भक्त सिलपिल्ले बाई जी

कृष्ण जी की सच्ची भक्त सिलपिल्ले बाई की कथा

भगवान और भक्त का रिश्ता एक प्रेम का रिश्ता होता है तो देखिए कैसे? इस प्रेमी भक्त की सच्ची भक्ति के लिए एक पत्थर से भगवान को प्रकट होना पड़ा!


हम जब भक्त नामावली का गान करते हैं, तो उसमें सिलपिल्ले बाई जी का स्मरण आता है –
“सुत विष दियौ पूजि सिलपिल्ले,

भक्ति रसीली पाई”। यह कथा उन्हीं सिलपिल्ले बाई जी की है।
एक थीं राजकुमारी, और दूसरी एक जमींदार की पुत्री – दोनों में मित्रता थी। एक दिन राजा के यहाँ भगवत प्रेमी महात्मा आए ।

राजा स्वयं संत सेवी थे। उनके यहाँ महात्मा जन आते रहते थे।
महात्माओं का कार्य ही होता है – निरंतर अपने प्रभु की सेवा
और सुमिरन में मग्न रहना।

उन संत के पास भगवान का शालिग्राम स्वरूप था, जिसकी वे भावपूर्वक सेवा कर रहे थे। और वह दोनों बालिकाएं उन्हें श्रद्धा से देख रही थीं। उनके मन में आया – ऐसे ही हम भी ठाकुरजी की सेवा करेंगे। संत भगवान कई दिन वहाँ रुके। रोज सेवा, कीर्तन, और कथा होती रही।

एक दिन उन दोनों सखियों ने मिलकर निश्चय किया कि संत भगवान से निवेदन करें – “हमको भी ठाकुर जी दीजिए।” दोनों ने संत के चरण पकड़कर प्रार्थना की-

“गुरुदेव, हमारे हृदय में भी यह इच्छा जागी है कि हमें ठाकुरजी की सेवा प्राप्त हो।”

अब दोनों बालिकाएं थीं, संत भगवान ने विचार किया सेवा की पद्धति में बहुत सावधानी आवश्यक होती है। अभी ये बालिकाएं हैं, कहीं सेवा में कोई अपराध न हो जाए। उन संत भगवान ने दोनों बच्चियों से कहा, – “कल हम ठाकुरजी लाएँगे और तुम्हें दे देंगे।” अगले दिन वे गाँव में घूमे पास ही गोल-गोल से कुछ पत्थर मिले, उन्हें उठाकर लाए और कहा, “लो, ये तुम्हारे ठाकुर जी हैं।”

दोनों बच्चियों ने दृढ़ विश्वास किया कि गुरुदेव ने जो दिया है, वही हमारे भगवान हैं। उन्होंने उन पत्थरों को ही भगवान मानकर अपने हृदय से लगा लिया। अब एक जमींदार की पुत्री थी और दूसरी राजकुमारी। उन्होंने स्वर्ण के सिंहासन बनवाए और अपने ठाकुर जी को उस पर विराजमान किया। गुरुदेव ने उनके ठाकुरजी का नाम रखा – सिलपिल्ले ठाकुर । दोनों बालिकाएं सिंहासन पर ठाकुर जी को स्थापित कर उनकी आराधना करती
रहीं। प्रभु के प्रति उनका भाव निरंतर बढ़ता गया, और ठाकुर जी का नाम-जप उनके जीवन का अंग बन गया । गुरु- प्रदत्त ठाकुर से विशेष चमत्कार प्रकट होते हैं – यदि उनकी सेवा गुरु द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार की जाए।

जब ये सखियाँ बड़ी हुईं, तो उनके विवाह की चर्चा होने लगी। सिलपिल्ले बाई (अर्थात् राजकुमारी) का विवाह एक राजकुमार से तय हुआ और विवाह सम्पन्न हो गया। जब उन्होंने अपने माता-पिता से विदाई ली, तो अपने ठाकुरजी को, जो सिंहासन पर विराजमान थे, एक सुंदर पेटी में रखकर अपनी गोद में ले गईं।

उनका हृदय भीतर ही भीतर जल रहा था – “प्रभु! मैंने तो आपको ही अपना प्रीतम माना है। संसार के व्यवहार में यह व्यक्ति मेरा पति कहलाता है, परंतु मेरे हृदय के प्रियतम तो आप ही हैं। दो प्रीतम कैसे हो सकते हैं? मैंने तो आपको ही समर्पण किया है।” इन्हीं विचारों में डूबी हुई, वह बड़ी उदासी के साथ विदा हो रही थीं।

वे पालकी में बैठी थीं, उनके साथ राज-सैनिक चल रहे थे, और राजकुमार घोड़े पर आगे-आगे था। राजकुमार बार-बार पालकी के समीप आता, यह देखने के लिए कि उनकी नवविवाहिता राजकुमारी कैसी हैं? लेकिन हर बार उन्हें बहुत उदास देखता। यह देखकर उसके मन में ग्लानि होने लगी।

रास्ते में एक नदी आई। राजकुमार ने सैनिकों से कहा – “यहाँ थोड़ी देर विश्राम करेंगे। राजकुमारी की पालकी यहीं रखी जाए और आप सब कुछ दूरी पर खड़े रहें ।” राजकुमार सिलपिल्ले बाई से बात करना चाहता था, परंतु वह न तो उसकी ओर देखतीं, न ही कोई उत्तर देतीं। वह अत्यंत सुंदर थीं। राजकुमार के मन में जलन होने लगी – “आख़िर ऐसा क्या है!, जो यह मुझसे बात तक नहीं कर रहीं?” वो बार-बार अपनी पिटारी खोलतीं और ठाकुरजी के दर्शन करतीं। नाम-जप और सेवा के प्रभाव से अब वह सिल
(अर्थात् पत्थर), सिर्फ पत्थर नहीं रह गया था। उन्हें उसमें श्यामसुंदर भगवान की झाँकी दिखने लगी थी।

