मीरा चरित भाग-29

मीरा ने एक बार और लौट जाना चाहा, किन्तु फूलाँ की जिद्द से विवश होकर वह साथ हो ली। यों तो मेड़ते के रनिवास में गिरजाजी, वीरमदेवजी की तीसरी पत्नी थीं, किन्तु पटरानी वही थीं। उनके ऐश्वर्यपूर्ण ठाट निराले ही थे। पीहर से आये लवाज में में पचासों दासियाँ और परम प्रतापी हिन्दुआ सूर्य की लाड़ली बहिन का वैभव और सम्मान यहाँ सबसे अधिक था। यहाँ तक कि दूदाजी और वीरमदेव भी उनका बहुत सम्मान करते थे।महलके मुख्य कक्ष में चाँदी से बने गंगा जमुनी काम के हिंगलाट (हिंडोला) पर वे सर्वाभरण भूषिता विराजमान रहतीं। उनकी दासियाँ भी सदा सजी-धजी नजर आतीं। उनकी रसोई से एक-एक थाल सदा सौतों और देवरानियोंके महलों में पहुँचता। दिन में एक बार वे अपनी बड़ी सौतों से अवश्य मिलतीं। वार-त्यौहार बड़ी सौतों के पाँव लगने जातीं, पर उस सारी विनम्रता, उदारता के बीच भी उनका ऐश्वर्य और दर्प सदा उपस्थित रहता। उनकी सरलता को ढोंग समझा जाता, उनकी ड्योढ़ीपर बैठे राणावत वीर अपनी मूँछें ऐंठते हुए वंश की गौरव-गाथा बखानते रहते। नित्य ही प्रात:-सायं दमामी ड्योढ़ीपर उपस्थित हो पितृ-वंशकी चार पीढ़ियोंके नाम लेते हुए विरद बखानते हुए प्रणाम करते–
‘गढ़ चित्तौड़ी कुँवरी ने घणीखम्भा, परथीनाथ अन्नदाता।’
गिरजाजी उन्हें आशीष के साथ दो मीठे बोल कहलवातीं और वे धन्य धन्य हो जाते।

मीरा उनकी बहुत दुलारी बेटी थी। ये उसकी सुन्दरता, सरलता पर जैसे न्यौछावर थीं। बस, उन्हें उसका आठों प्रहर ठाकुरजी से चिपके रहना नहीं सुहाता था। घर में तीन-चार विवाह हुए, पर मीरा कहीं नजर नहीं आयी। किसी भी नेग-चार में भाग लेने के लिये उसे श्यामकुंज से पकड़कर लाना पड़ता था। उसे बाँधने के तो दो ही पाश थे; भक्त-भगवंत चर्चा अथवा वीर गाथा।जब-जब गिरजाजी मीरा को पातीं, उसे बिठाकर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथा सुनातीं । बापा रावल (कालभोज, जो चित्तौड़ राजवंशके मूल पुरुष थे) की शिवभक्ति, शिव के द्वारा प्रदत्त चन्द्रहास खंग की प्राप्ति। काबुल और ईरान तक उनका राज्य विस्तार। सीसोदा के अधिपति का गुरु की आज्ञा से पिघला सीसा पान कर जाना। कुलदेवी बाणमाता की आज्ञा से राणा लाखा का अपने बारह पुत्रों का एक एक करके राज्याभिषेक कर रण में भेजना। गोरा-बादलकी वीरता, पद्मिनीका जौहर। हम्मीर की माता को बल-बुद्धि, हम्मीर का धर्म पालन, वीरता। चूँडा का राजपद त्याग और कर्तव्यपालन। कुम्भा, कुम्भा का चरित्र उसे सबसे अच्छा लगता, वे जैसे भक्त हृदय वैसे ही वीर, योग्य शासक, कलावंत, लेखक, कवि, क्या नहीं था उस नरसिंह में?
“कभी-कभी विधाताकी कलम कैसा सुन्दर अनोखा चित्र अंकित कर देती है!”….. वह सोचती।
कुम्भा के दूसरे पुत्र थे रायमल, इन्हीं रायमल की पुत्री हैं गिरजा जी और इनके भाई हैं महाप्रतापी साँगा (संग्रामसिंह) एक हाथ, एक पैर और एक आँख से हीन तथा अस्सी घाव के निशानों से भरी देह, किन्तु मातृभूमि और प्रजा, शरणागत के लिये प्राण हथेली पर लिये फिरने वाले एकलिंगनाथ के अवतार हों जैसे।

