मैंने सुना है, अकबर ने तानसेन को एक बार कहा कि तुम्हारा संगीत अपूर्व है। मैं सोच भी नहीं सकता कि इससे श्रेष्ठ संगीत कहीं हो सकता है। या कोई इससे श्रेष्ठ संगीत पैदा कर सकेगा। लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बार-बार उठ आता है कि तुमने किसी से सीखा होगा, तुम्हारा कोई गुरु होगा। अगर तुम्हारे गुरु जीवित हों तो एक बार उनका संगीत सुनना चाहता हूं, उन्हें दरबार में बुलाओ।
तानसेन ने कहा, यह जरा कठिन बात है। गुरु मेरे जीवित हैं, लेकिन उन्हें बुलाना मुश्किल है। वे फकीर आदमी हैं।
फकीर हरिदास उनके गुरु थे।
वे गाते हैं अपनी मौज से, बजाते हैं अपनी मौज से, क्योंकि वे आदमियों के लिए नहीं बजाते और आदमियों के लिए नहीं गाते। वे परमात्मा के लिए गाते और परमात्मा के लिए बजाते हैं। तो जब उनकी मौज होती है तब। और दरबार में तो उनको न लाया जा सकेगा। फरमाइश पर तो वे गाते ही नहीं, गा ही नहीं सकते। वे कहते हैं, परमात्मा करे फरमाइश तब मैं गाता हूं। इसलिए जरा मुश्किल है। आप चलने को राजी न होंगे, उन्हें लाया नहीं जा सकता। और यह भी कुछ पक्का नहीं है कि वे कब गाएं, रोज उनका कुछ बंधा हुआ नियम नहीं है।
प्रार्थना के कहीं बंधे हुए नियम हो सकते हैं! प्रेम के कहीं बंधे हुए नियम हो सकते हैं! प्रेम तो सब नियम तोड़ कर बहता है। प्रेम तो बाढ़ की तरह है–कूल-किनारे सब तोड़ देता है।
तो कभी वे दो बजे रात उठ आते हैं और गाते रहते हैं, गाते रहते हैं, घंटों बीत जाते हैं, सूरज निकल आता है, दोपहर हो जाती है और मस्त नाचते रहते हैं। और कभी दो-चार दिन सन्नाटा ही रहता है, उनके झोपड़े पर कोई स्वर नहीं उठता। कभी शून्य का नैवेद्य चढ़ाते परमात्मा को, कभी संगीत का चढ़ाते हैं। मगर यह सब अनिश्चित है।
हरिदास स्वतंत्र वृत्ति के हैं; स्वच्छंद हैं; संन्यासी हैं।
संन्यासी का अर्थ ही होता है स्वच्छंद, जो अपने भीतर के छंद से जीता हो।
अकबर ने कहा कि तुमने मुझे और लुभा दिया। सुनना तो होगा ही, कुछ भी उपाय हो। तुम पता लगाओ। मैं आधी रात भी चलने को राजी हूं।
लेकिन तानसेन ने कहा, एक और आखिरी बात झंझट की है कि अगर कोई पहुंच जाए वे तत्क्षण रुक जाते हैं, चुप हो जाते हैं। तो चोरी से सुनना पड़ेगा। झोपड़े के बाहर छिप कर सुनना पड़ेगा। हम जब उनके विद्यार्थी भी उनके पास थे तो छिप कर ही सुनते थे। हमें सिखाते थे, वह तो ठीक था। लेकिन जब वे खुद अपनी मस्ती में, अपनी रौ में आते थे तो हमें छिप कर सुनना पड़ता था। सामने पहुंच जाओ, वे रुक जाते। बात ही गई।
तो रात अकबर और तानसेन, दो बजे रात, छिप गए हरिदास के झोपड़े के पास। वे आगरा में यमुना के किनारे रहते थे। तीन बजे रात वह अपूर्व संगीत शुरू हुआ हरिदास का। अकबर डोलने लगा। उसकी आंख से आंसू ही बहे जाते। पांच बजे बंद हुआ संगीत। जब वे लौटने लगे महल की तरफ, तो अकबर बिलकुल चुप रहा, कुछ बोला ही नहीं। यह बात कुछ ऐसी थी कि इसके संबंध में कुछ भी कहना छोटा होगा, ओछा होगा। यह इस जगत का संगीत न था। यह सेज परमात्मा के लिए बिछाई गई थी। यह श्रृंगार परमात्मा के लिए किया गया था। यह तो बात ही अलौकिक थी। यह अपार्थिव थी बात। यह स्वर्ग का संगीत था। इसके संबंध में क्या कहो! कुछ कहने को न था। एक सन्नाटा रहा।
