श्रीभगवान कहते हैं: प्रिये ! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। गंगा के तट पर वाराणसी नाम की एक पुरी है, वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नाम के एक योग-निष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्म-चिन्तन में तत्पर हो आदर-पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे, उसके अभ्यास से उनका मन निर्मल हो गया था, वे सर्दी- गर्मी आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे।
एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये, वहाँ बेर के दो वृक्ष थे, उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे।
एक वृक्ष की जड़ मे उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका पैर टिका हुआ था, थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच-छः दिनों के भीतर ही सूख गये, उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं, तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मण के पवित्र गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए।
वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूमकर आते हुए भरत मुनि को देखा, उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयी और मीठी वाणी में बोलीं- ‘
मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है, हमने बेर की योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है,’ उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने पूछाः ‘पुत्रियो ! मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेर होने के क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है।’
तब वे कन्याएँ पहले उन्हे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं- ‘मुनि ! गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाला है, वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है,
उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्जवलित अग्नियों के बीच में बैठते थे।
वारिश के समय में जल की धाराओं से उनके सिर के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय में जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे, वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे, वे अपनी विद्वत्ता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे।
उसे सुनने के लिए साक्षात् ब्रह्मा जी भी प्रति-दिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे, ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे।
परमात्मा के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी, सत्यतपा को जीवन-मुक्त के समान मान कर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पद के सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैंकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये, अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दियाः ‘तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्र-पद से हटा कर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है।’
“इन्द्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं, वहाँ मन्द और गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना आरम्भ किया, इतना ही नहीं उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं, बीच-बीच में जरा-जरा सा अंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी, हम दोनों की उन्मत्त गति काम-भाव का जगाने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया, तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दियाः ‘अरी ! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ।’
यह सुन कर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहाः ‘महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं, अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें,’ यह कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया, तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे शाप उद्धार की अवधि निश्चित करते हुए कहाः ‘
भरत मुनि के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा, उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु-लोक में जन्म होगा और पूर्व-जन्म की स्मृति बनी रहेगी। “मुनि ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था,
अतः हम आपको प्रणाम करती हैं, आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।”
श्रीभगवान कहते हैं: उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के साथ प्रति-दिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Sri Bhagavan says: Dear! Now let me tell the significance of the fourth chapter, listen. There is a Puri named Varanasi on the banks of the Ganges, there lived a yogic Mahatma named Bharata in the temple of Vishwanath ji, who used to read the fourth chapter of the Gita with reverence every day, ready for self-contemplation. His mind became pure by practice, he was never troubled by the conflicts like cold and heat.
Once upon a time, he went out of the city while traveling with the desire to see the deities located in the limits of Tapodhana city, there were two berry trees, in their root they started resting.
He had placed his head in the root of one tree and his foot rested on the root of another tree, after a while when he went ascetic, then both those berry trees withered within five or six days, the leaves and There were no branches left, after that both those trees were born in the form of two daughters somewhere in the holy house of a Brahmin.
When both those girls grew up to seven years old, then one day they saw Bharat Muni coming from far away countries, on seeing him, both of them fell at his feet and spoke in a sweet voice- ‘
Muni! By your grace, both of us have been saved, we have got human body by giving up the vagina of berry,’ the sage was very astonished when he said this way, he asked: ‘Daughters! When and by what means did I free you? Also tell me what was the reason for your being plum? Because I don’t know anything about this subject.’
Then those girls, first telling them the reason for their becoming plum, said – ‘Muni! On the banks of the Godavari river there is a great pilgrimage named Chhinnapaap, which bestows virtue to human beings, it has reached the zenith of its holiness.
In that tirtha an ascetic named Satyatapa was doing a very severe penance, he used to sit in the middle of the blazing fires in the summer season. In the time of rain, the hair of his head was always wet by the streams of water and due to living in the water in winter, hair always stood in his body, he was always pure from outside, did penance on time and Keeping the mind and senses under control, attaining supreme peace, he used to enjoy himself in the soul, as he lectured through his scholarship.
To listen to him, Lord Brahma also used to present to him every day and ask questions, he had no hesitation with Brahmaji, so even when he came, he was always engrossed in penance.
Due to his constant involvement in the meditation of God, his austerity was always increasing, considering Satyatpa as free of life, Indra felt some fear about his prosperous position, then he started creating hundreds of obstacles in his penance, the Apsaras Calling both of us from the community, Indra ordered as follows: ‘Both of you should disturb the penance of the ascetic, who wants to enjoy the kingdom of heaven himself by removing me from Indra’s position.’
“After receiving this order from Indra, we both walked in front of him on the arrow of Godavari, where the sages used to do penance, there we both sang in a melodious voice along with the other Apsaras, with the mridanga and the melodious Venunada, playing with a soft and solemn voice. Started, not only that, to subdue those yogi mahatmas, we also started dancing with tone, rhythm and rhythm, in between, they could see our chest even when we moved a little bit, both of us The frenzied pace was to arouse the sense of lust, but it infused anger in the mind of those immutable minded Mahatma, then he cursed us with anger, leaving water from his hand: ‘Ai! You both become plum trees on the banks of the Ganges. .’
Hearing this, we said with great humility: ‘Mahatman! We were both subjected, so please forgive the misdeed we have committed,’ We pleased the sage by saying this, then the sage of pure mind, fixing the period of our curse, said: ‘
This curse will apply to you only till the arrival of Bharat Muni, after that you will be born in the world of death and the memory of the previous birth will remain. “Muni! When both of us were standing in the form of a plum tree, at that time you saved us by coming near us and chanting the fourth chapter of the Gita,
So we salute you, you have not only freed us from the curse but also from this dreadful world by reciting the fourth chapter of the Gita.” Sri Bhagavan says: The sages were very pleased with both of them saying this way and after being worshiped by them, they left just as they had come, and those girls also started reciting the fourth chapter of the Gita every day with great respect, By which he was saved.
॥ Hari: Om Tat Sat.