‘चल ! कहाँ चलना है?’ कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े।सखी वहाँ कदम्ब की डाली पर बँधे हुये झूले पर श्री राधागोविन्द विराजित हुये। हम सब गाती हुयी उन्हें झुलाने लगीं। अरी सखी झूलते हुये भी वे बीच बीच में मेरी ओर देख लेते थे।अपना आरक्त मुख मैं कहाँ जाकर छिपाऊँ, इसी लज्जा भरी ऊहापोह में मैं गाना भी भूल जाती। थोड़ी देर बाद श्यामसुन्दर झूले से उतर पड़े और किशोरीजू को झूलाने लगे। एक प्रहर तक झूलने झलाने के बाद सखियों के साथ किशोरी जी चली गईं।श्यामसुन्दर भी गायों की ओर चले गये।
तब मैं झुरमुट से निकलकर और झूले पर बैठकर धीरे-धीरे झूलने लगी। नयन और मन झूलन लीला की पुनरावृति करने में लगे थे। कितना समय बीता, मुझे ध्यान न रहा, पर किसी ने मेरी आँखें मूँद ली। मैंने सोचा कि कोई सखी होगी।अच्छा तो न लगा उस समय किसी का आना, पर जब कोई आ ही गयी हो तो क्या हो? मैंने कहा, ‘आ सखी ! तू भी बैठ जा ! हम दोनों साथ-साथ झूलेंगी।’ वह भी सचमुच मेरी आँखें छोड़कर आ बैठी मेरे पास में। झूले का वेग थोड़ा बढ़ा। अपने विचारों में मग्न थी।थोड़ी देर बाद ध्यान आया कि यह सखी बोलती क्यों नहीं? ‘क्या बात है सखी ! बोलेगी नाय?’ मैंने यह पूछा और तत्काल ही नासिका ने सूचना दी कि कमल, तुलसी, चन्दन और केसर की मिली जुली सुगन्ध कहीं समीप ही है। एकदम मुड़ते हुये मैंने कहा, ‘सखी, श्यामसुन्दर कहीं समीप ही ………. ओ……ह…..।’ मैंने हथेली से अपना मुँह दबा लिया क्योंकि मेरे समीप बैठी सखी नहीं श्यामसुन्दर ही थे।
‘कहा भयो री ! कबसे मोहे सखी-सखी कहकर बतराये रही हती।अब देखते ही चुप काहे हो गई?’
मेरा मुख ही नहीं कान तक आरक्त हो उठे।
‘चल खड़ी हो मैं झुलाता हूँ तुझे’- वे उठ खड़े हुये और मुझे भी हाथ पकड़ कर उठा दिया।परस्पर इतने समीप थे कि एक दूसरे को छूते हुए हुये खड़े थे हम।वह देहगंध किसे मत्त नहीं कर देती? मेरे हाथ पाँव ढीले होने लगे। उन्होंने जो झूला बढ़ाना आरम्भ किया तो क्या कहूँ, जैसे चढ़ताँ तो दीखे वैकुण्ठ, उतरताँ ब्रजधाम।किंतु देखने का अवकाश ही किसे था सखी।यहाँ अपना ही आपा नहीं दिखाई दे रहा था। लगता था, जैसे अभी पाँव छूटे।हाथ डोरी को थामे हैं कि डोरी ही हाथ से चिपकी है, कौन जाने।पलकें मन भर की भारी होकर झुक आईं थीं।दृश्य जगत का लोप हो गया था।केवल स्पर्श और गंध ही मुझे घेरे था।मन की स्थिति कही नहीं जाती।वह था भी कि नहीं, ज्ञात नहीं हो पा रहा था।आवश्यकता भी क्या थी? अकस्मात एक पाँव छूटा और क्षण भर में मैं धरा पर जा गिरती, श्यामसुन्दर की त्वरा भी उन्हीं के योग्य है।बायीं बाँह से झूले की डोरी को भीतर करते हुये हाथ से मुझे थाम लिया।अनजाने ही मेरे हाथ उनकी कटि घेरकर बँध गये।इसके पश्चात क्या हुआ मैं नहीं जान सकी।जब चेत आया तो देखा श्यामसुन्दर की जाँघ पर सिर धरे पड़ी हूँ।गगन से हल्की फुहार बरस रही है और मोर नाच रहे हैं।शशक कभी मुझे और कभी श्यामसुन्दर के पदतल को अपनी लाल लाल जीह्वा से चाट लेते हैं।पशुओं का झुंड हमें घेरे हैं।कदम्ब पर पक्षी लदे हैं।