जब महल आ गया और अकबर उतर कर महल की सीढ़ियां चढ़ने लगा और उसने तानसेन को विदा दी, तब उसने इतना ही कहा: तानसेन, अब तक मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं है; आज मैं सोचता हूं तुम्हारे गुरु के सामने तुम तो कुछ भी नहीं हो। आज मैं बड़ी बेचैनी में पड़ गया हूं। अब तक सोचता था तुम्हारे सामने कोई भी कुछ नहीं है; आज बड़ी मुश्किल हो गई है। आज तुम्हें देखता हूं तो तुम्हारा संगीत तो साधारण मालूम होता है। तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कोई भी नहीं हो, कुछ भी नहीं हो। तुम्हारा उनसे क्या मुकाबला! अब तक सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं; अब सोचता हूं तुम्हारा उनसे क्या मुकाबला! इतना फर्क क्यों है? और जो तुम्हारे गुरु के जीवन में हो सका, तुम्हारे जीवन में क्यों नहीं हो पाया?
तानसेन ने कहा: कठिन नहीं है मामला, सीधा-साफ है। मैं बजाता हूं आपके लिए; मेरे गुरु बजाते हैं परमात्मा के लिए। मैं बजाता हूं कुछ पुरस्कार पाने के लिए। क्षुद्र पुरस्कार–धन, पद, प्रतिष्ठा। मेरे गुरु बजाते हैं अहोभाव से, किसी पुरस्कार को पाने के लिए नहीं। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; मेरे गुरु बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उस पाने से बजना उठता है। मैं तो भिखारी हूं, वे सम्राट हैं। 🌹🌹🌹ओशो 🌹🌹🌹
I have heard, Akbar once told Tansen that your music is unique. I cannot even imagine that this can lead to the best music. Or someone will be able to produce the best music from it. But a question arises in my mind again and again that you must have learned from someone, you will have a guru. If your guru is alive, I want to listen to their music once, call them in the court.
तानसेन ने कहा, यह जरा कठिन बात है। गुरु मेरे जीवित हैं, लेकिन उन्हें बुलाना मुश्किल है। वे फकीर आदमी हैं। फकीर हरिदास उनके गुरु थे। वे गाते हैं अपनी मौज से, बजाते हैं अपनी मौज से, क्योंकि वे आदमियों के लिए नहीं बजाते और आदमियों के लिए नहीं गाते। वे परमात्मा के लिए गाते और परमात्मा के लिए बजाते हैं। तो जब उनकी मौज होती है तब। और दरबार में तो उनको न लाया जा सकेगा। फरमाइश पर तो वे गाते ही नहीं, गा ही नहीं सकते। वे कहते हैं, परमात्मा करे फरमाइश तब मैं गाता हूं। इसलिए जरा मुश्किल है। आप चलने को राजी न होंगे, उन्हें लाया नहीं जा सकता। और यह भी कुछ पक्का नहीं है कि वे कब गाएं, रोज उनका कुछ बंधा हुआ नियम नहीं है। प्रार्थना के कहीं बंधे हुए नियम हो सकते हैं! प्रेम के कहीं बंधे हुए नियम हो सकते हैं! प्रेम तो सब नियम तोड़ कर बहता है। प्रेम तो बाढ़ की तरह है–कूल-किनारे सब तोड़ देता है। तो कभी वे दो बजे रात उठ आते हैं और गाते रहते हैं, गाते रहते हैं, घंटों बीत जाते हैं, सूरज निकल आता है, दोपहर हो जाती है और मस्त