शरणागति

भगवान को प्राप्त करने के सभी साधनों में ‘शरणागति’ सबसे सरल साधन है। साधारण भाषा में शरणागति का अर्थ मन, वाणी और शरीर से अपने-आप को भगवान के अर्पण कर देना है। जैसे दूध में पानी मिलाने पर पानी भी दूध हो जाता है, उसी प्रकार अपने मन को हर प्रकार से भगवान में मिला देना ही शरणागति है।

मैं और मेरे के स्थान पर बस ‘केवल एक तू ही तू’ और ‘सब कुछ तेरा ही है’.. यही समर्पण की भावना ‘शरणागति’ कहलाती है। शरणागति को शरण, प्रपन्नता, आत्म- समर्पण, दास-भाव या गोपी-भाव भी कहते हैं। शरणागत की चिंता स्वयं भगवान करते हैं। मैं हरि का, हरि मेरे रक्षक, यही भरोसा बना रहे। जो हरि करते, वह हित मेरा, यह निश्चय ही सदा रहे ।।

सोते- बैठते, उठते- जागते, खाते- पीते.. हर समय इस मंत्र को दोहराते रहने वाले मनुष्य का समस्त भार भगवान अपने जिम्मे लेकर उसके सारे बंधन, चिंता व दु:ख हर लेते हैं।

इसी बात को सिद्ध करते हुए श्रीहरिराम व्यासजी, जिन्हें श्रीराधा की विशाखा सखी का अवतार कहा जाता है, ने क्या खूब कहा है-

काहू के बल भजन कौ, काहू के आचार।
‘व्यास’ भरोसे कुंवरि (श्रीराधा) के, सोवत पाँव पसार।।

गीता में भगवान चेतावनी देते हुए कहते हैं- ‘मेरे शरण होकर तू चिंता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है। यह तेरा अभिमान है और शरणागति में कलंक है।’

जब विभीषण ने भगवान राम के चरणों की शरण ले ली तो विभीषण के दोष (अपराध) को भगवान ने अपना दोष मान लिया। यह प्रसंग इस प्रकार है-

एक बार विभीषण से विप्रघोष नामक गांव में अनजाने में ब्रह्महत्या हो गई। इस पर वहां के ब्राह्मणों ने विभीषण को खूब मारा पीटा, पर वे मरे नहीं। तब ब्राह्मणों ने विभीषण को जंजीरों से बांध कर जमीन के भीतर एक गुफा में कैद कर दिया। श्रीराम को जब विभीषण के कैद होने का पता लगा तो वे पुष्पक विमान से विभीषण के पास पहुंचे।

ब्राह्मणों ने राम जी से कहा- ‘इसने ब्रह्महत्या की है, हमने इसे बहुत मारा पर यह मरा नहीं।’

भगवान राम ने कहा- ‘विभीषण को मैंने कल्प तक की आयु और लंका का राज्य दे रखा है, यह कैसे मारा जा सकता है ? यह तो मेरा शरणागत-भक्त है, भक्त के लिए मैं स्वयं मरने को तैयार हूँ। दास के अपराध की जिम्मेदारी वास्तव में उसके मालिक की होती है; इसलिए विभीषण के बदले आप लोग मेरे को ही दण्ड दें।’

अनजाने में की गई ब्रह्महत्या का प्रायश्चित भी विभीषण ने नहीं, प्रभु श्रीराम ने किया। भगवान की शरणागतवत्सलता देख कर सभी ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए।

मीरा जी की शरणागति कितनी अनन्य थी- जगत की जानलेवा ठोकरें खाकर भी मीरा जगत की ओर नहीं मुड़ी; बल्कि उन्होंने गिरधर की देहली का ही सहारा लिया और गातीं फिरीं-

एक मोहन ही मेरा घर बार भी आराम भी।
मेरी दुनियाँ की सुबह और मेरे जग की शाम भी।।

राज औ सरताज मोहन के सिवा कोई नहीं।
वैद्य मेरे रोग का मोहन सिवा कोई नहीं।।

शरणागत जीव हर परिस्थति में भगवान की दया का दर्शन करता है। यहां तक कि मृत्यु को भी भगवान का पुरस्कार मानता है, जरा भी घबराता नहीं है। वह अपना मन निरतंर भगवान की मूर्ति, नाम, रूप व लीला के चिंतन में लगाए रहता है।

जब राणाजी ने एक भयंकर विषधर काले नाग को फूलों की पिटारी में रखकर, उसे शालग्राम कहकर मीरा के पास भेजा तो कृष्ण-दीवानी मीरा ने पिटारी को प्यार से खोल कर देखा। वह विषधर नाग कृष्ण- कृपा से ‘शालग्राम’ बन गया। मीरा हर्ष से फूली न समाई !

