भीत पर भगवान के चित्र टँगे हुये और झरोखे पर भारी मोटा पर्दा बँधा हुआ था।उन्होंने पलँग के नीचे झुक कर देखा।एक हाथ से जाजिम उलट दी और पाँव पटककर जाँच की कि नीचे तहखाना तो नहीं है।तलवार के एक ही झटके से झरोखे का परदा लटक गया।क्रोध में चितबंगे राणाजी फिरकनी की भाँति कक्ष में घूम रहे थे।उनकी देह के धक्के से कलशी गिरकर टूट गई।कक्ष की भूमि पर पानी पानी हो गया।जब कहीं चीड़ी का पूत भी नहीं मिला तो वे मीरा के सामने आकर खड़े हो गये और डरावने स्वर में पूछा- ‘कठै गयो वो थाँको माटी? (कहाँ गया वह तुम्हारा पति?)
‘अभी तो यहीं थे।चौपड़ खेल कर पौढ़ने की तैयारी कर रहे थे कि आप पधार गये’- मीरा ने सहज सरल उत्तर दिया- ‘आप क्या उन्हें ढ़ूढ़ रहे है? बहुत अच्छी बात है।यहचेतना जब भी आये, प्रभात जानिए, पर वे ढ़ूढ़ने से नहीं मिलते लालजी सा, उनकी प्रतीक्षा की जाती है।वे चराचर के वासी, कहाँ ढ़ूढ़ उनको…..’
‘चुप रहिए’- बीच में ही गरज कर महाराणा ने उन्हें रोक दिया- ‘सीधे सीधे बता दीजिए भाभी म्हाँरा, नहीं तो मुझसा बुरा न होगा’- वे हाथ की तलवार उनके सामने करके बोले।
‘मैं कहाँ बताऊँ लालजी सा।वे कहाँ नहीं हैं? वे क्या किसी के बस में हैं?’
‘मैं कहता हूँ कहाँ है वह जो आपसे बातें कर रहा था।मैने अपने कान से आदमी का स्वर सुना है कुलक्षिणी।तुम्हारे जीने से हम सब जीवित ही मृत केसमान हो गये।मुँह पर कालिख पुतवा दी तुमने।’
राणाजी का क्रोध सीमा पार कर गया। वे मर्यादा भूल गये।आपसे तुम पर आ गये और अब भयंकर क्रोध के वशीभूत होकर तलवार का वार करते हुए भयानक स्वर में बोले- ‘ले कुल कलंकिनी, ले अपनी करनी का फल।’
दासियों के मुख से अनजाने ही चीख निकल गई, किंतु यह क्या? मीरा की देह से खंग यों पार हो गया, जैसे शून्य से पार हुआ हो।मीरा तो जहाँ की तहाँ खड़ी मुस्करा रही थी।यह देखकर राणा भौंचक रह गये, किंतु क्षण भर पश्चात ही दुगने वेग से अंधाधुंध वार करने लगे, मानों युद्ध भूमि में शत्रुओं से घिर गये हों।मीरा को हँसते देख राणा का हाथ रूक गया।भय और आश्चर्य से आँखे फाड़ फाड़ कर वे उनकी ओर देखने लगे।उन्होंने तलवार की धार पर अगूँठा फेरा देखा और फिर उछलकर मीरा पर पुन: घातक वार किया।मीरा पुन: हँस दी।राणाजी ने देखा कि एक नहीं दो मीरा खड़ी हैं।वे पागल की तरह कभी इसे और कभी उसे देखते कि कौन सी सच है और कौन सी झूठ।उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि फेरी तो उधर भी दो मीरा खड़ी दिखाई दीं।तीसरी ओर भी, चौथी ओर भी,चारों ओर, ऊपर नीचे जहाँ भी देखें मीरा ही मीरा।उन्होंने घबराकर आँखे बंद कर लीं, किंतु बंद आँखों के सम्मुख भी मीरा खड़ी हँख रही थी।वे तलवार फेंक कर चीखते हुए बाहर भागे- ‘अरे यह डाकिनी, जादूगरनी, खा गई रे खा गई।’
उनके जाने के पश्चात सब लोग थोड़ी देर तक पाषण की मूरत की तरह खड़े रह गये।फिर मीरा ने कहा- ‘चम्पा यह तलवार भूरीबाई को दे दे।लालजी सा को नजर कर आये।अपन इसका क्या करें?’
