अच्छा, ये परिहास कर रहे थे?’ मूर्च्छा दूर हुई शीतल स्निग्ध प्रेम स्पर्श पाकर। अंक में ही अपने को पाकर प्रियतम त्याग रहे हैं, यह भय मिट गया। मुख पर लज्जापूर्ण हास्य आया। धीरे से उठकर खड़ी हो गयीं और बोलीं। सदानुकूला, सदा दक्षिणा-विनम्रा श्री की वाणी उनके ही अनुकूल तो होगी। वे कहाँ रुष्ट होना या कठोर बोलना जानती हैं-
‘कमललोचन आप ठीक कहते हैं कि मैं आप भूमा के लिये समान नहीं हूँ। कहाँ आप निखिल लोकमहेश्वर, अपनी महिमा में स्थित परमपुरुष और कहा मैं आपके चरणाश्रिता गुणमयी प्रकृति।’
‘यह भी ठीक है कि त्रिगुणों से डरे हुए- के समान आप आत्मा अन्तःकरण के समुद्र में सोते हैं- केवल अनुभव स्वरूप हैं। सदा ही असदिन्द्रियों से आपकी शत्रुता है। राज्यपद तो अन्ध:तम में ले जाने वाला है, उसे तो आपके सेवकों तक ने त्याग दिया है।आपके चरण-कमल-मकरन्द के आस्वादक मुनियों का मार्ग ही ये द्विपाद पशु समझ नहीं पाते, तो आपका पथ कोई कैसे समझेगा। आप ईश्वर की चेष्टा अलौकिक की भाँति तो होगी ही। आपके भक्तों की चेष्टा भी अलौकिक होती है।’
‘आप निष्किंचन हैं क्योंकि आपके स्वरूप से बाहर कुछ है ही नहीं। देवता भी आपको विनम्र सोपहार प्रणति अर्पित करते हैं। सृष्टिकर्ता और प्रलयंकर भी आपके सेवक ही हैं। संसार के ये प्राणों के तर्पण में लगे धनमदान्ध लोग आपको जान ही कैसे सकते हैं।आप समस्त पुरुषार्थ स्वरूप समस्त फलों के परम फल हैं। आपको पाने के लिये धन्यजन अपना सर्वस्व त्याग देते हैं। उन्हीं के लिये आपकी उपलब्धि उचित है। जो स्त्री-पुरुष संपर्क के छुद्र सुख में मग्न हैं, उन्हें यह कहाँ सुलभ है।’
‘गदाग्रज बस यह बात आपकी ठीक नहीं है- मुझे मूर्ख बनाने के लिये कही गयी कि आप जरासन्धादि के भय से समुद्र में शरण लिये छिपे हैं। यह तो मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि अपने धनुषों से उन सबको भगाकर जैसे श्रृगालों के मध्य से वनराज अपना भाग ले जाय, वैसे आप मुझे ले आये’
‘आपके त्रिपातहारी श्रीचरणों की गन्ध का आस्वादन करके दूसरे किसका आश्रय लिया जाय। आप गुणगणैकधाम, आपके ये श्रीचरण नित्य रमालय- इनके आश्रित के लिये तो इस लोक-परलोक- दोनों में मंगल ही मंगल है। आप मेरे सर्वथा अनुरूप हैं। हाँ और परलोक में भी मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले है। अतः मैंने आपका आश्रय लिया। जन्म जन्म में जहाँ भी मैं जाऊँ, आपके यही श्रीचरण मेरे रक्षक रहें, जो भजन करने वाले को मिथ्या से छुड़ाकर अपवर्ग प्रदान करते हैं।’
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श्रीसंकर्षण जब से मिथिला से लौट थे, सुयोधन पर उनका स्नेह बहुत बढ़ गया था। वह उनका सुयोग शिष्य था। गदायुद्ध तो उसने सीखा ही था, अपनी सेवा से प्रसन्न कर लिया था श्रीबलराम को।
‘अब सुभद्रा का विवाह हो जाना चाहिये’
एक दिन उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा।
‘आर्य उचित कहते हैं किन्तु’ श्रीकृष्ण ने बहुत गम्भीर होकर कहा- ‘सुभद्रा योगमायांश सम्भवा है। पुरुषोत्तम ही उसका पाणि-ग्रहण कर सकता है।’
पुरुषोत्तम तो केवल तुम हो और वह तुम्हारी बहिन है। तब क्या वह सदा कुमारी रहेगी?’ श्रीबलराम तनिक आवेश से बोले-
‘मध्यम पांडव अर्जुन साक्षात नर हैं और नर तो नारायण से अभिन्न ही हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अभिप्राय स्पष्ट कर दिया’
‘क्या है पाण्डवों के पास?’ श्रीसंकर्षण रोष भरे स्वर में बोले- ‘मेरी बहिन इन्द्रप्रस्थ जैसे छोटे-से ग्राम में जायेगी? देखो कृष्ण, इस संबंध में मैं तुम्हारी नहीं सुनूँगा। सुभद्रा कौरव कुल की साम्राज्ञी बनेगी। सुयोधन ही उसके उपयुक्त पात्र है’
श्रीकृष्णचन्द्र ने भाई का प्रतिवाद नहीं किया। वे मौन रह गये। श्रीबलराम ने अपना अभिप्राय छिपाया नहीं। वे सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने के लिये कृत निश्चय हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध हो गयी। एक ही कठिनाई थी इसमें। सुभद्रा मुँह बना लेती थी दुर्योधन के नाम से ही भले बड़े भाई सदा सुयोधन ही कहते हों, क्योंकि वह उनका शिष्य था, किन्तु सुभद्रा मुँह बिगाड़कर ‘दुर्योधन’ कहती और चिढ़ उठती थी।
‘वह अभी बालिका है अज्ञ है। कुछ समय में समझ जायेगी’ श्रीबलराम को अपने से दो वर्ष छोटी यह बहिन बहुत अबोध बच्ची लगती थी। अत्यधिक वात्सल्य था उनका इस बहिन पर, वैसे सुभद्रा शैशव से श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण की रट लगाये रहती थी। मथुरा में दोनों भाइयों के आने के पश्चात से तो वह श्रीकृष्णचन्द्र के साथ ही लगी रहती।
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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Well, were they joking?’ Faintness was dispelled after getting the touch of cool aliphatic love. The fear that the beloved is abandoning himself after finding himself in numbers has disappeared. Embarrassing smile appeared on the face. Slowly she stood up and spoke. Sadanakula, always Dakshina-Nimram Shri’s speech will be in his favor only. Where she knows how to be angry or speak harshly-
