अकेली द्वारिका है जो मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में भी है और धामों में भी है। धाम चार हैं, ये भारतवर्ष की चारों दिशाओं में हैं। पूर्व में श्रीजगन्नाथ धाम, दक्षिण में श्रीरामेश्वरम, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में श्रीबद्रीनाथ। मोक्षदायिनी सात पुरियाँ है- 1. अयोध्या, 2. मथुरा, 3. मायापुरी (हरिद्वार), 4. अवन्तिका (उज्जैन), 5. काशी (वाराणसी), 6. काञ्ची, 7. द्वारिका।
‘कुशस्वलीं दिवि भुवि संस्तुताम्
एक कथा है महाराज शर्याति ने गर्व में आकर अपने पुत्रों के सम्मुख एक दिन कहा- ‘यह सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी है। मैंने अपने बल से इसका उपार्जन और पालन किया है।’ शर्याति के शेष समस्त पुत्रों ने मौन रहकर पिताजी की बात स्वीकार कर ली किन्तु राजकुमार आनर्त ने कहा- ‘पिताजी पृथ्वी-भू देवी तो श्रीहरि की नित्या प्रिया है। वही प्रभु सबके पालन-धारक है। आप, हम सब तो भूमि-पुत्र है। श्रीहरि के आश्रित है।’
शर्याति को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा- ‘तू दुर्बुद्धि है। तू मेरे राज्य पर्यन्त से पृथ्वी का त्याग कर दे। मैंने तुझे निर्वासित कर दिया। अब तू अपने रहने के लिए श्रीहरि से पृथ्वी प्राप्त कर।’ यद्धपि शर्याति चक्रवर्ती राजा थे लेकिन राजकुमार आनर्त परम भागवत, महामनस्वी थे। उन्होंने कहा- ‘मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। समुद्र पर आपका शासन नहीं है। अतः जहाँ तक समुद्र का जल धरा पर आता है, मैं उतने स्थल में रहकर अपने प्रभु से अपने लिए धरा की प्रार्थना करूँगा।’
आनर्त पश्चिम समुद्र-तट पर आ गये और सागर-तट पर खड़े होकर तपस्या करने लगे। समुद्र ज्वार के समय अपनी लहरियों से उनके चरण धोता और भाटे के समय उनके पैरों के समीप अपने मोटी बिखेरकर पीछे हट जाता। निर्जल व्रत, निष्कम्प आनर्त तप कर रहे थे। वर्षों अविचल खड़े रहे वे। ‘वत्स!’ ध्यानस्थ आनर्त का रोम-रोम आनन्द मग्न हो गया जब यह अमृत ध्वनि श्रवण में पड़ी। नेत्र खोला उन्होंने, सम्मुख गरुड़ासन, वनमाली, चतुर्भुज भगवान नारायण मन्द-मन्द मुस्कराते खड़े कह रहे थे- ‘पुत्र यह दिव्य धरा अब तुम्हारी है।’ ‘प्रभु! ये मेरी माता’ आनर्त ने समुद्र में सम्मुख सौ योजन विस्तीर्ण प्रकट दिव्य भूमि को साष्टांग प्रणिपात किया।
‘यह मेरे नित्यधाम बैकुण्ठ का भाग है। तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए मैंने इसे समुद्र पर स्थापित किया है’-भगवान नारायण ने कहा- ‘अब यह प्रदेश तुम्हारे नाम से प्रख्यात होगा।’ ‘यहाँ कोई पर्वत नहीं है।’
आनर्त के पुत्र रेवत को यह बात अखरने लगी। पर्वत न हो तो राज्य की शोभा क्या। पाषाण, वनधातुएँ, काष्ठ, औषधियाँ, तो पर्वत से मिलती हैं। परम पराक्रमी रेवत श्रीशैल के पुत्र श्रीशैल समुद्भद एक पर्वत को उखाड़ लाये और उस धरा पर स्थापित किया। उनके द्वारा लाये जाने के कारण उसका नाम ‘रैवतक-गिरि’ पड़ा। इन्हीं महाराज रेवत के पुत्र ककुद्मी की पुत्री रेवतीजी हैं।
वह बैकुण्ठ का भाग-दिव्यभूमि, श्रीहरि का नित्यधाम द्वारावती। श्रीकृष्णचन्द्र के आदेश से समुद्र ने वहाँ कुछ और भूमि छोड़ दी। विश्वकर्मा ने द्वादश योजन सहस्रपुरी बनायी, किन्तु नगर का भाग बारह योजन लम्बा, आठ योजन चौड़ा था। नगर के दो सिरे समुद्र के समीप थे और दोनों पार्श्वों में दो-दो योजन चौड़े उद्यान, क्रीड़ा-स्थान रखे गये थे। द्वारिका का समीपस्थ प्रदेश उपवनीय भाग नगर से दुगुना था। नगर से आठ महामार्ग थे। सोलह बड़े चौराहे थे। सात महा-राजमार्ग थे। इसके चारों ओर चार पर्वत थे और वे तथा नगर का वाह्योपवन वनों से घिरा था।
द्वारिकापुरी में चारों ओर चार महाद्वार रखे गये। जल, अग्नि, इन्द्र तथा पार्थिव ये इन द्वारों के नाम थे। इनके बहिर्द्वार तोरणपर शुद्धाक्ष, ऐन्द्र, भल्लाट एवं पुष्पदन्त की मूर्तियाँ निर्मित हुई। ये द्वार-देवता हुए। भागवान वासुदेव- श्रीद्वारिकाधीश का भवन जो वस्तुतः भवनों का समूह था। चार योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा था।
