जय गौर हरि
होरी आई होरी आई होरी आई रसिया।
होरी रे होरी रे रंग होरी रे।
हाथ पिचकारी अरु संग कछू ग्वाल-बाल,
आये नंद लाल देखि, पौरि में को भजि गई।
चोरी-चोरा चुपके चले ही आये भीतर कों,
देखत सरूप रूप माधुरी में पगि गई।
चाहत ठगन ही रसीले मन मोहन कों,
ठगिया के हाथनि सौं आजु खुद ठगि गई।
लाल रंग डारौ मेरे ऊपर ते नीचेलों ओ,
दैया बा कन्हैया तोऊ स्याम रंग रँगि गई।