Kamallochan you are right that I am not equal to you Bhuma. Where are you Nikhil Lokmaheshwar, the supreme man in his glory and where I am the virtuous nature at your feet.’
‘It is also right that the fear of the three gunas – like you soul sleeps in the sea of conscience – is only an experience. You always have enmity with the senses. The stateship is going to lead to darkness, even your servants have abandoned it. If these two-legged animals do not understand the path of sages who taste your feet-lotus-nectar, then how will anyone understand your path. You God’s effort must be like supernatural. The efforts of your devotees are also supernatural.
‘You are free because there is nothing outside your form. Even the deities offer you humble refreshments. The creator and destroyer are also your servants. How can these money-hungry people of the world who are engaged in the sacrifice of their lives know you? You are the ultimate fruit of all the fruits of all efforts. Blessed people sacrifice everything to get you. Your achievement is appropriate for them only. Where is this accessible to those who are engrossed in the mundane pleasures of male-female contact?
‘Gadagraj, just this thing is not right with you – to fool me, it was said that you are hiding in the sea due to the fear of Jarasandhadi. I have seen this firsthand that by driving them all away with your bows, you brought me like Vanraj takes his part from the middle of the Shrigals.
Whose shelter should I take after tasting the smell of your holy feet? You are the auspicious land, your holy feet are eternally beautiful – for their dependents, there is only auspiciousness in both this world and the hereafter. You suit me perfectly. Yes and in the hereafter also he is going to fulfill all my wishes. That’s why I took your shelter. Wherever I go in births, may these feet of yours be my saviors, who free the worshiper from falsehood and provide them with apavarga.’
Ever since Srisankarshan had returned from Mithila, his affection for Suyodhana had increased a lot. He was his lucky disciple. He had already learned mace fighting, he had pleased Shri Balaram with his service.
‘Now Subhadra should get married’ One day he said to Shri Krishna Chandra. ‘ Arya says rightly but ‘ Shri Krishna said very seriously – ‘ Subhadra Yogmayansh is possible. Only Purushottam can drink its water.’
Purushottam is only you and she is your sister. Then will she remain a virgin forever?’ Shree Balram spoke with a little enthusiasm – ‘Arjuna, the middle Pandava, is actually a man and a man is inseparable from Narayan. Shri Krishna made his intention clear.
‘What do the Pandavas have?’ Srisankarshan said in a furious voice – ‘ Will my sister go to a small village like Indraprastha? Look Krishna, I will not listen to you in this regard. Subhadra will become the queen of the Kaurav clan. Suyodhana is his suitable character.
Shrikrishna Chandra did not oppose his brother. They remained silent. Shri Balaram did not hide his intention. He is determined to marry Subhadra to Duryodhana, this thing became famous everywhere. There was only one difficulty in this. Subhadra used to frown at the name of Duryodhan, even though the elder brother always used to say Suyodhan, because he was his disciple, but Subhadra used to say ‘Duryodhan’ by spoiling her face and getting irritated.
‘She is still a girl, she is ignorant. She will understand in some time. Shri Balram found this sister two years younger than him to be a very innocent child. He had a lot of affection for this sister, by the way, Subhadra used to chant Shri Krishna-Shri Krishna from childhood. After the arrival of both the brothers in Mathura, she would have been engaged only with Shri Krishnachandra. (respectively)
🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩
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