शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं,

water lily pond flower

।। श्रीहरि: ।।

आहुः शरीरं रथमिन्द्रियाणि
हयानभीषून् मन इन्द्रियेशम्।
वर्त्मानि मात्रा धिषणां च सूतं
सत्त्वं बृहद्‍ बन्धुरमीश सृष्टम्।।

अक्षं दश प्राणमधर्म धर्मौ
चक्रेऽभिमानं रथिनं च जीवम्।
धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्ति
शरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम्।।

उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन इन घोड़ों की लगाम है, और बुद्धि- ज्ञान सारथि है (यानी बुद्धि- ज्ञान अगर मन रुपी लगाम को ढीला छोड़ दे, तो इन्द्रियाँ अपनी मर्ज़ी से कहीं भी दोड़ने लगती हैं), शब्दादि विषय (शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श) ये मार्ग हैं, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। प्रणव अर्थात ॐकार (सर्व व्यापक परमात्मा) का ध्यान ही उस रथी का धनुष है,शुद्धजीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है।

ॐकारोच्चारणमात्रेण यो तिष्ठति तृप्यति हृदये।
तं नमामि श्रीहरिविष्णुं व्याप्तं सकल चराचरे।।

मात्र् ॐकार शब्द के उच्चारण से जो हृदय में आकर बैठ जाते हैं और तृप्त हो जाते हैं तथा जो संपूर्ण चराचर में व्याप्त है , उन श्रीहरिविष्णु भगवान को नमन् करता हूँ।

नावेक्षसे यदि ततो भुवनान्यमूनि
नालं प्रभो भवितुमेव कुतः प्रवृत्तिः।
निसर्गसुहृदि त्वयि सर्वजन्तोः स्वामिन्न
चित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम्।।

हे भगवन् ! यदि आप इन लोकों की ओर दृष्टि न डालें तो इनकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती, फिर प्रवृत्ति तो हो ही कैसे सकती है? इसप्रकार समस्त प्राणियों के स्वाभाविक सुहृद् आपमें अपने आश्रित जनों के ऊपर वत्सल (सदय) होने का गुण रहना आश्चर्य की बात नहीं है।

आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति।।

जैसे आकाश से गिरा हुआ जल अन्त में समुद्र में ही जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवों के प्रति किया हुआ नमस्कार भगवान् केशव के ही पास जा पहुँचता है।

।। ॐ केशवाय नमः ।।



, Shri Hari:.

They say that the body is the chariot and the senses are the senses The mind is the lord of the senses. The paths are the matter and the thread of the minds Sattva is the great friend created by the Lord.

The axis is the ten life-forces, and irreligion is the two religions He made himself proud and the charioteer a living being For the bow recites his oṁkāra The arrow is the ultimate goal of the living being.

It has been said in the Upanishads that the body is the chariot, the senses are the horses, the mind, the master of the senses, is the reins of these horses, and the intellect-knowledge is the charioteer (i.e., if the mind-like reins are loosened, the senses will go wherever they wish). also starts running), words and subjects (shabd, form, rasa, smell and touch) are the path, ten lives are the axle, religion and unrighteousness are the wheels and their proud soul is called the charioteer. Pranav means the meditation of Omkar (all pervading God) is the bow of that chariot, pure soul is the arrow and God is the target.

He who abides in the heart is satisfied by merely chanting the Omkara. I bow to that Sri Hari Vishnu pervading all moving and non-moving beings.

I bow down to Lord Sri Harivishnu, who sits in the heart and gets satisfied just by uttering the word Omkar and who pervades the entire pasture.

If you don’t look then the worlds are these Where is the instinct to be not, O Lord? O friend of nature, not in you, O lord of all beings This is a picture of dependent compassion.

O God! If you don’t look at these worlds, then they cannot be originated, then how can there be a tendency? Thus, it is not surprising that you, the natural friend of all living beings, have the quality of being Vatsal (kindness) towards your dependent people.

Just as water falling from the sky flows into the ocean Offerings to all the gods go to Kesava.

As the water falling from the sky ultimately reaches the ocean, similarly the salutations offered to all the gods reach Lord Keshava.

।। ॐ Keshavaya Namah ।।

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