सखियाँ दम्पत्ति के इस एकान्त में व्यवधान न डालने के विचार से कक्ष से चुपचाप जा चुकी थीं।
रात्रि के द्वितीय प्रहर का प्रारम्भ कक्ष में मन्द आलोक मणि-प्रदीपों का। शैय्या पर मोतियों की झालर लगी शुभ्र चाँदनी तनी। उस पर मल्लिका के पुष्पों की मालायें तनी थीं और उन पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे।
गवाक्ष से निर्मल चन्द्र की ज्योत्सना कक्ष में आ रही थी। उपवन से मन्द, शीतल, सुगन्धित वायु आ रही थी। कक्ष में से अगुरु की मधुर धूम गवाक्ष से निकल रही थी। शरत्पूर्णिमा का अत्यन्त मनोरम समय और यह भी रात्रि।
रस चर्चा नहीं, शान्त शयन भी नहीं, परिहास सूझा- लीलामय को कब क्या सूझेगा, कौन कह सकता है। वे तनिक अधलेटे हुए।
रुक्मिणी की ओर देखा और बोले- ‘राजपुत्री’
‘यह कैसा सम्बोधन? ये इस प्रकार क्यों बोल रहे हैं?’ देवी रुक्मिणी ने आश्चर्य से अपने आराध्य की ओर देखा। उनको चौंकाने के लिये यह सम्बोधन ही पर्याप्त था
श्रीकृष्ण कह रह थे- ‘लोकपालों जैसा जिनका ऐश्वर्य था- जिनका प्रभाव और सम्पत्ति थी, ये रूपवान, बलवान, नरेश तुमको चाहते थे। शिशुपाल तथा वैसे दूसरे भी तुम्हारे रूप- गुण पर मोहित होकर तुम्हारी प्रार्थना करते थे और तुम्हारे भाई तथा पिता भी तुमको उन्हें दे रहे थे फिर तुमने अपने से सर्वथा असमान हमारा वरण क्यों किया?’
व्यजन का हिलना रुक गया। पद संचालन रुद्ध हो गया। देवी रुक्मिणी स्तब्ध देखती रह गयीं- ‘ये आज कह क्या रहे?’
‘हमने तो उन जरासन्धादि राजाओं के भय से समुद्र में शरण ले रखी है। बलवानों से हमारी शत्रुता है। राज्य सिंहासन न हमारा है, न हमारी संतान का होना है’
श्रीकृष्ण गंभीर बने कहते गये- ‘हमारा तो मार्ग भी अस्पष्ट है। लोक चलते हैं, उनसे भिन्न पथ से हम चलते हैं। सुन्दरी ऐसे पुरुष को अपनाकर स्त्रियों को प्रायः क्लेश होता है। हम स्वयं निष्किंचन है और निष्किंचन जन मुझे प्रिय हैं। अतः धनवान प्रायः मुझसे प्रेम नहीं करते’
‘ये कहना क्या चाहते हैं?’ देवी रुक्मिणी सन्न सुन रहीं थीं।
‘अपने समान जिनका धन, आयु-जाति, रूप, ऐश्वर्य हो, उनमें ही विवाह और मित्रता उचित है। अपने से उत्तम या निम्न में यह सुखद नहीं होती। विदर्भ राजकुमारी तुमने यह विचार भली प्रकार किया नहीं। भिक्षुकों ने व्यर्थ हमारी प्रशंसा कर दी और उसके भुलावे में आकर तुमने हमारा वरण कर लिया’
श्रीकृष्ण ने निष्ठुर की भाँति कह दिया- ‘अतः अपने अनुरूप किसी उत्तम क्षत्रिय का वरण कर लो जिससे तुम इस लोक और परलोक में भी अभीष्ट सुख पा सको।’
‘हमसे शिशुपाल, जरासन्ध, शाल्व, दन्तवक्र और तुम्हारा भाई रुक्मी भी द्वेष करता है। उन गर्व से मत्त लोगों का घमण्ड तोड़ने के लिये मैं तुम्हें ले आया’ अब शीघ्रता से बोल गये- ‘लेकिन कल्याणी हम तो उदासीन पुरुष हैं। जैसे घर में निष्कम्प दीप-ज्योति हो, ऐसे आत्मलाभ में परिपूर्ण। हमको स्त्री-पुत्रादि की कोई कामना नही’
इतनी निष्ठुर वाणी, इतना निर्मम व्यंग कल्पना भी जिसकी कोई न कर सके ऐसा परिहास। देवी रुक्मिणी सरल, निर्मल, हृदया। उनको लगा- ‘ये मेरा परित्याग कर रहे हैं’ दूसरा क्या सोचती वे, जब कह दिया गया- ‘अपने अनुरूप किसी क्षत्रिय-श्रेष्ठ का वरण कर लो’
जो अपने हैं, अपने जीवन-प्राण हैं, सर्वस्व हैं, वे ऐसा कहते हैं? भय, शोक व्याकुलता- नेत्रों से अश्रु प्रवाह फूट पड़ा। हृदय काँपने लगा। सिर झुक गया। चिन्ता- क्या होगा अब? चरणों के नखों से भूमि कुरेदती दो क्षण वे खड़ी रहीं। मुख से एक शब्द नहीं निकल सका। दुःख, भय, शोक- प्रियतम के परित्याग की आशंका- हाथ से व्यंजन छूट गिरा। सहसा मूर्च्छित होकर वे गिरीं।
अत्यन्त शीघ्रता से श्रीकृष्णचन्द्र ने भूमि पर गिरती प्रियतमा पत्नी को अपनी चारों भुजाओं मे सम्हाल कर अंक में ले लिया। उनकी अस्तव्यस्त-केशराशि सम्हाली और उनके अश्रु सिंचित कपोल पोंछे। उन अनन्या परमसती को उठाकर हृदय से लगा लिया।
‘प्रिये यह क्या? इतनी दुःखी हो गयीं तुम? तुम तो परिहास भी नहीं समझती हो। मैंने तो तुमसे परिहास किया। मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परायणा हो किन्तु मैं तो सोचता था कि तुम रुष्ट होगी, तुम्हारा मुख क्रोधारुण होगा, तुम्हारे अधर फड़केंगे, तुम्हारी सुन्दर भौंहें अधिक कुटिल होंगी, कुछ अरुण नेत्र करके, टेढ़े दृगों से देखकर कुछ कहोगी। तुम्हारी यह शोभा देखने के लिये मैंने परिहास किया। और गृहस्थ पत्नी से हास-परिहास नहीं करे तो दाम्पत्य के सुख का लाभ?’ अत्यन्त आर्द्र स्वर, ममतामय भंगिमा में श्रीकृष्णचन्द्र ने आश्वासन दिया।
(क्रमश:)
जय श्रीराधे कृष्णा
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Shri Dwarkadhish
Part-27
The friends had quietly left the room with the idea of not disturbing the solitude of the couple.