‘यह क्या हो गया बाईसा हुकुम?’- चम्पा ने जैसे उनकी बात सुनी ही न हो।
‘हुआ तो कुछ नहीं।लालजी सा ठाकुरजी के दर्शन करने पधारे थे, किंतु वह छलिया क्या तलवार के जोर से बस में आता है?’- मीरा ने हँस कर कहा, फिर गम्भीर हो गई- ‘मनुष्य का दुर्भाग्य, उसे गंगातट पर भी प्यासा रख देता है।तुम सबने भोजन कर लिया?’
‘नहीं हुकुम, अब किसको रोटी भायेगी? खाने बैठी हीं थी कि बादल बिजली गरज पड़े।’
‘बेंडी(बावरी) ऐसा क्या हो गया? जाओ तुम्हें मेरी सौगंध खा लो सभी जनों’- मीरा पलँग पर विराजते हुये बोली- ‘द्वार खुला ही रहने दो।किवाड़ बेचारे चरमरा गये हैं’- वे छोटे बालक की भाँति हँस दीं- ‘अबकी बार यदि लालजी सा एक लात भी लगा दी तो टूटकर बूढ़े मनुष्य के दाँतों की भाँति लटक ही जायेगें।अरे जाओ भई, रात आ रही है कि जा रही है?’
‘क्यों भूरीबाई तुम कहाँ थीं?’
‘मैं? मैं तो हाथ मुँह धोने गई थी।हो हल्ला सुना तो हाथ धोते ही दौड़ी आई।कौन जाने, अन्नदाता हुकुम को क्या हो गया है कि नित उठकर धतंग करवाते हैं।’- भूरी ने कहा।
‘करें तो भले करें’- गंगा बोली- ‘अग्नि में हाथ डालोगे तो जलने के अतिरिक्त क्या होना है? बाईसा हुकुम तो गंगा का नीर हैं।भावै तो स्नान पान करके स्वयं को पवित्र करो, भले दारू उबालकर सर्वनाश करो।’
‘हाँ द्खो न जीजी, अपन सब डर गईं किंतु बाईसा हुकुम तो मुस्कराती ही रहीं’- गोमती बोली।
‘जैसे बाईसा हुकुम के रहते हमें डर नहीं लगता वैसे ही वे फरमावैं कि जब चराचर में मेरे प्रभु ही हैं तो मुझे भय किससे हो?’- चम्पा ने समझाया।
‘पर तब भी जीजी, आश्चर्य नहीं होता तुझे? अन्नदाता की तलवार कैसे सपासप चल रही थी किंतु बाईसा हुकुम का रोयाँ भी खंडित नहीं हुआ।ऐसा क्या अपराध किया था इन्होने कि तलवार चलाने की आवश्यकता पड़ गई?’
‘भक्ति का प्रताप है बहिन, हम सबका सौभाग्य है कि ऐसी स्वामिनी के चरणों की चाकरी मिली’- चम्पा उल्लसित स्वर में बोल उठी।
‘तुम कुछ भी कहो जीजी, अन्नदाता हुकुम को क्या सपना आया, जो वे आधी रात को तलवार लेकर दौड़े दौड़े पधारे कि कक्ष में आदमी बोलता है।किसी ने अवश्य दूती(चुगली) खाई होगी।ठाकुरजी आदमी नहीं तो क्या स्त्री हैं?’- गोमती ने कहा।
‘यदि किसी ने दूती भी की होगी तो उसका फल वह स्वयं भोगेगा।हमें क्या? खोटे मनुष्य को भले भी खोटे ही नजर आते हैं।’
‘तुम सब समझ रही होगीं कि मैनें जाकर अर्ज की, किंतु तुम जिसकी कहो उसकी सौगंध खाऊँ, जो मैनें कुछ किया हो।मैं तो हाथ मुँह धोने गई थी। लौट रही थी कि अन्नदाता का स्वर सुनाई दिया।’
‘नहीं कहा तो बहुत अच्छा किया और कहा भी तो बिगड़ क्या गया?’- चम्पा ने कहा- ‘पत्थर पर सिर पटकने से पत्थर का क्या बिगड़ता है? माथा ही फूटेगा न?’
नेक परामर्श की उपेक्षा……
चारों ओर बातें होने लगीं कि श्री जी मेड़तणीजी सा को मारने पधारे किंतु तलवार ने देह का स्पर्श ही नहीं किया।वे एक से अनेक हो गईं।
क्रमशः