नाचते रहते हैं। और कभी दो-चार दिन सन्नाटा ही रहता है, उनके झोपड़े पर कोई स्वर नहीं उठता। कभी शून्य का नैवेद्य चढ़ाते परमात्मा को, कभी संगीत का चढ़ाते हैं। मगर यह सब अनिश्चित है। हरिदास स्वतंत्र वृत्ति के हैं; स्वच्छंद हैं; संन्यासी हैं। संन्यासी का अर्थ ही होता है स्वच्छंद, जो अपने भीतर के छंद से जीता हो। अकबर ने कहा कि तुमने मुझे और लुभा दिया। सुनना तो होगा ही, कुछ भी उपाय हो। तुम पता लगाओ। मैं आधी रात भी चलने को राजी हूं। लेकिन तानसेन ने कहा, एक और आखिरी बात झंझट की है कि अगर कोई पहुंच जाए वे तत्क्षण रुक जाते हैं, चुप हो जाते हैं। तो चोरी से सुनना पड़ेगा। झोपड़े के बाहर छिप कर सुनना पड़ेगा। हम जब उनके विद्यार्थी भी उनके पास थे तो छिप कर ही सुनते थे। हमें सिखाते थे, वह तो ठीक था। लेकिन जब वे खुद अपनी मस्ती में, अपनी रौ में आते थे तो हमें छिप कर सुनना पड़ता था। सामने पहुंच जाओ, वे रुक जाते। बात ही गई। तो रात अकबर और तानसेन, दो बजे रात, छिप गए हरिदास के झोपड़े के पास। वे आगरा में यमुना के किनारे रहते थे। तीन बजे रात वह अपूर्व संगीत शुरू हुआ हरिदास का। अकबर डोलने लगा। उसकी आंख से आंसू ही बहे जाते। पांच बजे बंद हुआ संगीत। जब वे लौटने लगे महल की तरफ, तो अकबर बिलकुल चुप रहा, कुछ बोला ही नहीं। यह बात कुछ ऐसी थी कि इसके संबंध में कुछ भी कहना छोटा होगा, ओछा होगा। यह इस जगत का संगीत न था। यह सेज परमात्मा के लिए बिछाई गई थी। यह श्रृंगार परमात्मा के लिए किया गया था। यह तो बात ही अलौकिक थी। यह अपार्थिव थी बात। यह स्वर्ग का संगीत था। इसके संबंध में क्या कहो! कुछ कहने को न था। एक सन्नाटा रहा। जब महल आ गया और अकबर उतर कर महल की सीढ़ियां चढ़ने लगा और उसने तानसेन को विदा दी, तब उसने इतना ही कहा: तानसेन, अब तक मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं है; आज मैं सोचता हूं तुम्हारे गुरु के सामने तुम तो कुछ भी नहीं हो। आज मैं बड़ी बेचैनी में पड़ गया हूं। अब तक सोचता था तुम्हारे सामने कोई भी कुछ नहीं है; आज बड़ी मुश्किल हो गई है। आज तुम्हें देखता हूं तो तुम्हारा संगीत तो साधारण मालूम होता है। तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कोई भी नहीं हो, कुछ भी नहीं हो। तुम्हारा उनसे क्या मुकाबला! अब तक सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं; अब सोचता हूं तुम्हारा उनसे क्या मुकाबला! इतना फर्क क्यों है? और जो तुम्हारे गुरु के जीवन में हो सका, तुम्हारे जीवन में क्यों नहीं हो पाया? तानसेन ने कहा: कठिन नहीं है मामला, सीधा-साफ है। मैं बजाता हूं आपके लिए; मेरे गुरु बजाते हैं परमात्मा के लिए। मैं बजाता हूं कुछ पुरस्कार पाने के लिए। क्षुद्र पुरस्कार–धन, पद, प्रतिष्ठा। मेरे गुरु बजाते हैं अहोभाव से, किसी पुरस्कार को पाने के लिए नहीं। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; मेरे गुरु बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उस पाने से बजना उठता है। मैं तो भिखारी हूं, वे सम्राट हैं। 🌹🌹🌹ओशो 🌹🌹🌹