दिवानी बिकी आज बेमोल।
मिले प्यारे गिरधर अनमोल।
मगन ह्वै नाचति हरि हरि बोल।।

मीरा का प्रियतम कोई साधारण प्राणी तो है नहीं ! वह तो साक्षात् रसेश्वर प्रेम की मूर्ति गिरधर गोपाल हैं।

आज भगवान रणछोड़जी के मंदिर में मीरा करुण स्वर से गा रही थी और उसके नूपुर श्रीकृष्ण-मिलन की पीड़ा में पुकार रहे थे। उस रूपराशि को देख कर किसका चित्त उन्मत्त नहीं होता !

मीरा जी के सर्वसमर्पण के भावों को श्रीरणछोड़राय जी ने ग्रहण किया। सचमुच मीरा का चूड़ला अमर हो गया। मीराजी ने प्रभु के श्रीविग्रह का आलिंगन किया। वे अपनी प्रेमाभक्ति और अनन्य शरणागति से अपने रणछोड़राय में ही लीन हो गईं ।

कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन द्वारा केवल इतना कहने पर कि ‘हे प्रभो ! मैं आपका शिष्य-दास हूँ, आपके शरणागत हूँ, मुझे उपदेश दीजिए।’

भगवान ने उसे अद्भुत गीताशास्त्र का उपदेश किया और उसके विषाद को भी दूर कर दिया।

गीता (१८ / ६६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।

तू सारी चिन्ता छोड़ दे। धर्म-कर्म की परवाह न कर। केवल एक मुझ प्रेमस्वरूप के प्रेम का ही आश्रय ले ले। प्रेम की ज्वाला में तेरे सारे पाप-ताप भस्म हो जायेंगे। तू मस्त हो जाएगा। यह तन- मन, लोक- परलोक की चिंता भूल कर मेरे प्रेम में मस्त रहना ही शरणागति का सच्चा स्वरूप है।

जिसे पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृतत्व को पा जाता है। सब तरफ से तृप्त हो जाता है। अपने भगवान की इच्छा ही उसके जीवन का लक्ष्य हो जाती है। भगवान की इच्छा में अपनी सारी इच्छाओं को मिला देना, भगवान के भावों में अपने सारे भावों को भुला देना ही सच्ची शरणागति है।

भगवान की शरणागति की प्राप्ति के लिए परमात्मा से बार-बार यही प्रार्थना करनी चाहिए कि मेरी सभी इंद्रियां आपके कार्यों में ही लगी रहें। जैसे-

जिह्वे कीर्तय केशवं मुररिपुं चेतो भज श्रीधरं
पाणिद्वन्द्व समर्चयाच्युतकथां श्रोत्रद्वय त्वं श्रृणु।
कृष्णं लोकय लोचनद्वय हरेर्गच्छांघ्रियुग्मालयं
जिघ्र घ्राण मुकुन्दपादतुलसीं मूर्द्धन् नमाधोक्षजम्।।

अर्थात् ‘हे जिह्वे ! केशव नाम का कीर्तन कर, हे चित्त ! मुरारि को भज, हाथो ! श्रीधर की पूजा- अर्चना करो, हे दोनों कानों ! तुम अच्युत भगवान की कथा श्रवण करो, नेत्रो ! श्रीकृष्ण का दर्शन करो, युगल चरणो ! भगवत्स्थानों, तीर्थों में भ्रमण करो, अरी नासिके ! तुम मुकुन्द के चरणों में चढ़ी तुलसी की गन्ध ले और हे मस्तक ! भगवान अधोक्षज के सामने झुक कर साष्टांग प्रणाम कर।’

भगवान की इस सर्वांग उपासना से उनकी शरणागति बहुत सुगमता से प्राप्त हो जाएगी।

।। कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

, refuge.

Surrender is the easiest of all means of attaining God. In simple language, surrender means surrendering yourself to God with mind, speech and body. Just as when water is mixed with milk, water also becomes milk, in the same way, merging your mind in God in every way is surrender.

In place of I and mine, just ‘Ek Tu Hi Tu’ and ‘Everything is yours’.. This feeling of surrender is called ‘Sharanagati’. Surrender is also known as Sharan, Prannata, self-surrender, Das-Bhav or Gopi-Bhav. God Himself takes care of the refuge. I belong to Hari, Hari is my protector, this should be the belief. Whatever Hari does, that interest is mine, this certainty should always be there.

While sleeping-sitting, waking-up, eating-drinking.. God takes all the burden of the man who keeps repeating this mantra all the time and takes away all his bondages, worries and sorrows.

