“गिलास में पानी और दूध पी सकते हैं..
उसी गिलास में जूस या शरबत भी पी सकते हैं..
फिर उसी में शराब भी तो पी सकते हैं…
ऐसे ही शरीर और मन तो सबके पास होता है..
पर हम उसको किस सोच के लिये इस्तेमाल करते हैं??
कुछ उसको सिर्फ़ परम्पराओं के लिये ही पोषित करते हैं..
कुछ उसको सिर्फ़ रीति-रिवाजों के लिये ही ढोते हैं..
कुछ उसको सिर्फ़ सांसारिक बंधनों के लिये ही रखते हैं..
कुछ उसको सिर्फ़ अपने भलाई के लिये ही सन्यास लेते हैं..
कुछ उसको अपनी सोच को नया करने का प्रयत्न करते हैं..
कुछ उसको अपने को सबसे मुक्त करने के लिये प्रयोग करते हैं..
कुछ लोग इनको सबकी सेवा के लिये समर्पित रखते हैं…
कुछ ये सब छोड़कर सिर्फ़ लोगों को और स्वयं को जगाने के लिये
इनका सदुपयोग करते हैं….”
प्रभु संकीर्तन 12
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