Beginning of the second phase of the night, the dim light of the gem-lamps in the room. There was a fringe of pearls on the bed. Garlands of Mallika’s flowers were strung on it and illusions were humming on them. The pure moon’s light was coming into the room from the window. Slow, cool, fragrant air was coming from the garden. The sweet smell of Aguru was coming out of the room. Very beautiful time of Sharatpurnima and this too night.
There is no discussion of interest, no peaceful sleep, no joke, who can say when Leelamaya will think about it. They are a little half-dead.
Looked at Rukmini and said – ‘Princess’
‘What kind of address is this? Why is he speaking like this?’ Goddess Rukmini looked at her adorable with surprise. This address was enough to startle them, but Shri Krishna was saying – ‘Like Lokpals who had wealth – who had influence and wealth, this beautiful, strong, king wanted you. Shishupala and others also used to pray for you being fascinated by your beauty and your brothers and father were also giving you to them, then why did you choose us as unequal to yourself?’
The food stopped moving. Post operation stopped. Goddess Rukmini kept looking stunned – ‘What are you saying today?’
‘We have taken refuge in the sea because of the fear of those Jarasandhadi kings. We have enmity with the strong. The throne of the kingdom is neither ours nor our children’s.
Shri Krishna became serious and said- ‘Our path is also unclear. People walk, we walk on a different path than them. Women often get distressed by adopting such a handsome man. We ourselves are free and people who are free are dear to me. That’s why the rich don’t usually love me.
‘What do you want to say?’ Goddess Rukmini was listening in shock.
‘Marriage and friendship are appropriate only among those who have wealth, age-caste, appearance, opulence like themselves. It is not pleasant in being superior or inferior to oneself. Vidarbha princess, you have not thought this through well. The beggars praised us in vain and by being misled by them you chose us.
Shri Krishna said ruthlessly – ‘Therefore, select a good Kshatriya according to you, so that you can get the desired happiness in this world and in the hereafter.’
Shishupala, Jarasandha, Shalva, Dantavakra and your brother Rukmi also hate us. I brought you to break the pride of those people who were intoxicated with pride.’ Now he spoke hastily – ‘But Kalyani, we are indifferent men. Just as there is an innocent lamp in the house, so full of self-realization. We have no desire for women and children.
Such a cruel speech, such a cruel sarcasm that no one can even make fun of. Goddess Rukmini is simple, pure, hearty. She felt – ‘He is abandoning me’ What else would she think, when it was said – ‘Choose a Kshatriya-best according to you’
Those who are ours, our life-soul, everything, do they say so? Fear, grief, distraction – tears flowed from the eyes. Heart started trembling. Head bowed. Worry – what will happen now? She stood for two moments scraping the ground with the nails of her feet. Not a single word could come out of his mouth. Sadness, fear, mourning – Fear of abandonment of the beloved – Dishes dropped from hand. Suddenly she fainted and fell.
Very quickly, Shri Krishnachandra took the beloved wife who was falling on the ground in his four arms. She took care of his disheveled hair and wiped his tear-soaked cheeks. He picked up that Ananya Paramsati and touched his heart.
‘Dear what is this? Are you so sad? You don’t even understand jokes. I joked with you. I know that you are my friend, but I used to think that you will be angry, your face will be angry, your belly will flutter, your beautiful eyebrows will be more crooked, you will say something by looking with crooked eyes. I made fun of you to see this beauty of yours. And if the householder does not make fun of his wife, then what is the benefit of married happiness?’ Shrikrishna Chandra assured in a very moist voice, loving gesture.
(respectively)
🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩
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