अष्टमी तिथि, बुधवार, 6 सितंबर रोहिणी, नक्षत्र, कृष्ण पक्ष, भाद्रपद अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी,शिशु रूप धारण कर माता देवकी की गोद में आ रूदन कर रहे हैं।जन्माष्टमी महोत्सव
“माता ! मैं आ रहा हूँ”- कंस के कारागार में बंद देवकी के कानों में एकाएक यह कैसा, किसका मिश्री-सम मृदुल स्वर झंकृत हो उठा कि दीन, हीन, मलीन सी देवकी सहसा चौंक उठी। उठ कर दर्पण में अपना मुख निरख, साश्चर्य, अन्तर्मन मन टटोलने सम भाव-यह कैसी अद्भुत दिव्य कान्ति?
कंस के कारागार में बंद असहाय, बेबस, मरण सम अवस्था में भी यह आलौकिक सी प्रतीत होती अनोखी ज्योति कहाँ से आई मेरे मुख पर? अनायास ही उनके प्रश्न वाचक नेत्र वासुदेव जी की ओर उठ गये। मौन सहमति है वासुदेव जी के नेत्रों भी, देवकी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही दिव्य कान्ति मय आभा से प्रदीप्त हो रहा है।
तो क्या रात्रि का स्वप्न, स्वप्न नहीं एक सत्य है। देवकी के स्मृति-पटल पर गत रात्रि का स्वप्न चलचित्र की भाँति उभरने लगा- कैसा पारलौकिक, अविस्मरणीय, अद्भुत, दैदिप्यमान स्वरूप-
“मस्तक पर रत्न जड़ित मुकुट, सौंदर्य की छटा बिखेरता पीताम्बर, वृक्षस्थल पर भृगु-लता, शंख-चक्र-गदा-पद्म हस्त सुशोभित”
देवकी के नेत्र चकाचौंध हो गये उस पारलौकिक आभा की छिटकती रजु रश्मियों से, कर्ण- गुंजित हो रहा था मधु मिश्रित अति कोमल मंद स्वर-
“माता ! मैं आ रहा हूँ तुम्हारे शिशु के रूप में”
वासुदेव जी और देवकी को सज्ञान हो गया कि परमिपता परमेश्वर, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी की अवतार-धारण-शुभ बेला निकट आ गई है। कंस-संहारक, संत उद्धारक श्री हरि के गर्भ-निवास ने ही देवकी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को शरद-पूर्णिमा-चंद्र सम दिव्य प्रकाश मान बना दिया है। अविनाशी परम पुरूष आगमन के ही यह लक्षण हैं।मुनिगण, सुरगण, यक्ष, किन्नर, देवता सभी के मुख-कमल प्रसन्नता से खिल रहे हैं। वासुदेव जी एवं देवकी का शोक रूपी अंधकार हटने लगा।
अष्टमी तिथि, बुधवार, रोहिणी, नक्षत्र, कृष्ण पक्ष, भाद्रपद अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी, शिशु रूप धारण कर माता देवकी की गोद में आ रूदन कर रहे हैं। करोड़ों के उद्गारक, करोड़ों के संहारक, रहस्य मय प्रभु शिशु रूप, श्री कृष्ण को वासुदेव जी, प्रभु की आज्ञाअनुसार यमुना पार गोकुल, श्री नंद राय जी एवं यशस्वनि यशोदा जी के यहाँ, बृजभूभि के आनन्द कंद स्वरूप पहुँचा आये हैं।
मैया यशोदा के सोहर में एक दिव्य पारलौकिक अनोखी सुगंध महकने लगी। गोकुल निवासियों के पुण्य पूर्ण हो गये, उन्हें उनके पुण्यों का सौ सौ गुना अधिक फल मिलने लगा है।
अर्धमूर्छित अवस्था से चेतन अवस्था में जागृत होते ही, नन्हे नवजात शिशु को निरख यशोदा जी का कंठ गदगद हो गया, अंग अंग पुलकित हो उठा, नंदराय जी के हृदय में आनन्द ही आनन्द।
एकाएक गोकुल में इतनी शोभा, ऐसा सौंदर्य गली-गली, बीथिन-बीथिन प्रवाहित होने लगा, मानों सौंदर्य की नदियाँ बही जा रहीं हो, सागर उफाने ले रहा हो।
बृज में गोप गोपी निवासियों के साथ साथ पशु-पक्षी, जल-थल, पेड़पौधे, लता वल्लरी, कुँज-निकुँज, कीट-पतंग एवं सर्व प्रमुख बृज की रज सबके अन्तर्मन से एक ही अंतरंग शुभाशीष निकल रहा है-
“सौभाग्य और सुहाग से परिपूर्ण श्री बृजराज रानी यशस्वनि यशोदा जी की कोख धन्य है धन्य है”
आज बृजभूमि फलित हुई है। सबके मन की वेदनायें दूर हुई हैं। आज बृजभूमि ने उस आनन्द धन को प्राप्त कर लिया है, जिसे अनन्त काल तक तप करके तपस्वी एवं ऋषि मुनि भी प्राप्त नहीं कर पाते।