फूलाँ के साथ मीरा ने उनके निजी कक्ष में प्रवेश किया। उसने देखा कि किशन थाल लिये खड़ा है। गिरजाजी की दासी नर्मदा ने उसके हाथ से थाल लेकर गिरजाजी के सामने किया। उन्होंने दाहिने हाथ से छूकर सम्मान दिया। किशन ने हाथ खाली होते ही झुककर प्रणाम किया। उन्होंने झूले पर बैठे-बैठे ही हाथ जोड़े और समीप खड़ी दासी से धीमे स्वर में कुछ कहा तो उसने किशनसे कहा- ‘बाईसा हुकम आशीष फरमा रही हैं।’

उसने नीची दृष्टि किये-किये एक बार फिर झुककर प्रणाम किया। नर्मदा ने थाल खाली करके उसमें सुन्दर जरी का सरोपाव, न्यौछावर के लिये इक्कीस स्वर्ण मुद्राएँ, पान, मिष्टान्न रखकर उसी प्रकार रेशमी वस्त्र से ढँककर गिरजाजी के हाथ से छुआकर किशन को दिया। इसके अतिरिक्त एक सरोपाव, स्वर्णकी अँगूठी और इक्यावन चाँदीके सिक्के उनकी ओरसे किशन को दिये गये। प्रणाम कर किशन उनकी ओर पीठ न करके पीछे की ओर चलता हुआ द्वार लाँघकर चला गया।उसके जाते ही जैसे पूरे महल को किसी ने झकझोरकर जगा दिया हो, दासियों के हाथ यन्त्र की भाँति चलने लगे। गद्दे और तोषकों के खोल बदले जाने लगे। दीवारों के चित्र, द्वार पर लगे पर्दे उसके देखते-देखते बदल दिये गये। दो दासियाँ ढेर-के-ढेर दीपों में तेल और बाती लगाने लगीं। शांत खड़ी या बैठी दासियाँ इधर-उधर शीघ्रता से आने जाने लगीं। उनके मुख पर की व्यग्रता मानो उनकी शीघ्रता से असंतुष्ट हो..!!

घूँघट उघाड़कर गिरजाजी ने हिंडोले के समीप खड़ी फूलाँ और मीरा को चारों ओर देखते पाया तो हँसकर दोनों के हाथ पकड़ अपनी ओर खींचकर समीप बिठा लिया।

‘किशन दादा क्या लाया भाभा हुकम?’-मीराने पूछा।
‘ऐ नर्मदा ! किशनजी जो लाये, वह लाकर इनको दिखा तो!’–उन्होंने आज्ञा दी।

नर्मदा ने सब सामान दूसरे थाल में रखकर उनके सामने रख दिया। सलमें, सितारों, मोतियों और पन्ने जड़ी पोशाक थी गुलाबी रंग की। आभूषण और चाँदी की डिब्बी में पाँच पान के बीड़े, न्यौछावर की ग्यारह स्वर्ण मुद्राएँ।

‘यह सब कहाँसे आया भाभा हुकम?’– फूलाँ ने पूछा
‘यह आपके बावजी हुकम ने भेजा है बेटा!’
‘और जो अभी आपने भेजा सो?”
‘वह आपके बावजी हुकम के लिये है।’
‘आज ऐसा क्यों हो रहा है? नित्य तो किशन दादा लेकर नहीं आता।’
‘आज आपके बावजी हुकम (पिताजी) रात का भोजन इस महल में करेंगे, इसीलिये यह बीड़ा भेजा है। जब आपके भाभा हुकम के पास वे भोजन करने पधारते हैं तो ऐसा ही बीड़ा किशन जी वहाँ ले जाते हैं।’
‘ये सब जीजियाँ इतनी भागमभाग क्यों कर रही हैं भाभा हुकम !’ मीराने पूछा।
‘ये सब तुम्हारे बावजी हुकम के स्वागत की तैयारी में लगी हैं बेटी!’
‘मेरे कुँवरसा भोजन आरोगने पधारते हैं तो ऐसा कुछ नहीं होता।’
‘वे छोटे हैं बेटी! यह सब झंझट बड़ों के जीव को ही लगते हैं। छोटे लोग सहज रूपसे जी लेते हैं।”

उसी समय दो खवासिनों ने अपनी सास के साथ आकर धोक दी। उनकी सास को गिरजाजी ने हाथ जोड़े-‘आओ बलदेवजी की बहू ! सब प्रसन्न तो हैं न घरमें? अब बलदेवजी का स्वास्थ्य कैसा है?’
‘अब तो चलने-फिरने लगे हैं सरकार। अभी-अभी समाचार मिला कि सरकार को स्नान-शृंगार कराना है सो हाजिर हो गयी।’
‘ये दोनों रामचन्द्रजी और रामेश्वरजी की बहू हैं?’– उन्होंने पूछा।
क्रमशः

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