Proving this point, Sri Hariram Vyasji, who is called the incarnation of Vishakha Sakhi of Sri Radha, has said a lot-

Kahu’s power of hymns, Kahu’s manners.
With the trust of ‘Vyas’, the feet of the virgin (Shriradha) spread.

God warns in the Gita and says- ‘You worry after taking refuge in me, it is a crime towards me. This is your pride and there is stigma in surrender.

When Vibhishana took refuge at the feet of Lord Rama, the Lord accepted Vibhishana’s fault (crime) as his own. This context is as follows-

Once Vibhishan unknowingly committed Brahmahatya in a village named Vipraghosh. On this the Brahmins there beat Vibhishan a lot, but he did not die. Then the Brahmins tied Vibhishana with chains and imprisoned them in a cave inside the ground. When Shriram came to know about Vibhishan’s imprisonment, he reached Vibhishan by Pushpak Viman.

Brahmins said to Ram ji- ‘He has committed Brahmahatya, we killed him a lot but he did not die.’

Lord Ram said- ‘I have given Vibhishan the age of Kalpa and the kingdom of Lanka, how can he be killed? He is my surrendered devotee, I myself am ready to die for the devotee. The responsibility for the slave’s crime actually lies with his master; Therefore, instead of Vibhishan, you should punish me only.

It was not Vibhishan who atoned for the unknowingly killing of a brahmin, but Lord Shri Ram. All the Brahmins were surprised to see the refuge of the Lord.

Meera ji’s surrender was so unique- Meera did not turn towards the world even after facing the deadly stumbling blocks of the world; Rather, she took support of Girdhar’s Delhi and went around singing-

There is only one attraction, my home is also my comfort.
Morning of my world and evening of my world too.

None other than Raj and Sartaj Mohan.
The doctor is none other than the fascination of my disease.

The surrendered creature sees the mercy of God in every situation. Even death is considered as God’s reward, does not panic at all. He constantly engages his mind in the contemplation of God’s idol, name, form and pastimes.

When Ranaji kept a fiercely poisonous black snake in a flower box and sent it to Meera by calling it Shaalgram, Krishna-devotee Meera opened the box with love. That poisonous snake became ‘Shalgram’ by the grace of Krishna. Meera was overjoyed!

Diwani sold priceless today.
Met dear Girdhar Anmol.
Say Hari Hari while you are happy.

Meera’s beloved is not an ordinary creature! He is actually Girdhar Gopal, the idol of Raseshwar Prem.

Today in the temple of Lord Ranchodji Meera was singing in a compassionate voice and her nupur was calling out in the pain of meeting Shri Krishna. Whose mind doesn’t get mad after seeing that form!

Shriranchodrai ji accepted Meera ji’s feelings of surrender. Really Meera’s Chudla has become immortal. Miraji embraced the Deity of the Lord. She got engrossed in her Ranchhodrai with her devotion and exclusive refuge.

In the field of Kurukshetra, Arjuna merely said this, ‘O Lord! I am your disciple-servant, I take refuge in you, teach me.’

God preached him the wonderful Gita Shastra and also removed his depression.

Lord Krishna says in Gita (18 / 66)-

Forsake all religions and take refuge in Me alone.
I shall deliver you from all sins Do not grieve.

Leave all your worries. Don’t care about religion. Only one should take shelter of the love of me as the form of love. All your sins and heat will be destroyed in the flame of love. You will be cool Forgetting the worries of this body, mind, world and the hereafter, staying engrossed in my love is the true form of surrender.

By attaining which man becomes perfect, attains immortality. Gets satisfied from all sides. The will of his God becomes the goal of his life. To merge all your desires in God’s will, to forget all your feelings in God’s feelings is the true refuge.

In order to attain God’s surrender, one should pray to God again and again that all my senses should be engaged in your work only. As-

With your tongue chant Keshava, Muraripu, worship Sridhar with your mind
Worship with both hands and hear with both ears the story of Acyuta.
Look at Krishna with two eyes and go to the pair of feet of Hari
Smell and smell the tulasi feet of Mukunda and bow down to the transcendental Lord.

That is, ‘O tongue! Chant the name of Keshav, O mind! Worship Murari, hands! Worship Sridhar, O two ears! You hear the story of Lord Achyut, eyes! See Sri Krishna, pair of feet! Visit the holy places, the shrines, O Nasi! You smell the Tulsi at the feet of Mukunda and O Mastaka! Bow down before Lord Adhokshaja and prostrate yourselves.

By this all-round worship of God, His refuge will be attained very easily.

, Krishna Krishna Hare Hare.

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