मीरा हँस पड़ी- ‘ऐसा न करना हो। भगवान् धरती पर पधारते हैं तो उन्हें देखकर, छूकर, सुनकर, कैसे भी उनसे जुड़कर कितनोंका कल्याण होता है ! मैं तो कहती हूँ कि भला हो उनका, जो अपने बलपर भगवान को खींच लाते हैं।’
‘अरे जीजा! आप अन्यायका समर्थन कर रही हैं?’
‘मैं विरोध या समर्थन कुछ नहीं करती भाई! किन्तु सोचो तनिक कि प्रभु के पधारने में मुख्य निमित्त तो वे ही हैं। क्या हिरण्यकशिपु, रावण, कंस कम वंदनीय हैं?’
‘बाप रे! यह नयी बात क्या सुन रहा हूँ? क्या यह बात बाबा बिहारीदासजीने बतायी है आपको?’
‘मुझे बताया किसीने नहीं। मैं उनके अत्याचारोंका समर्थन नहीं करती। उनके द्वारा सताये गये दीनों की पुकार प्रभु को आने के लिये विवश कर देती है, यही तो सब कहते हैं। यदि सताने वाले ही न हों तो क्या भगवान का अवतार होगा? चुपचाप खेलते हुए बच्चेकी ओर माँ ध्यान देगी क्या? बीमारी, भूख या किसी के सताने के कारण जब बालक रो उठता है, तभी तो वह सौ काम छोड़कर दौड़ी आती है उसका उपचार करने, उसे गोदमें उठाने, उसे बचानेके लिये। कहो, वह कारण क्या कुछ नहीं है?
‘तो हम उसकी पूजा करने लगें?’
‘नहीं; मेरी बात आप समझते क्यों नहीं? वे बेचारे…. पर…. हाँ…. जो…. आते हैं, वे तो सब जानते हैं। ठीक है भाई! हमें उनकी ओर ध्यान देनेकी आवश्यकता नहीं है। गुरुजी कहते थे कि तुम जिसका चिन्तन करते हो, उसके गुण-अवगुण तुममें आ जाते हैं। श्रेष्ठका चिन्तन ही उचित है। दुष्टोंकी दुष्टताका पुरस्कार तो उन्हें मिल ही जाता है।’
लीलानुभूति और अभिव्यक्ति…….
मीरा ने शीघ्र ही शस्त्रास्त्रों और अश्वचालन की आवश्यक योग्यता ग्रहण कर ली। अब वह अधिक समय ‘श्यामकुंज’ में बिताने लगी। पूजाके पश्चात् वह सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तनमें खो जाती।
वर्षा के दिन थे। चारों ओर हरितिमा छायी हुई थी। ऊपर गगनमें मेघोंकी धक्का-मुक्की से उनका हृदय-रस बरस करके धरा को सिक्त कर रहा था। आँखें मूंदे हुए मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है। बंद नयनोंके सम्मुख उमड़ती हुई कालिन्दी के जल में एक हाथ से भरी हुई मटकी को थामे बैठी है। काले जलमें श्यामसुन्दर की परछाँही देखकर वह पलक झपकाना भूल गयी। यह रूप…. ये कारे-कजरारे दीर्घ दृग….।
मटकी हाथसे छूट गयी और उसके साथ वह भी न जाने कैसे जलमें जा गिरी। उसे लगा कोई जल में कूद गया है और दो सशक्त बाहुओंने उसे जल से ऊपर उठा लिया। वह देह-गंध…. वह स्पर्श….! किन्तु कौन है यह उपकारी? उसने साहस कर नेत्र उघाड़े….। यह तो उसी प्रतिबिम्बका बिम्ब है। वह उसे उठाये हुए घाटकी सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ उसी की ओर देख रहा था। उसे सचेत हुई देख वह अकारण उपकारी मुस्कुरा दिया धीरे से। वह यह निर्णय नहीं कर पायी कि कौन अधिक मारक है-दृष्टि या मुस्कान? निर्णय हो भी कैसे? बुद्धि न जाने कहाँ लोप हो गयी। लज्जा ने देह जड़ कर दी और मन? आह, वह हत्यारा, उसकी बात न पूछो। न जाने किस जन्मका बैर लिया। अपना स्थान छोड़कर उन बड़ी-बड़ी आँखोंमें जा समाया।
‘ऐसे कैसे जा गिरी जलमें?’
