भक्ति करते हुए ज्ञान वैराग्य प्रवेश कर जाता है
सामान्य लोगों को समझाने के लिए एैसा कहा गया है!के भक्ति रुपी माता के ज्ञान व वैराग्य पुत्र हैं!
किन्तु तत्वत भक्ति एक भाव है!और ज्ञान व वैराग्य उसी भाव के दो पहलु हैं!
ज्ञान सिद्धी है। और वैराग्य उस सिद्धी को शिला के समान अचल व स्थिर बनाये रखने में ज्ञान का परम सहयोगी साधन है
क्योंकि अपरिपक्व ज्ञान चलायमान हो जाता है!जैसे अपरिपक्व हिम का पर्वत अल्पकाल में ही अग्नियुक्त वायु के प्रभाव पिगल जाता है।
वैसे ही बिना वैराग्य के ज्ञान स्थाई नहीं रहता!बिना ज्ञान के वैराग्य नहीं जगता!और बिना भक्ति,श्रद्धा अथवा विश्वास(आस्था) के किसी को तत्वज्ञान नहीं होता।
क्योंकि काम से ज्ञान आच्छादित है!इसलिए बिना भक्ति के इन कामनाओं का अंत नहीं होता!
और कामनाओं के अंत के बिना,भक्ति में निष्कामता नहीं आती और निष्कामता आये बिना,भक्ति में भाव से अधिक आडंबर, दिखावा अर्थात प्रदर्शन का भाव बना रहता है।
और इन विकारों से युक्त भक्ति से तत्व का ज्ञान कभी नहीं होता,और तत्वज्ञान हुए बिना,किसी भी भक्त की भक्ति में अनन्यता और मन में वैराग्यभाव भी नहीं होता!
और पूर्ण भक्त,पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वैरागी हुए बिना,मुक्ति व मोक्ष की केवल कल्पना व चर्चा होती है!मुक्ति व मोक्ष का स्वानुभव नहीं होता! ऊँ नमो नारायणाय
While doing devotion, knowledge and dispassion enter in.
This has been said to make the common people understand that knowledge and renunciation are the sons of the mother of devotion!
But devotion in principle is a feeling! And knowledge and renunciation are two aspects of the same feeling.
Knowledge is Siddhi. And renunciation is the most helpful means of knowledge in keeping that Siddhi as immovable and stable as a rock.
Because immature knowledge becomes mobile! Just like a mountain of immature snow melts in a short time due to the influence of fiery air.
Similarly, without renunciation, knowledge does not remain permanent. Without knowledge, renunciation does not arise. And without devotion, faith or belief, no one can attain Tatvgyan.
Because knowledge is covered with lust! Therefore without devotion these desires have no end!
And without the end of desires, there is no selflessness in devotion and without selflessness, there is more ostentation, show off, i.e. display in devotion than feeling.
And devotion with these vices never leads to knowledge of the essence, and without the knowledge of the essence, no devotee has uniqueness in his devotion and no feeling of dispassion in his mind.
And without being a complete devotee, a complete knowledgeable person and a complete recluse, there is only imagination and discussion of liberation and moksha. There is no self-experience of liberation and moksha. Om Namo Narayana