“प्रेम के जन्म का पहला सूत्र है: प्रेम दान है, भिक्षा नहीं। इसलिए जीवन में देने की तरफ दृष्टि जगनी चाहिए।
यह मत कहें कि पति मुझे प्रेम नहीं देता; अगर पति प्रेम नहीं देता, इसका एक ही मतलब है कि आप प्रेम नहीं दे रही हैं।
यह मत कहें पति कि पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती; इसका एक ही मतलब है कि पति प्रेम नहीं दे रहा है। क्योंकि जहां प्रेम दिया जाता है वहां तो अनंत गुना होकर वापस लौटता है।
वह तो शाश्वत जीवन का नियम है कि जो दिया जाता है वहां तो अनंत गुना होकर वापस लौटता है। एक-एक दाना सोने का होकर वापस लौटता है। वह तो शाश्वत जीवन का नियम है कि जो दिया जाता है वह अनंत गुना होकर वापस लौटता है।
गाली दी जाती है तो गालियां अनंत गुनी होकर वापस लौट आती हैं और प्रेम दिया जाता है तो प्रेम अनंत गुना होकर वापस लौट आता है। जीवन एक ईको पॉइंट से ज्यादा नहीं है। जहां हम जो ध्वनि करते हैं, वह वापस गूंजकर हमारे पर वापस आ जाती है।
और हर व्यक्ति एक ईको पॉइंट है।
उसके पास जो हम करते हैं, वही वापस लौट आता है। वही दुगुना,अनंत गुना होकर वापस लौट आता है।
प्रेम मिलता है उन्हें जो देते हैं।प्रेम उन्हें कभी भी नहीं मिलता है जो मांगते हैं।जब मांगने से प्रेम नहीं मिलता तो और मांग बढ़ती चली जाती है ।
और मांग में प्रेम कभी मिलता नहीं है। प्रेम उनको मिलता है जो देते हैं, जो बांटते हैं ।लेकिन हमें हमेशा बचपन से यह सिखाया जा रहा है; मांगो, मांगो, मांगो। इस मांग ने हमारे भीतर प्रेम के बीज को सख्त कर दिया है।
इसलिए पहला सूत्र है:
प्रेम दें।”
प्रेम सभी को चाहिए।नियम है चाहने से प्रेम नहीं मिलता।नियम है प्रेम देने से प्रेम मिलता है।चाहने से प्रेम तभी मिलेगा जब किसीके पास हो।हो ही नहीं,वह भी हमसे प्रेम चाहता हो तो क्या परिणाम होगा? यही कि द्वंद्व होगा।
” प्रेम का पहला सूत्र है कि वह प्रेम नहीं पा सकेगा जब तक हम मांगते हैं। हम सब एक दूसरे से मांगते हैं ,मांगते हैं, मांगते हैं।मां बेटे से कहती है कि तू मुझे प्रेम नहीं करता। बेटा सोचता है मां मुझे प्रेम नहीं करती। पत्नी कहती है पति मुझे प्रेम नहीं करता। चौबीस घंटे एक ही शिकायत है पत्नी की कि तुम मुझे प्रेम नहीं करते और पति की भी वही शिकायत है कि मैं घर आता हूं मुझे कोई प्रेम नहीं मिलता।
दोनों मांग रहे हैं दोनों भिखारी,एक दूसरे के सामने झोली फैलाए खड़े हैं। और यह सोचते नहीं कि दूसरी तरफ भी मांगने वाला खड़ा है और इस तरफ भी मांगने वाला खड़ा है। और जीवन में कलह और द्वंद्व और युद्ध नहीं होगा तो क्या होगा? जहां सभी भिखारी हैं वहां जीवन बर्बाद नहीं होगा तो और क्या होगा?”
हमें प्रेम चाहिये।ठीक बात है इसमें कोई दोष नहीं।इससे सुख मिलता है, आंतरिक अभाव की पूर्ति होती है।
अच्छा लगता है। लेकिन यह भी तो समझना चाहिए कि जिससे हम प्रेम चाहते हैं उसके पास प्रेम है भी या नहीं है?
नहीं है तो वह कैसे दे पायेगा?हमारी अपेक्षा पूरी न होने से हमें क्रोध आयेगा, निराशा होगी,दुख होगा।
लेकिन दूसरा भी तो हमसे प्रेम चाहता है।हम देते हैं क्या?दे पाते हैं क्या?
नहीं। क्योंकि हमारे पास भी नहीं है।कोई हमें प्रेम दे तो ही हम प्रेम दे पाते हैं अन्यथा नहीं। अन्यथा आरोप लगाते हैं।देखो कैसे हैं इनमें जरा भी प्रेम नहीं है।
यह समस्या सभी जगह है किसी एक जगह नहीं है।
इसे गहराई से समझेंगे तो पहला दायित्व खुद पर आयेगा कि ठीक बात है मेरे भीतर ही प्रेम नहीं है, इसमें दूसरा क्या करे?उसके पास भी नहीं है।वह भी कहां से दे?
तो जैसे उसके प्रेम से हम प्रेम देने योग्य बनते हैं ऐसे ही हमारे प्रेम देने से वह भी प्रेम देने योग्य बनता है। स्पष्ट है प्रेम चाहिये तो प्रेम दें।
इसीसे संबंधित है पहला सूत्र है कि प्रेम मांगें नहीं।प्रेम दें।
नहीं है हमारे पास,कैसे दें यह समस्या है तो इसका समाधान हमें ही खोजना पडेगा। हमारे अहंकार, अभिमान को हृदय में पिघलना होगा।
हम ही हैं अहंकार इसलिए हमें ही पिघलना होगा।यह होता है श्रद्धा से, भक्ति से।श्रद्धा का अनुभव कैसा होता है, भक्ति का अनुभव कैसा होता है?इसे जानें,अनुभव करें गहराई से तो अहंरुप बिखरता है। अवश्य जिनमें प्रेम है उनके सानिध्य में रहा जा सकता है।उनके सत्संग में रहा जा सकता है।
इससे सीखने को मिलता है।हम जब समझपूर्वक प्रेम देने में समर्थ होते है तब दूसरों के साथ हमारा भी समाधान होता है।जीवन जीने योग्य बनता है। भयचिंता,क्रोधक्षोभ, हताशा निराशा की जगह स्वयं में बड़ी रचनात्मक शक्ति जगने लगती है।
हमारा नियंत्रण हमारे हाथ में आने लगता है।
आदमी भय और क्रोध से भरा है। कभी भय, कभी क्रोध वह उसके समाधान की खोज में जुटा रहता है लेकिन अपने में उस महासामर्थ्य के बारे में पता नहीं लगाता जो अपार आत्मविश्वास और आत्मशक्ति से भर देता है,
जो है-प्रेम,प्रेम और प्रेम।
प्रेम सचमुच वातावरण में आनंद भर देता है।इस सामूहिक आनंद को पाना हो तो जरूरी है हम ही समझदार बनें, जिम्मेदार बनें। दूसरों पर इसकी जिम्मेदारी छोड़ने की भूल न करें।
इसमें दूसरों का तो नुकसान है ही, हमारा भी बड़ा नुक्सान है।सुख से न रह पायें तो यह बड़ी हानि है ही जिसका कारण कोई और नहीं, शतप्रतिशत हम स्वयं हैं।मेरा मित्र क्रोधपूर्वक, डांटते हुए भी कभी बात करता लेकिन उसके हृदय की गहराई में असीम प्रेम था सबके लिए।सब इसे जानते और निर्भय रहते। 🙏🏻🙏🏻