लाज के मारे जीभ खुलती ही न थी। कैसे, क्या कहे? शिलाके सहारे उसे बिठाकर वे घड़ा निकाल लाये जलसे। समीप रखते बोले- ‘थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं घड़ो उठवाय दूंगो। कहा नाम है री तेरो? बोलेगी नाय? मो पै रुष्ट है? भूख लगी है का? तेरी मैयाने कछु खवायो नाय? ले, मो पै फल हैं; खायेगी?’
उन्होंने फेंट से बड़ा-सा अमरूद और थोड़े जामुन निकालकर मेरे हाथ पर धर दिये—’ले खा।’
मैं क्या कहूँ? मन, प्राण, देह सब अवश हो गये थे। उनकी बात के उत्तरमें केवल दो आँसू ढुलक पड़े नेत्रों से।
‘अरे त रोवे च्यों (क्यों ) है? रोवे मत ना। मोसे सह्यो ना जाय।’ अपने हाथसे मेरे मुखपर लटकती केशोंकी लट को एक ओर करके अति स्नेहपूर्ण स्वर में आग्रह किया—’बोलेगी नाय मो सो?’
मेरे होंठ फड़फड़ा कर रह गये, वाणी को लज्जा ने बाँध दिया।
‘कहा नाम है तेरो?’
‘मी…. रा….’ बहुत खींचकर कह पायी मैं। वे खिलखिलाकर हँस पड़े। मुझे बाँहों में भरकर बोले- ‘कितनो मधुर स्वर है तेरो री! देख तेरे बोलते ही मेघ बरस उठे। शीत तो नहीं लग रहा? ले यह !’
‘श्यामसुन्दर ! कहाँ गये प्राणाधार!’-वह एकाएक चीख उठी। समीपकी फुलवारीमें बैठी चम्पा और चमेली दौड़कर आयीं और देखा कि मीरा की आँखों से झर-झर अश्रु झर रहे हैं। वह बहुत व्याकुल थी।
दोनोंने मिलकर शीघ्रतापूर्वक शय्या बिछायी और उसे उसपर सुलाया। चमेलीने दौड़कर दूदाजीको सूचना दी; वे आये। पंखा झलती हुई चम्पा एक ओर हट गयी। ‘क्या हुआ बेटी?’-उन्होंने मस्तकपर हाथ फेरते हुए पूछा।
‘कहाँ गये तुम? मुझे छोड़कर कहाँ चले गये?’-मीराने व्याकुल स्वरमें कहा।
उसी समय बाबा बिहारीदासजी भी आ गये। दूदाजीने उनकी ओर संकेत करते हुए फिर कहा-‘आँखें खोल बेटा! देख कौन आये हैं?’ उसने धीरेसे आँखें उघाड़ी और दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए आँसू ढरकाती हुई धीमे स्वरमें बोली- ‘आप कौन हैं? मैं यहाँ कैसे आ गयी? मेरे श्यामसुन्दर कहाँ हैं?’ चारों ओर दृष्टि फेरकर और पुन: निश्वास छोड़कर मीराने पलकें मूंद ली। बंद पलकोंके नीचेसे अश्रुधाराएँ बहने लगीं।
अब तो बाबा बिहारीदासजीका धैर्य भी छूट गया। श्रीराधे! श्रीराधे’ कहते हुए वे अश्रुपात करने लगे।
सायंकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपूरा लेकर गिरधर के सामने बैठ गयी। कुछ समय तक उँगलियों के स्पर्श से तार झंकृत होते रहे। फिर हृदयके उद्गार प्रथम बार पदके रूपमें प्रसरित होने लगे।
मेहा बरस बो करे रे, आज तो रमैयो म्हारे घरे रे।
नान्हीं नान्हीं बूंद मेघधन बरसे सूखा सरवर भरे रे।
घणा दिनाँ तूं प्रीतम पायो, बिछुड़न को मोहि डर रे।
मीरा कहे अति नेह जुड़ायो मैं लियो पुरबलो वर रे।
पद पूरा हुआ तो मीराका हृदय भी जैसे हलका हो गया।
क्रमशः