राम- वन- गमन और भरत से धिक्कार खाई पाश्चाताप की आग में जलती कैकयी ने अपने को भवन के कक्ष में बंद करते हुए यह कह दिया कि-“राम के अयोध्या लौट आने पर मेरा कक्ष खुलेगा।इसबीच अगर मेरे कक्ष-द्वार की कुंडी किसी ने खुलवाने की चेष्टा की तो मैं अपना प्राण-त्याग दूंगी।
आज भरत का राम को लौटा लाने के लिए वन प्रस्थान करने की घड़ी आ गयी है।दोनों माता,गुरु,मित्र, राज-परिवार से लेकर समस्त अयोध्यावासी जो राम वियोग में तड़प रहे थे,भरत के साथ राम को लौटा लाने वन जाने को उत्साहित हैं।
पर समस्त लोग चिंतित हैं कि आज वन-गमन की सूचना माता कैकयी को कौन देगा और कैसे?उन्हें इस दशा में राजभवन में अकेली कैसे छोडा जाए ? पर उनका लिया प्रण उनके द्वार तक किसी को पहुंचने नही दे रहा है।सभी विवश रोते हुए एक-दूसरे का मुंह ताक रहे हैं।
तभी कौशिल्या ने कहा-“मैं जाऊंगी कैकयी का द्वार खुलवाने।”
कौशिल्या के चरण कैकेयी के भवन की ओर बढे।सभी आशंकित थे।ईश्वर जाने क्या होगा?
राम की महतारी -रा म की म ह ता री…यह शव्द कैकेयी के हृदय के तपते रेत पर शीतल जल सा पड़ा।
राम ,राम की महतारी मैं,राम की महतारी-मेरा पुत्र राम,मैं हूँ राम की महतारी,कितना मधुर,कितना प्रिय है मेरा जननी बनना ,राम की महतारी,यह प्रिय,मधुर शव्द कहाँ से आया,किधर से आया,इतने दिन क्यों लग गए इस सच को सुनने में -मैं राम की महतारी…
कौशिल्या ने द्वार पर हल्की थाप देते हुए यही तो कहा-“राम की महतारी, द्वार खोलो।”
कैकेयी ने “द्वार खोलो” शव्द कहाँ सुना?वह तो अपने लिए राम की महतारी शव्द से आंसुओं से सराबोर भींगी धड़ाम से द्वार खोल सामने खड़ी कौशिल्या के चरणों में गिर पड़ीं।
“उठो कैकेयी!तुम्हारे पुत्र राम से भेंट करने हम चलेंगे।”
सभी अयोध्यावासी नि:शव्द आंसू बहा रहे थे।कौशिल्या ने कैकेयी को अपने चरणों से उठा हृदय से लगा लिया।
कैकेयी ने ,कौशिल्या की उंगली पकड़ उनके पीछे-पीछे चल दिया।
कैकेयी के कान में मधुर संगीत से बज रहे थे-
“राम की महतारी” “मैं हूँ राम की महतारी।”