मीरा चरित भाग- 90

गंगा दौड़कर कलम कागज ले आई।
‘अभी की अभी’- मीरा ने हँसकर कहा।
‘हाँ हुकुम, शुभ काम में देरी क्यों?’
‘ला दे, पागल है तू तो।काम कोई अच्छे बुरे थोड़े ही होते हैं।करने वाले के भाव उसे अच्छा बुरा बना देते हैं।’

विक्रमादित्य का मानसिक अनुताप….

‘नाहर ने मेड़तणी जी सा का स्पर्श भी नहीं किया।वहाँ तो नृसिंह भगवान के पधारने का उत्सव मनाया जा रहा है सरकार।मेड़तणी जी सा ने तो उसकी पूजा की, भोग लगाया और आरती करके प्रणाम भी किया।वह तो पाले कुत्ते की भाँति खड़ा खड़ा पूँछ हिलाता रहा।वापस लौटकर उसने पिंजरा लेजाने वाले को मार डाला।’- यह सुनकर राणाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया।कुछ समय के लिए बुद्धि ने काम करना छोड़ दिया।बोला ही नहीं गया उनसे।फिर धीमे स्वर में स्वगत ही बोले- ‘वह तो पाला हुआ नहीं था। वह तो नरभक्षी था।चार दिन पूर्व ही पकड़ा गया था, वह भी डर गया इस वशीकरण से? पशुओं पर भी इसका मंत्र चल गया।अब क्या होगा इस कुल का, इस राज्य का? यहसबका भक्षण कर जायेगी। जिस दिन से यह यहाँ आई है, सुख शांति विदा हो गई है।दाजीराज को न जाने क्या कुमति उपजी जो इस डाकिनी को यहाँ लाये।यह सबको खा जायेगी।कैसे दिन थे वे, साँगा का नाम सुनते ही बड़े बड़े शूरवीरों को पसीना छूटने लगता और वे दूसरे कार्तिकेय जैसे बावजी हुकुम, उनके खड्ग का स्वाद जिसने चखा उसकी आँख खुलने की बात नहीं रह जाती थी।सज्जनों के साथी और दुश्मनों के काल।अपनों के लिए नीलकठ और रण में प्रलयंकर।कहाँ गये वे हमें प्यार करने वाले एकलिंग अवतार भाई।इस मेड़तणी भाभी ने एक दिन भी ग्रहस्थ सुख कैसा होता है जानने नहीं दिया।ये दिनरात उस धातु की मूरत से चिपकी रही और बाबाओं के बीच बैठकर न जाने कौनसे परलोक को सवाँरती रही।बाबजी हुकुम तो भोले भंडारी थे।इसकी हाँ में हाँ वे भी मिलाते रहे।कोई कोई तो कहते हैं घाव तो भरने लगे थे, एक दिन अकस्मात् न जाने कैसे सब घाव उधड़ गये।रक्त से पट्टियाँ तर हों गईं।फिर न तो घाव भरे और न उन्हें जीवन की चाह रही।इसी राँड ने कुछ न कुछ करके घाव उधेड़ दिये होगें।इसी ने उन्हें जीने नहीं दिया।हे एकलिंग नाथ…..।’ दीवानजी ने निःश्वास छोड़ा- ‘मेरी इस खोटी भौजाई मेड़तणी से मुझे बचाओ।इस नीच राँड को चित्तौड़ से निकालो प्रभु, जिससे बाकी बचे परिवार के इने गिने लोग शांति से रह सकें।’

गोस्वामी तुलसीदास जी को पत्र….

महाराणा विक्रमादित्य के मन का परिताप, परिवार के पारस्परिक सम्बन्धों को संतप्त बना रहा था। सौहार्द से शून्य वातावरण को देखकर मीरा के मन की उदासीनता बढ़ती जा रही थी। प्राणाराध्य की भक्ति तो छूटने से रही, भले ही सारे अन्य सम्बन्ध टूट जाए। परिवार की विकट परिस्थिति में क्या किया जाये, किससे राय ली जाये, कुछ सूझ नहीं रहा था।रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति-महिमा और यश-चर्चा सुनकर मीरा ने उन्हीं के पास पत्र में लिखा-

स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषण हरण गुँसाई।
बारहिं बार प्रणाम करऊँ अब हरहु सोक समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरू भजन करत मोहि देत कलेस महाई॥
बालपन में मीरा कीन्हीं गिरधर लाल मिताई।
सों तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई॥
मेरे मात पिता सम तुम हो हरिभक्तन सुखदाई।
मोंको कहा उचित करिबो अबसो लिखियो समुझाई॥