महारानियों के पृथक-पृथक भवनों की पंक्तियाँ थीं इसके भीतर। द्वारिका के भवन अनेक रंगों के थे। श्रीकृष्णचन्द्र के भवनों में पीछे जो पटरानियों को दिये गये श्रीरुक्मिणीजी का भवन स्वर्ण वर्ण, सत्यभामाजी का चन्द्रश्वेत, मित्रविन्दा का वैदूर्यमणिका। इस प्रकार कोई पद्मराग वर्ण, कोई नील वर्ण, कोई स्फटिक का था।सभी भवनों के साथ उपासना-गृह, पुष्पोद्यान, सरोवर, कृत्रिम क्रीड़ा पर्वत आदि थे। प्रत्येक भवन ही अपने आप में पूर्ण था और प्रजा के भवन भी इन सब सुविधाओं से युक्त थे।
द्वारिकापुरी समुद्र के मध्य में थी। समुद्र के संकीर्ण भाग पर रथों, गजों के गमन के लिए सेतु बनाया गया था। यह ऐसा सेतु था जो चाहे जब उठा लिया जा सकता था। इस प्रकार किसी भी आक्रमणकारी के लिये द्वारिका अत्यन्त दुर्गम दुर्ग था। विश्वकर्मा ने पुरी की स्वच्छता की अदभुत व्यवस्था की थी। उनक अदृश्य रहने वाले सेवक पुरी को रात्रि में स्वच्छ कर देते थे। वे वनों, उपवनों तथा जलाशयों को स्वच्छ रखते थे। सिञ्चन एवं संरक्षण भी वही करते थे। यादव नगर रक्षक एवं दुर्गपाल तो थे ही किन्तु विश्वकर्मा के सेवक भी अदृश्य रहकर पुरी का रक्षण करते थे।
महाराज उग्रसेन यादव सिंहासनाधीश थे। अनाधृष्ट महासेनापति, विकद्रु प्रधानमंत्री बनाये गये। उद्धव, कडक, विपृथु, श्वफल्क, अक्रूर, चित्रक, गद, सत्यक, पृथु और बलरामजी विविध विभागों के मंत्री संचालक हुए। सात्यकि प्रधान योद्धा तथा दारुक रथसेना के सारथियों के नायक नियुक्त हुए। कृतवर्मा उपसेनापति बनाये गये। द्वारिका में ब्राह्मणों, साधुओं और भगवद्भक्त आराधकों का सर्वत्र अबाध प्रवेश था। श्रीकृष्णचंद्र के अपने अन्तःपुर में जाने में इनको द्वारपाल से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी। केवल विशेष समय में विशेष अवसरों पर ही द्वारपाल से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी। केवल विशेष समय में विशेष अवसरों पर ही द्वारपाल विनम्रतापूर्वक कारण सूचित करते हुए भीतर न जाने की प्रार्थना कर सकते थे।
द्वारिका में अन्न, वस्त्र, जल, फल, गन्ध, पुष्प आदि सब आवश्यक सामग्री- सब प्रसाधन, आभरण कैसे उपलब्ध होते थे, इस ओर किसी नागरिक का ध्यान भी नहीं जाता था क्योंकि कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि द्वारिका के लिए श्रीद्वारिकाधीश के रहते सामान्य वस्तुयें बन जाती थीं।
‘ये वासुदेव ही इसे समुद्र को दे देंगे’ देवर्षि नारद ने प्रारंभ में ही भविष्यवाणी कर दी- ‘इनके धराधाम से स्वधाम जाने पर यहाँ कोई नहीं रह सकेगा।’ यह द्वारिका के साथ लगा अभिशा किन्तु नित्यधाम धरा पर सदा कैसे रहेगा वैकुण्ठ जिनके आगमन के लिए धरा पर उतरा, उनके रहने तक ही तो रहने वाला था।
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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Dwarka is the only one who is Mokshadayini in Saptapuris as well as in Dhams. There are four abodes, they are in all the four directions of India. Sri Jagannath Dham in the East, Sri Rameshwaram in the South, Dwarka in the West and Sri Badrinath in the North. There are seven Mokshadayini puris- 1. Ayodhya, 2. Mathura, 3. Mayapuri (Haridwar), 4. Avantika (Ujjain), 5. Kashi (Varanasi), 6. Kanchi, 7. Dwarka.
‘Kushaswali praised in heaven and on earth
There is a story that Maharaj Sharyati became proud and said one day in front of his sons – ‘This whole earth is mine. I have earned and followed it with my own strength.’ All the remaining sons of Sharyati silently accepted their father’s words, but Prince Anart said – ‘Father, Prithvi-Bhu Devi is the eternal beloved of Sri Hari. That same Lord is the Sustainer of all. You, we all are sons of the soil. He is dependent on Sri Hari.
