नम: श्री गुरु चरणकमलेभ्यो नमः!
ॐ श्री काशी विश्वनाथ विजयते सर्वविपदविमोक्षणम्
नेह चात्यन्त संवास: कर्हिचित् केनचित् सह ।
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: ॥
अर्थ:- हे राजन् ! इस जगत में कभी भी, किसी का किसी से चिरंतन संबंध नहीं होता । अपना खुद के देह तक से नहीं, तो पत्नी और पुत्र की बात तो दूर ही है ।
देने वाला देत है भेजत है दिन रैन ।
लोग भरम मो पे करत या ते नीचे नैन ॥
अर्थ:— अभिमान अपने को प्रिय लगता है , जबकि विनय सब को प्रिय लगता है। विनयी व्यक्ति का अपमान हो ही नहीं सकता , क्योंकि वह ” सम्मान ” से भी निर्लिप्त है । अब वह व्यक्ति न रहकर समाज हो जाता है । उसकी व्यक्तिगत चेतना से सर्वगत चेतना से जुड़कर ‘लोकचेतना’ बन जाती है।
भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम ।
जब से नफरत हमने की तो बेकरार आने को है ॥
अर्थ:— आप अध्यात्म मार्ग की ओर मुड़ जाये हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि आपका मार्गदर्शन वे करें । *“सब ते सेवक धर्म कठोरा”*
मङ्गल हो आप सभी अध्यात्म मार्ग के पथिकों का महादेव
ॐ मङ्गल प्रभात