दिव्य राधा-माधव –प्रेम की मधुर झाँकी)
प्रेममूलक त्याग या गोपीभाव )
(पोस्ट 2 )

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|| श्रीहरी: ||
मधुर – झाँकी

गत पोस्ट से आगे —–
इसी प्रकार प्रेम-प्रतिमा प्रेयसी अपने प्राणप्रियतम के लिये त्याग कराती है; उसमे कहीं भी कोई उपर्युक्त दोष नहीं आ सकते | विशुद्ध अनुराग से ही उसे त्याग की सहज प्रेरणा मिलती है और विशुद्ध अनुराग या प्रेम की प्राप्ति या वृद्धि ही उसका फल भी होता है |

इसके विपरीत जिस त्याग में – ‘मैंने त्याग किया’ यह अभिमान होता है, ‘मैंने उसके लिये त्याग किया है , उसे मेरा अहसान मानना चाहिये – कृतज्ञ होना चाहिये’ – यह भाव होता है, जिस त्याग में बहुत कठिनाई का अनुभाव होता है, जो त्याग करना पड़ता है, जिसमे सुख की अनुभूति नहीं होती, जो त्याग दिखावे के लिये होता है, जिसका लोक परलोक में विशेष फल, बदला या मान-बड़ाई की चाह होती है और जो त्याग किसी कारण से होता है, किसी महत्वबुद्धि से होता है | ऐसा नहीं होता, जिसके किये बिना चैन ही न पड़े | ये बातें जिस त्याग में हों, वह त्याग न्यूनाधिक भाव से भोगमूलक ही होता है | भोगमूलक त्याग भी बुरा नहीं है, परंतु वह भाव के तारतम्य के अनुसार बहुत ही निम्न श्रेणी का होता है, उसे वास्तविक त्याग नही कहा जा सकता | ऐसा त्याग भोगप्राप्ति में हेतु होता है, उसमे पद-पद पर हॉग का अनुसंधान बना रहता है और भोग न मिलने पर दुःख की अनुभूति होती है | ऐसे त्याग पर त्यागी को पश्चाताप भी हो सकता है | यह एक प्रकार का व्यापार होता है | इसमें विशुद्ध प्रेम का अभाव होता है |

इसके विपरीत यथार्थ त्याग विशुद्ध प्रेम की विशेष वृद्धि करता है और विशुद्ध प्रेम से त्याग भी विशेषरूप से होता है और जहाँ विशुद्ध प्रेम का उदय हो जाता है, वहाँ त्याग ही जीवन का स्वरूप बन जाता है |

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शेष आगामी पोस्ट में |
(श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार जी – पुस्तक – मधुर -३४३, द्वारा
प्रकाशित गीताप्रेस )
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, Shri Hari: ||
Madhur – Tableau 1
,
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From last post —–
Similarly, the idol of love makes the beloved sacrifice for her beloved; There cannot be any of the above defects anywhere in it. It is only from pure affection that he gets the spontaneous inspiration of sacrifice and the attainment or growth of pure affection or love is also its fruit.

On the contrary, the sacrifice in which – ‘I have sacrificed’ this pride, ‘I have sacrificed for him, he should consider me a favor – should be grateful’ – this feeling is there, in which sacrifice is experienced a lot of difficulty, The sacrifice that has to be done, in which there is no feeling of happiness, the sacrifice that is done for the sake of show off, the one that has a desire for special fruit, revenge or glory in the world and the other world, and the sacrifice that is done for some reason, with some importance. is | It doesn’t happen, without doing which there is no peace. The sacrifice in which these things are there, that sacrifice is more or less enjoyable. Sacrifice based on enjoyment is also not bad, but it is of a very low grade according to the harmony of feelings, it cannot be called a real sacrifice. Such renunciation is done for the attainment of enjoyment, in it the research of Hog remains at every post and there is a feeling of sorrow when the enjoyment is not received. The tyagi can also repent on such a sacrifice. This is a type of business. It lacks pure love.

On the contrary, true renunciation specially increases pure love and renunciation is also specially done by pure love and where pure love arises, renunciation becomes the form of life.

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Rest in upcoming post.
(Reverend Hanuman Prasad Poddar Ji – Book – Madhur -343, by
Published Geetapress)
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