जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की यह चौपाई है। जिसके पास जैसा भाव है, उसके लिए भगवान भी वैसे ही हैं। वे अन्तर्यामी मनुष्य के हृदय के भावों को जानते हैं।
जो मनुष्य सहज रूप में अपना तन, मन, धन और बुद्धि अर्थात् सर्वस्व प्रभु पर न्योछावर कर देता है, भगवान भी उसे उसी रूप में दर्शन देकर भावविभोर कर देते हैं।
राजा जनक ने जब सीताजी के स्वयंवर के लिए धनुष-यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें विभिन्न देशों के अनेक राजा व ऋषि-मुनि वहां आए। ऋषि विश्वामित्र जब श्रीराम-लक्ष्मण को लेकर स्वयंवर के मण्डप में आए तो जिसके मन में जैसा भाव था, भाव के अनुसार एक-एक को श्रीराम का दर्शन हुआ।
ईश्वर श्रीराम एक ही हैं; परंतु स्वयंवर में आए हुए लोगों को भाव के अनुसार उनके अलग-अलग दर्शन हुए। राजा जनक ने विश्वामित्र ऋषि से पूछा- ‘महाराज ! ये ऋषिकुमार हैं या राजकुमार।’
विश्वामित्र जी ने कहा- ‘तुमको क्या लगता है, तुम्हीं परीक्षा करो ये कौन हैं ?’
राजा जनक विदेही हैं अर्थात् देह में रहते हुए भी जीवन्मुक्त हैं। उन्होंने श्रीराम- लक्ष्मण को चरण से लेकर मुखारविंद तक एकटक निहारा। उनको विश्वास हो गया कि श्रीराम कोई ऋषिकुमार नहीं हैं, न ही राजकुमार हैं, ये कोई मानव भी नहीं हैं, कोई देवता भी नहीं है; ये तो परब्रह्म परमात्मा हैं।
राजा जनक ने मन में कहा- ‘मेरे मन और आंखों का आकर्षण तो परमात्मा ही कर सकते हैं। श्रीराम यदि परमात्मा नहीं होते तो वे मेरे मन को अपनी ओर खींच नहीं सकते थे।’
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय वेष धरि की सोइ आवा।।
सहज बिराग रूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
(श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड)
वेद ‘नेति- नेति’ कह कर जिनका वर्णन करते हैं, भगवान शंकर जिस स्वरूप का सदैव ध्यान करते हैं, वे परब्रह्म ये ही हैं। आज तक मैं निराकार ब्रह्म का ध्यान करता था। वह निराकार ब्रह्म ही नराकार श्रीराम हैं। राजा जनक ने परमात्मा को पहचान लिया; परंतु श्रीराम को प्रकट होना अच्छा नहीं लगता। उन्होंने गुरुदेव को आंख से इशारा किया कि मेरा रहस्य प्रकट मत करिए।
विश्वामित्रजी ने श्रीराम के वास्तविक स्वरूप को छिपाते हुए राजा जनक से कहा- ‘राजन् ! तुम ब्रह्मदृष्टि रखते हो, इसी से तुम्हें श्रीराम परमात्मा लगते हैं; परन्तु ऐसा नहीं है। ये तो अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं।’
जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
देखहिं रूप महा रनधीरा।
मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी।
मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
रहे असुर छल छोनिप बेषा।
तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई।
नरभूषन लोचन सुखदाई।।
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा।
बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिं कैसें।
सजन सगे प्रिय लागहिं जैसे।।
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी।
सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा।
सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता।
इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया।
सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ।
कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ।
तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।
(श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड- २४१ – २४२)
श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की इन चौपाइयों में गोस्वामी तुलसीदासजी ने राजा जनक के धनुष- यज्ञ में उपस्थित लोगों को प्रभु श्रीराम का किन-किन रूपों में दर्शन हुआ, इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है। जैसे-
बड़े- बड़े राजा लोग श्रीरामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। जिन राजाओं के हृदय में कुटिलता थी, वे प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो। छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु श्रीराम को प्रत्यक्ष काल के समान देखा।
