; मैं जातवेदा हूँ। सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर डालनेका सामर्थ्य मुझमें विद्यमान है।’ तब परम तेजस्वी यक्षने अग्निके समक्ष एक तृण रख दिया और कहा-‘यदि विश्वको भस्म करनेकी शक्ति तुममें है, तो इसे जला दो।’
तब अग्निने अपनी सम्पूर्ण शक्तिका प्रयोग करते हुए उस तृणको जलानेका प्रयास किया, किंतु वे उस तृणको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हुए और लज्जित होकर देवताओंके पास लौट गये। देवताओंके द्वारा वृत्तान्त पूछे जानेपर अग्निदेवने सब कुछ बता दिया और कहा- हे देवताओ! सर्वेश आदि बननेमें हमलोगोंका अभिमान सर्वथा व्यर्थ है। तत्पश्चात् वृत्रासुरका संहार करनेवाले इन्द्रने वायुको बुलाकर कहा-‘हे वायुदेव। सम्पूर्ण जगत् आपसे व्याप्त है और आपकी ही चेष्टाओंसे यह क्रियाशील है। आप प्राणरूप होकर सभी प्राणियोंमें सम्पूर्ण शक्तिका संचार करते हैं। आप ही जाकर यह जानकारी प्राप्त कीजिये कि यह यक्ष कौन है ? क्योंकि अन्य कोई भी उस परम तेजस्वी यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं है। गुण और गौरवसे समन्वित इन्द्रकी बात सुनकर वे वायुदेव अभिमानसे भर उठे और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये, जहाँ यक्ष विराजमान था। तब वायुको देखकर पक्षने मधुर वाणीमें कहा- तुम कौन हो ? तुममें कौन सी शक्ति है? यह सब मेरे सामने बतलाओ ।
यक्षका वचन सुनकर वायुने गर्वपूर्वक कहा-‘मैं मातरिश्वा हूँ; मैं वायु हूँ। सबको संचालित करने तथा ग्रहण करनेकी शक्ति मुझमें विद्यमान है। मेरी चेष्टासे ही सम्पूर्ण जगत् सब प्रकारके व्यवहारवाला होता है।’ वायुकी यह वाणी सुनकर परम तेजस्वी यक्षने कहा तुम्हारे सामने यह जो तृण रखा हुआ है, उसे तुम अपनी इच्छाके अनुसार गतिमान् कर दो; अन्यथा इस अभिमानका त्याग करके लज्जित हो इन्द्रके पास लौट जाओ। यक्षका वचन सुनकर वायुदेवने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उस तृणको उड़ानेका प्रयत्न किया, किंतु वह
तृण अपने स्थानसे हिलातक नहीं। तब वे पवनदेव भी लज्जित होकर अभिमानका त्याग करके इन्द्रके पास चले गये।
उन्होंने अभिमानको चूर करनेवाला सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए कहा—’मिथ्या गर्व तथा अभिमान करनेवाले हमलोग इस यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं हैं। परम प्रचण्ड तेजवाला यह यक्ष अलौकिक प्रतीत हो रहा है।’ तत्पश्चात् सभी देवताओंने सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रसे कहा ‘आप देवताओंके स्वामी हैं, अतः अब आप ही यक्षके विषयमें ठीक-ठीक जाननेका प्रयत्न कीजिये।’
तब इन्द्र अत्यन्त अभिमानपूर्वक उस यक्षके पास गये। उनके पहुँचते ही यक्षरूप परात्पर परम तेज शीघ्र ही अदृश्य हो गया। जब वह यक्ष इन्द्रके सामनेसे अन्तर्हित हो गया, तब देवराज इन्द्र अत्यन्त लज्जित हो गये और यक्षके उनसे बाततक न करनेके कारण वे मनमें अपनेको छोटा समझने लगे। वे सोचने लगे कि अब मुझे देवताओंके समाजमें नहीं जाना चाहिये; क्योंकि वहाँ समक्ष अपनी इस हीनताके विषयमें क्या बताऊँगा। अतः शरीरका त्याग कर देना ही मेरे लिये अच्छा होगा; क्योंकि मान ही महापुरुषोंका धन होता है। मानके नष्ट हो जानेपर मनुष्यका जीवित रहना मृत्युके समान है, इसमें संशय नहीं है। यह निश्चय करके देवराज इन्द्र अभिमान त्यागकर उन्हीं पराशक्तिकी शरणमें गये, जिनकी ऐसी अद्भुत लीला है। उसी क्षण गगन मण्डलमें यह आकाशवाणी हुई- ‘हे सहस्राक्ष ! तुम मायाबीजका जप करो और उससे सुखी हो जाओ।’