जब भी वे अपने सिलपिल्ले ठाकुरजी को देखतीं, उन्हें ललित त्रिभंगी श्री श्यामसुंदर की मनोहर मूर्ति दिखाई देती। उनका हृदय ठाकुरजी से अत्यंत आसक्त हो गया था – सम्पूर्ण प्रीति, सम्पूर्ण समर्पण।

अब राजकुमार समझ गया कि सिलपिल्ले बाई और उसके बीच जो भी दूरी है, उसका कारण वही पिटारी है जो राजकुमारी की गोद में रखी है। उसने कुछ दासियों को बुलाया और कहा, “इन्हें बातों में उलझाओ और वह पिटारी मुझे लाकर दो।” वे दासियाँ प्रवीण और चतुर थीं।

उन्होंने सिलपिल्ले बाई को विनोद-भरी बातों और हँसी-मज़ाक में उलझाने की कोशिश की, परन्तु सिलपिल्ले बाई उदासीन बनी रहीं। फिर भी, एक दासी ने धीरे से उनकी गोद से वह पेटी ले ली और राजकुमार को दे दी।

राजकुमार ने कहा – “यही तो वो चीज़ है, जो हमारे और तुम्हारे बीच में बाधा बनी हुई है!” यह कहकर उसने वह पेटी नदी में फेंक दी। अब जो पीड़ा सिलपिल्ले बाई के हृदय में उठी, वह असहनीय थी। उनका हृदय तड़प उठा, वे अत्यंत व्याकुल हो गईं। राजकुमार ने तुरंत सैनिकों को आदेश दिया और सिलपिल्ले बाई को पालकी में बैठाकर महल ले गया।

महल पहुँचकर सिलपिल्ले बाई बोलीं – “यदि मेरे ठाकुर जी नहीं, तो मैं भी नहीं। मैं आज से अन्न-जल का त्याग करती हूँ । यदि ठाकुरजी मेरे समीप नहीं होंगे, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगी। आज से एक भी बूँद पानी भी नहीं लूँगी। कैसे लूँ? मैंने तो हर निवाला अपने ठाकुरजी को भोग लगाकर ही ग्रहण किया है। और अब मेरे ठाकुरजी को नदी में फेंक दिया गया है। यह मेरे लिए असहनीय है।” अब राजकुमार भयभीत हो गया। पूरा महल इस विषाद से भर गया कि यदि नवीन राजकुमारी ने प्राण त्याग दिए तो लोक- समाज क्या कहेगा? सब यही कहेंगे कि –

“नई राजकुमारी ससुराल गई और वहाँ के लोगों ने ऐसा निर्दय व्यवहार किया कि उसने प्राण ही त्याग दिए !” राजकुमार ग्लानि से भर गया। वह सिलपिल्ले बाई के सामने घुटनों पर आ गया और बोला- “मैं आपको दुखी नहीं करना चाहता था, लेकिन मैं आपको छोड़ भी नहीं सकता। कृपया आप ही कोई उपाय बताइए जिससे आप मुस्कुरा दें, प्रसन्न हो जाएँ।”

सिलपिल्ले बाई ने शांत किंतु दृढ़ स्वर में कहा – “हम अपने ठाकुरजी के बिना जीवित नहीं रह सकते। यदि आप हमें जीवित देखना चाहते हैं, तो हमारे ठाकुरजी को वापस लाकर दीजिए।” अब ठाकुरजी को तो नदी में फेंक दिया गया था। वे कैसे वापस आ सकते थे? फिर भी, राजकुमार अपने पारिवारिक जनों के साथ उस नदी के तट पर गया। वहाँ पहुँचकर उसने सिलपिल्ले बाई से कहा – “तुम्हें ठाकुरजी से जितना प्रेम है, यदि सच में वैसा ही प्रेम ठाकुरजी को भी तुमसे है, तो मुझे उसका प्रमाण दो। यदि वह प्रेम सच्चा है, और तुम मुझे उसका प्रमाण दिखा दो, तो
मैं जीवन भर तुम्हारी आज्ञा में रहूँगा।”

सिलपिल्ले बाई ने शांत स्वर में कहा- “अच्छा, तो आप यह देखना चाहते हो कि मेरे ठाकुरजी मुझसे कितना प्रेम करते हैं?” उसने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर फैलाए और आर्त भाव से पुकार उठी – “हे गोविंद! अब आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकती। यदि आप सचमुच मेरे प्रीतम हैं, तो प्रकट होकर मुझे अपने दर्शन दीजिए।”

उसकी यह प्रार्थना हृदय की गहराई से निकली थी। उसके शब्दों में समर्पण था, वेदना थी, और प्रगाढ़ प्रेम था। और तभी… नदी के जल से एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ। उस प्रकाश में सिंहासन सहित सिलपिल्ले ठाकुरजी प्रकट हुए – और आकाश मार्ग से उड़ते हुए सीधे सिलपिल्ले बाई की छाती से आकर चिपक गए।

यह चमत्कारी दृश्य देखकर सारा परिवार, राजकुमार और वहाँ उपस्थित सभी लोग स्तब्ध रह गए। राजकुमार की आँखों से आँसू बहने लगे। वह सिलपिल्ले बाई के चरणों में झुक गया और बोला “अब मुझे सब समझ आ गया।

मैं जीवन भर आपकी आज्ञा में रहूँगा। जैसा आप कहेंगी, वैसा ही करूँगा। मैंने आज सच्चा प्रेम और सच्चे प्रभु को देखा है।”

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