नगर निवासियों को दोनों भाई श्रीराम- लक्ष्मण मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाले लगे। जनकपुर की स्त्रियों का हृदय श्रीराम को देखकर अत्यंत प्रफुल्लित हो गया; मानो श्रृंगार रस (कामदेव) ही परम मनोहर मूर्ति धारण कर सुशोभित हो रहा हो।
विद्वानों को प्रभु श्रीराम विराट रूप में सहस्त्रशीर्षा, सहस्त्राक्ष, सहस्त्रपात अर्थात् बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर वाले दिखाई दिए। राजा जनक के कुटुम्बीजनों को प्रभु श्रीराम सगे- संबंधी जैसे प्रिय लगे। राजा जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान प्रेम से देख रही हैं, उनके प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता।
योगियों को श्रीराम शांत, शुद्ध, और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे। श्रीराम का दर्शन करने पर उनको ऐसा लगा कि प्रात:काल में हम जिस परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते हैं, वे नारायण ही श्रीराम हैं। भगवान के भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा।
सीता जी के हृदय के भावों का तो कहना ही क्या ? उसका वर्णन करने में तो कवि भी समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्र जी को वैसा ही देखा।
यही बात श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में देखने को मिलती है। कंस की रंगशाला में जाने पर श्रीकृष्ण के शरीर का जो वर्णन हुआ है, वह श्रीकृष्ण के शरीर की पूर्णता का द्योतक है।
श्रीकृष्ण पहलवानों को वज्र के समान दिख रहे थे और स्त्रियों को कामदेव के समान। बड़े- बड़े लोग उन्हें श्रेष्ठ पुरुष की भांति देख रहे थे और माता- पिता की दृष्टि में वे नन्हें से शिशु मालूम पड़ रहे थे।
ग्वालों की दृष्टि में वे अपने आत्मीय थे और दुष्टों की दृष्टि में दण्ड देने वाले शासक। कंस उन्हें मृत्यु के रूप में देख रहा था और योगी लोग उन्हें परम तत्व के रूप में देख रहे थे। अज्ञानी लोग उनके विराट शरीर को देखकर भयभीत हो रहे थे और प्रेमी- भक्त अपने प्रभु के रूप में देखकर कृतार्थ हो रहे थे।
इस प्रकार सब लोग अपने- अपने भावानुसार श्रीकृष्ण का दर्शन विभिन्न रूप (रौद्र, अद्भुत, श्रृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, वीभत्स, शान्त, प्रेममय) में कर रहे थे। किसी संत ने सही कहा है-
जो भी मुझमें भाव रख कर, आते हैं मेरी शरण।
मेरे और उसके हृदय का, एक रहता तार है।।
ईश्वर हृदय के भावों में ही रहते हैं, कहीं जाते नहीं हैं और कहीं से आते भी नहीं है।
।। श्रीराम परमात्मने नमः ।।
Feeling like I saw three idols of God.
This is the chapter of the children’s scandal of Shri Ramcharitmanas. For one who has the same feelings, God is also like that. He knows the feelings of the inner man’s heart.
The person who easily sacrifices his body, mind, wealth and intellect, that is, everything on the Lord, God also makes him emotional by giving darshan in the same form.
When King Janak organized a Dhanush-yajna for Sitaji’s Swayamvara, many kings and sages from different countries came there. When Rishi Vishwamitra came to the mandap of Swayamvara with Shriram-Laxman, each one had darshan of Shriram according to the sentiments in his mind.
Ishwar Shri Ram is only one; But the people who came to the Swayamvar had different darshans according to their feelings. King Janak asked sage Vishwamitra – ‘ Maharaj! Is this Rishikumar or Rajkumar?
Vishwamitra ji said- ‘What do you think, test yourself who is this?’
King Janak is videhi, that is, he is free from life even while living in the body. He gazed at Shriram-Laxman from Charan to Mukharvind. He was convinced that Shri Ram is neither a sage nor a prince, he is neither a human nor a god; This is Parabrahma Paramatma.
King Janak said in his mind- ‘Only God can attract my mind and eyes. If Shri Ram was not the Supreme Soul, he could not have attracted my mind towards himself.’
Brahma who leads the corporation somewhere. Soi Awa of Ubhay Vesh Dhari.