पत्र लिखकर मीरा ने श्री सुखपाल ब्राह्मण को बुलवाया और कहा- ‘पंडित जी ! आप यह पत्र महाराज श्री तुलसीदास गुँसाई जी को जाकर दीजियेगा। उनसे हाथ जोड़ कर विनती कर कीजियेगा और मेरी ओर से कहियेगा कि पितासम मानकर मैंने आपसे राय पूछी है, अतः मेरे लिए जो उचित लगे, सो आदेश दीजिये। बचपन से ही भक्ति की जो लौ लगी है, सो तो अब कैसे भी नहीं छूट पायेगी। वह तो प्राणों के साथ ही जायेगी। भक्ति के प्राण सत्संग हैं और घर के लोग सत्संग के बैरी हैं। संतों के साथ मेरा उठना-बैठना, गाना नाचना और बात करना उन्हें घोर कलंक के समान लगता है। नित्य ही मुझे क्लेश देने के लिए नये-नये उपाय ढूँढते रहते है। स्त्री का धर्म है कि घर नहीं छोड़े, कुलकानि रखे, शील न छोड़े, अनीति न करे, इनके विचार के अनुसार मैंने घर के अतिरिक्त सब कुछ छोड़ दिया है। अब आप हुकम करें कि मेरे लिए करणीय क्या है? मेरे निवेदन को सुनकर वे जो कहें, वह उत्तर लेकर आप शीघ्र पधारने की कृपा करें, मैं पथ जोहती रहूँगी।’
‘पण हुकम ! तुलसी गुँसाई म्हाँने मिलेगा कठै (कहाँ)? वे इण वकत कठै बिराजे?’- पंडित जी ने पूछा।
‘परसों चित्रकूट से एक संत पधारे थे। उन्होंने भी मुक्त स्वर से सराहना करते हुये मुझे तुलसी गुँसाई जी की भक्ति, वैराग्य, कवित शक्ति आदि के विषय में बताया था। उनका जीवन वृत्त कहकर बताया कि इस समय वे भक्त शिरोमणि चित्रकूट में विराज रहें है। आप वहीं पधारें, जैसे तृषित जल की राह तकता है, वैसे ही मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगी।’- इतना कहते-कहते मीरा की आँखें भर आईं।
‘संत पर साँई उभो है हुकम, आप चिंता मती करावौ (सत्य पर साँईं खड़ा है हुकुम।आप चिन्ता न करें)’- श्री सुखपाल ब्राह्मण मीरा को आशीर्वाद देकर चल पड़े।

जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम स्नेही॥
तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषण बंधु भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रजबनितनि भये मुद मंगलकारी॥
नातो नेह राम सों मनियत सुह्रद सुसेव्य लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटे बहु तक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्राण ते प्यारो।
जासो बढ़े सनेह राम पद ऐसो मतो हमारो॥

श्री सुखपाल ब्राह्मण द्वारा लाया गया तुलसीदास जी का पत्र पढ़कर मीरा का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने आँखें मूँद लीं।बन्द नेत्रों से हर्ष के मोती झरने लगे।थोड़ी देर बाद उन्होंने उठकर श्री सुखपाल ब्राह्मण के चरणों में सिर रखा- ‘क्या नज़र करूँ? इस उपकार के बदले आपको कुछ दूँ, ऐसी कोई वस्तु नज़र नहीं आती।’- फिर उन्होंने भरे कण्ठ से कहा- ‘आपने मेरी फाँसी काटी है। प्रभु आपकी भव-फाँसी काटेंगे। आपकी दरिद्रता को दूर करके प्रभु अपनी दुर्लभ भक्ति आपको प्रदान करें, यह मंगल कामना है।
क्रमशः

Ganga ran and brought pen and paper.
‘Abhi ki abhi’- Meera said with a smile.
‘Yes Hukum, why delay in auspicious work?’
‘Bring it, you are mad. There are few good and bad deeds. The feelings of the person who does it make him good or bad.’

Vikramaditya’s mental repentance….