‘क्यों री ! यह अचेत हो जाने का रोग कब से लगा? ऐसे रोग को पाल कर झूला झूलने लगी है। कहीं गिरती तो? मेरे ही माथे आती न? आज ही सांझ को चल तेरी मैया से कहूँगा। इसे घर से बाहर न जाने दो। अचेत होकर कहीं यमुना में जा पड़ी तो जय-जय सीता राम हो जायेगा।’ वे खुल कर हँस पड़े।उन्होंने मुझे उठा कर बैठा दिया और पूछा- ‘अब कैसा जी है तेरा?’ कहीं चल न दें इस आशंका से कुछ नहीं कह पाई।हाँ बोलूँ कि न, मैं यही सोच रही थी कि श्यामजू न जाने कहाँ चले गये।हाय, कुछ बात भी न कर सकी।नयन प्यासे ही रह गये और सुधा सरोवर लुप्त हो गया।
भीजे म्हाँरो दाँवण चीर साँवणियो लूमि रह्यो रे।
आप तो जाय विदेसाँ छाये जिवड़ो धरत न धीर।
लिख लिख पतियाँ संदेसो भेजूँ कव घर आवै पीव।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दरसण दो न बलवीर।
दासियाँ स्वामिनी को किसी प्रकार भीतर ले गईं, किन्तु भावसमुद्र की उत्ताल तरंगे थमती ही न थीं- ‘मुझे भूल गये नाथ। आपने तो वचन दिया था न कि शीघ्र ही आऊँगा। अपना वह वचन भी भूल गये? निर्मोही, तुम्हारे बिना कैसे जिया जाये? सखियों ! श्यामसुन्दर कितने कठोर हो गये?’
देखो सइयाँ हरि मन काठों कियो।
आवन कहगयो अजहुँ न आयो करि करि वचन गयो।
खान-पान सुध-बुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो॥
वचन तुम्हारे तुमहि बिसारे मन मेरो हरि लियो।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर तुम बिन फटत हियो॥
दासियाँ प्रयत्न करके थक गई, किन्तु मीरा ने मुख से अन्न का कण तक न लिया। रह-रह कर बादल गरज उठते और मोर पपीहा बोल उठते-
मतवारे बादल आये रे, हरि का संदेसो कबहुँ न लाये रे॥
दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सबद सुनाये रे॥
कारी अंधियारी बिजुरी चमकें, बिरहणि अति डरपाये रे॥
गाजे बाजे पवन मधुरिया,मेहा मति झड़ लाये रे॥
कारो नाग बिरह अति जारी, मीरा मन हरि भाये रे॥
इधर न उसकी आँखों से बरसती झड़ी थमती थी और न गगन से बादलों की झड़ी। उसी समय कड़कड़ाहट करती हुई बिजली चमकी और बादल भयंकर रूप से गर्जन कर उठे।मीरा भयभीत हो किन्हीं बाँहों की शरण ढूँढने लगी-
बादल देख डरी हों स्याम मैं बादल देख डरी।
काली पीली घटा उमड़ी बरस्यो एक घड़ी।
जित जोऊँ तित पाणी पाणी हुई हुई भौम हरी॥
जाकाँ पिय परदेस बसत है भीजे बाहर खरी।
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी कीजो प्रीति खरी॥
मीरा के विचारों की धारा पलटी।वे पुन: बरसाने के बाग में पहुँच कर झूलन लीला देखने लगीं-
ओ हिंडोले हेली झूले छे नंदकिसोर।
कदंब की डार हिन्दो घाल्यो रेशम री गज डोर।
राधेजी झूलण लागा झुलावै छे सखियाँ रो साथ।
दादुर मोर पपईया बोलें कोयल कर रही सोर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ बलिहार।
बरसती बरखा में राधा बिहारी के खेल को वे मुग्ध मन से निहार रहीं थीं-
आयो सावन अधिक सुहावना, बनमें बोलन लागे मोर॥
क्रमशः