Sahaj Birag Roop Manu Mora. Jimmy Chand Chakora gets tired. (Shri Ramcharitmanas, Balkand)
The one whom the Vedas describe by saying ‘Neti-Neti’, the form on which Lord Shankar always meditates, that Parabrahma is the same. Till today I used to meditate on the formless Brahman. That formless Brahma is the formless Shri Ram. King Janak recognized God; But Shriram does not like to appear. He indicated to Gurudev with his eyes that don’t reveal my secret.
Vishwamitraji hiding the real form of Shri Ram said to King Janak – ‘ Rajan! You have a vision of Brahma, that’s why you consider Shriram as God; But it is not so. He is the son of King Dasaratha of Ayodhya.
Those who have feelings like I saw three idols of God.
Dekhahin rup maha randhira. Manahun bir rasu dharen sarira।।
Afraid of the crooked Nrip Prabhuhi Nihari. Manhun terrible idol heavy.
remained the demon Chhonip Besha. They saw the Lord appearing in time.
Purbasinh see two brothers. Narbhushan Lochan Sukhdai.
Naari Bilokahin Harshi Hiyan according to their own interest. Janu Sohat Singer Dhari Murti Param Anoop.
Bidushanh Prabhu Biratmaya Disa. multi-faced doing feet eyes lead.
Janak caste avlokahi kaise kaise. Like relatives and dear people.
with the queen of Bideha Bilokahin. Sisu sam preeti na jati bakhaani।।
Joginh supremely elemental language. Sant Suddh Sam Sahaj Prakasa.
Two brothers see Hari Bhagat. God is the giver of all happiness.
Ramahi chitav bhayan jehi siya. So sanehu sukhu nahin kathniya.
Can’t say ur experience. How many types to say, when to whom.
This is the way to stay as brother. Tehin tas dekheu kosalarau।। (Sri Ramacharitmanas, Balkanda- 241 – 242)
Goswami Tulsidasji has given a very beautiful description of the different forms in which Lord Shri Ram was seen by the people present in King Janak’s Dhanush-yajna in these verses of the Balakand of Shri Ramcharitmanas. As-
Big kings are looking at Shriramchandraji’s form as if he himself is wearing a heroic body. The kings who had crookedness in their heart were scared to see the Lord, as if there was a very terrible idol. The demons who were sitting there in the guise of kings by deceit saw Lord Shriram as a real time.
To the residents of the city, both the brothers Shri Ram and Lakshman appeared to be the beauty of humans and pleasing to the eyes. The hearts of the women of Janakpur became very happy after seeing Shriram; It is as if Shringar Ras (Kamadev) himself is being adorned by wearing the most beautiful idol.
The scholars saw Lord Shri Ram in the vast form of Sahastrashirsha, Sahastraksha, Sahastrapat i.e. having many mouths, hands, legs, eyes and heads. King Janak’s family members liked Lord Shriram like a relative. The queens including King Janak are looking at him with love like their own child, their love cannot be described.
Yogis saw Shriram as calm, pure, and self-luminous as the supreme element. On seeing Shriram, he felt that the Supreme God whom we meditate upon in the morning, that Narayan is Shriram. The devotees of the Lord saw both the brothers as the bestower of all happiness.
What to say about the feelings of Sita ji’s heart? Even poets are not able to describe it. In this way, whoever had the feeling, he saw Kosaladhish Shriramchandra ji in the same way.
The same thing is seen in the tenth canto of Shrimad Bhagwat. The description of Shri Krishna’s body when he went to Kansa’s theater is indicative of the perfection of Shri Krishna’s body.
Shri Krishna looked like a thunderbolt to the wrestlers and like Cupid to the women. Big people were looking at him like a great man and in the eyes of his parents he was looking like a small child.
In the eyes of the cowherds, he was his soulmate and in the eyes of the wicked, he was a punishing ruler. Kansa was seeing him as death and the yogis were seeing him as the ultimate element. Ignorant people were getting scared seeing his huge body and lovers and devotees were grateful seeing him as their Lord.
In this way, according to their respective feelings, everyone was seeing Shri Krishna in different forms (Raudra, wonderful, makeup, comic, heroic, loving, terrible, vile, peaceful, loving). A saint has rightly said-
Whoever has faith in me, comes to my refuge. There is a living thread between me and his heart.
God lives in the feelings of the heart, does not go anywhere and does not come from anywhere.
।। Ome Sri Rama Paramatmane.