तब इन्द्रने नेत्र बन्द करके देवीका ध्यान करते हुए निराहार रहकर एक लाख वर्षतक अतिश्रेष्ठ मायाबीजका जप किया। एक दिन चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें नवमी तिथिको मध्याह्नकालमें उसी स्थलपर सहसा एक महान् तेज प्रकट हुआ। इन्द्रने उस तेजमण्डलके मध्यमें ‘उमा’ नामसे विख्यात जगदम्बा हैमवती भगवती शिवाको अपने समक्ष देखा। इससे इन्द्रका अन्तःकरण प्रेमसे गद्गद हो उठा। प्रेमाश्रुओंसे पूर्ण नयनवाले तथा रोमांचित शरीरवाले इन्द्रने उन जगदीश्वरीके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम किया और अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की। भक्ति भावसे सम्पन्न हो सिर झुकाकर परम प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रने देवीसे कहा- हे सुशोभने। यह यक्ष कौन था और किसलिये प्रकट हुआ था ? यह सब आप मुझे बतलाइये।
उनकी यह बात सुनकर करुणासागर भगवतीने कहा- यह मेरा ही रूप है; यही ब्रह्म है, जो मायाका अधिष्ठानस्वरूप, सबका साक्षी, निर्विकार और समस्त कारणोंका भी कारण है। ब्रह्माको सृष्टि करने, विष्णुको जगत्का पालन करने और कारणरूप रुद्रको संहार करनेके लिये मैं ही प्रेरणा प्रदान करती हूँ। वायु मेरे भयसे प्रवाहित होता है और सूर्य मेरा भय मानकर निरन्तर गति करता रहता है। उन्हींकी भाँति इन्द्र, अग्नि और यम भी मेरे भयसे अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। इसीलिये मैं सर्वश्रेष्ठ कही गयी हूँ। आप सभी देवताओंने मेरी ही कृपासे सब प्रकारकी विजय प्राप्त की है। मैं आपलोगोंको कठपुतलीके समान नचाती रहती हूँ। मैं कभी देवताओंकी विजय कराती हूँ और कभी दैत्योंकी। मैं स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छासे सभीके कर्म विपाकके अनुसार सब कुछ सम्पादित करती हूँ। अहंकारसे आवृत बुद्धिवाले तुमलोग अपने गर्वसे वैसे प्रभाववाली मुझ सर्वात्मिका भगवतीको भूलकर दुःखदायी मोहको प्राप्त हो गये थे। इसलिये तुमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये तुमलोगंकि शरीरसे मेरा दिव्य तेज निकलकर यक्षके रूपमें प्रकट हो गया था। अब तुमलोग गर्वका सब प्रकारसे त्याग करके मुझ सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवतीकी ही शरणमें आ जाओ। ऐसा कहकर मूलप्रकृतिरूपा सर्वेश्वरी महादेवी देवताओंके द्वारा भक्तिपूर्वक सुपूजित होकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं। तत्पश्चात् सभी देवता अपने अभिमानका त्याग करके भगवतीके परात्पर चरणकमलकी विधिवत् आराधना करने लगे। वे सब तीनों सन्ध्याओंमें सदा गायत्री जपमें संलग्न रहते थे और यज्ञ-याग आदिके द्वारा नित्य भगवतीकी उपासना करते थे। [ श्रीमद्देवीभागवत ]