Sharyati got angry. He said- ‘You are unintelligent. You leave the earth till my kingdom. I banished you Now you get the earth from Sri Hari for your stay. ‘ Although Sharyati Chakravarti was the king but Prince Anart was the ultimate Bhagwat, great minded. He said- ‘I accept your orders. You do not rule the sea. Therefore, as far as the water of the ocean reaches the earth, I will stay in that place and pray to my Lord for the earth for me.’
Aarta came to the western sea-shore and started doing penance standing on the sea-shore. At the time of high tide, the ocean washes his feet with its waves and at the time of low tide it retreats by spreading its fat near his feet. He was doing waterless fast, selfless penance. He stood motionless for years. ‘Watts!’ Every pore of the meditative Anarta was filled with joy when this nectarine sound fell upon hearing. He opened his eyes, Garudasan, Vanamali, four-armed Lord Narayan was standing in front of him smiling softly and saying- ‘Son, this divine land is now yours.’ ‘Lord! This my mother, Anarta prostrated the divine land, spread a hundred yojanas in front of the ocean. This is a part of my eternal abode, Vaikunth. I have established it on the sea for you and your descendants.’ – Lord Narayan said – ‘Now this region will be famous by your name.’ ‘There is no mountain here.’ Revat, the son of Anart, began to resent this. If there is no mountain then what is the beauty of the state. Stones, forest metals, wood, medicines are obtained from the mountains. Srishail Samudbhad, the son of the most mighty Revat Srishail, uprooted a mountain and established it on that earth. Due to being brought by him, he was named ‘Raivatak-Giri’. Revatiji is the daughter of Kakudmi, the son of this Maharaj Revat.
That part of Baikunth-Divya Bhoomi, Shri Hari’s eternal abode Dwaravati. By the order of Shri Krishnachandra, the sea left some more land there. Vishwakarma made Sahasrapuri twelve yojanas, but the city part was twelve yojanas long and eight yojanas wide. The two ends of the city were near the sea and two yojanas wide gardens and playgrounds were kept on both the sides. The area adjacent to Dwarka was twice that of the city. There were eight highways from the city. There were sixteen major intersections. There were seven great highways. There were four mountains around it, and they and the outskirts of the city were surrounded by forests. Four Mahadwaras were placed all around in Dwarkapuri. Water, Agni, Indra and Parthiv were the names of these gates. The idols of Shuddhaksha, Aindra, Bhallat and Pushpadanta were built on their outer archway. These are the door-deities. Lord Vasudev – The building of Sridwarikadhish which was actually a group of buildings. It was four yojanas long and the same wide.
There were rows of separate buildings of the queens inside it. The buildings of Dwarka were of many colours. Behind the buildings of Shrikrishnachandra, which were given to the queens, Shrirukminiji’s house was golden, Satyabhamaji’s Chandrashwet, Mitravinda’s Vaiduryamanika. In this way, some were of purple color, some of blue color, some of crystal. Along with all the buildings, there were places of worship, flower gardens, lakes, artificial sports mountains etc. Each building was complete in itself and the buildings of the subjects were also equipped with all these facilities.
Dwarikapuri was in the middle of the sea. A bridge was built on the narrow part of the sea for the passage of chariots and yards. It was a bridge that could be lifted at any time. In this way, Dwarka was a very inaccessible fort for any invader. Vishwakarma had made wonderful arrangements for the cleanliness of Puri. His invisible servants used to clean Puri at night. They kept the forests, groves and water bodies clean. Irrigation and protection were also done by him. The Yadavs were not only the guards of the city but also the servants of Vishwakarma who remained invisible and protected Puri.
Maharaj Ugrasen Yadav was the throne. Anadrishta Mahasenapati, Vikdru was made the Prime Minister. Uddhav, Kadak, Viprithu, Shvafalk, Akrur, Chitrak, Gad, Satyak, Prithu and Balramji were the ministerial directors of various departments. Satyaki was appointed the chief warrior and Daruka the chief of the charioteers of the chariot army. Kritvarma was made deputy commander. In Dwarka, Brahmins, sages and Bhagavad devotee worshipers had unhindered entry everywhere. There was no need to take permission from the gatekeeper to go to Shrikrishna Chandra’s own entourage. There was no need to take permission from the gatekeeper only on special occasions in special times. Only on special occasions, at special times, could the gatekeeper humbly request not to go inside, informing the reason.
Food, clothes, water, fruits, scent, flowers, etc., all the essential ingredients – all the cosmetics, ornaments etc. were available in Dwarka, no citizen’s attention was paid to this because Kalpavriksha, Kamdhenu, Chintamani were common for Dwarka during the time of Sridwarikadhish. Things used to be made.
‘This Vasudev will give it to the sea’ Devarshi Narad had predicted in the beginning- ‘No one will be able to live here when he goes from his land to his home.’ Landed on the earth for, was going to stay till he lived. (respectively)
🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩
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