‘Nahar didn’t even touch Medtaniji. There, the festival of Lord Narasimha’s arrival is being celebrated. Medtaniji worshiped him, offered bhog and offered obeisances to him. He behaved like a pet dog He kept wagging his tail while standing. He returned and killed the person who had brought the cage.’ – Hearing this, Ranaji could not believe his ears. For some time the intellect stopped working. Swagat himself said – ‘He was not brought up. He was a cannibal. He was caught four days ago, he is also scared of this vashikaran? Its mantra has also worked on animals. Now what will happen to this family, this state? It will devour everyone. Ever since the day she came here, happiness and peace have gone away. Dajiraj did not know what kind of women would grow that brought this dakini here. She will eat everyone. It seems and other Kartikeya like Bavji Hukum, the one who tasted the taste of his sword, there was no talk of opening his eyes. Companions of gentlemen and death of enemies. Neelkath for loved ones and Pralayankar in the battle. Where have those singles who love us gone? Incarnation brother. This Medtani sister-in-law didn’t let me know what is the happiness of the world even for a day. She stuck to that metal statue day and night and don’t know which otherworld she kept sitting in the midst of Babas. Yes, they also kept mixing. Some say that the wounds were starting to heal, one day suddenly all the wounds were torn open. The bandages were soaked with blood. The whore must have done something or the other to open his wounds. This is what did not let him live. O Ekling Nath…..’ Diwanji breathed out – ‘Save me from this false sister-in-law of mine, Medtani. Get this vile whore out of Chittor, Lord. So that these few people of the remaining family can live peacefully.

Letter to Goswami Tulsidas ji….

The remorse of mind of Maharana Vikramaditya was making the mutual relations of the family unhappy. Meera’s indifference was increasing on seeing the atmosphere devoid of harmony. Devotion to Pranaradhya remains intact, even if all other relations are severed. I was not able to understand what to do in the critical situation of the family, from whom to take advice. Meera wrote to him in a letter after hearing the devotion-glory and fame of Ram devotee Goswami Tulsidas ji-

Swasti Shri Tulsi Kul Bhushan Dushan Haran Gunsai.
Let me bow down for the twelfth time, now everyone is crying.
The relatives of the house increased the title of all of us.
Doing other bhajans with the saints, you will be attracted by the kles mahai.
Girdhar Lal Mittai was not Meera’s childhood friend.
I don’t get rid of sleep now, why am I engaged in passion ॥
You are like my mother and father, devotee of Hari, happiness.
Where did you tell me, now write appropriately, explain.

By writing a letter, Meera called Mr. Sukhpal Brahmin and said – ‘Pandit ji! You will go and give this letter to Maharaj Shri Tulsidas Gunsai ji. Request him with folded hands and say on my behalf that I have asked you for your advice considering me as a father, so order whatever you think is right for me. The flame of devotion that has started since childhood, will not be able to go away now. It will go with the soul only. Satsang is the soul of devotion and the people of the house are enemies of satsang. My getting up and sitting, singing, dancing and talking with the saints seems like a gross stigma to them. They always find new ways to trouble me. It is the religion of a woman that she should not leave the house, should not leave the house, should not leave the modesty, should not commit unrighteousness, according to her opinion, I have left everything except the house. Now you order what is the reason for me? Whatever they say after listening to my request, you please come soon after taking that answer, I will keep on walking the path.
‘Pan Hukam! Where will you get Tulsi Gusai? Where did he sit for this time?’- Pandit ji asked.
The day before yesterday a saint had come from Chitrakoot. He also praised me in a free voice and told me about Tulsi Gunsai ji’s devotion, quietness, poetic power etc. Telling his life story, he told that at present he devotee Shiromani is sitting in Chitrakoot. You come there, I will wait for you like a thirsty person waits for water.’ Meera’s eyes filled with tears while saying this.
‘Sant par Sai ubho hai hukam, aap chinta mati karavau (Sai’s order is on truth. You should not worry)’- Shri Sukhpal Brahmin left after blessing Meera.

Go dear Ram Baidehi.
Tajiye Tahi Koti Koti Enemy Sama Jayyapi Supremely Affectionate ॥
Tajyo father Prahlad Vibhishan brother Bharat Mahtari.
Bali Guru Tajyo Kant Brajbanitani Bhaye Mud Mangalkari ॥
Nato Neh Ram So Maniyat Suhrad Susevya Laun.
Anjan, where should I tell my daughter-in-law when my eyes burst?
Tulsi is like everything, it is for the ultimate benefit, you are dear to your life.
Don’t let our affection for Ram increase like this.

Meera was thrilled to read Tulsidas ji’s letter brought by Mr. Sukhpal Brahmin. He closed his eyes. Pearls of joy started falling from his closed eyes. After a while he got up and placed his head at the feet of Shri Sukhpal Brahmin – ‘What should I look at? There is no such thing that I can give you in return for this favor.’ – Then he said with a full voice – ‘You have hanged me. The Lord will hang your life. May the Lord grant you his rare devotion by removing your poverty, this is auspicious wish.
respectively

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