ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य

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श्री महादेवजी कहते हैं:- प्रिये! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा और विश्वरूप अध्याय के पावन माहात्म्य को सुनो, विशाल नेत्रों वाली पार्वती! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में कई कथाएँ हैं, उनमें से एक कथा कहता हूँ।

प्रणीता नदी के तट पर मेघंकर नाम से विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है, उसकी चारों दीवार और द्वार बहुत ऊँचे हैं, वहाँ बड़े-बड़े विश्राम गृह हैं, जहाँ के सोने के खम्भे शोभा बढा़ रहे हैं, उस नगर में श्रीमान, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है, वहाँ हाथ में शारंग नामक धनुष धारण करने वाले जगदीश्वर भगवान विष्णु विराजमान हैं, वे परब्रह्म के साकार स्वरूप हैं, उनका गौरव-पूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है, भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है, मेघ के समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभा पाता है, वे कमल और वनमाला से सुशोभित हैं, अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो

भगवान वामन रत्न से युक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते हैं, पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ मेघ शोभा पा रहा हो, उन भगवान वामन का दर्शन करके जीव जन्म और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है, उस नगर में मेखला नामक महान तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है, वहाँ जगत के स्वामी करुणा के सागर भगवान नृसिंह का दर्शन करने से मनुष्य के सात जन्मों के किये हुए घोर पाप से छुटकारा पा जाता है, जो मनुष्य मेखला में गणेशजी का दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नों से पार हो जाता है।

उसी मेघंकर नगर में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य परायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद शास्त्रों में प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान वासुदेव के शरणागत थे, उनका नाम सुनन्द था, प्रिये! वे शारंग धनुष धारण करने वाले भगवान के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय-विश्वरूप दर्शन का पाठ किया करते थे, उस अध्याय के प्रभाव से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी, परमानन्द-संदोह से पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधी के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जाने के कारण वे निश्चल स्थिति को प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन मुक्त योगी की स्थिति में रहते थे, एक समय जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित थे।

महायोगी सुनन्द ने गोदावरी तीर्थ की यात्रा आरम्भ की, वे क्रमशः विरज तीर्थ, तारा तीर्थ, कपिला संगम, अष्ट तीर्थ, कपिला द्वार, नृसिंह वन, अम्बिका पुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाद मण्डप नामक नगर में आये, वहाँ उन्होंने प्रत्येक घर में जाकर अपने ठहरने के लिए स्थान माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला, अन्त में गाँव के मुखिया ने उन्हें बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी, ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया, सबेरा होने पर उन्होंने अपने को तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखाई दिये, वे उन्हें खोजने के लिए चले, इतने में ही मुखिया से उनकी भेंट हो गयी।
मुखिया ने कहाः- “मुनिश्रेष्ठ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हो, सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान पुरुषों में तुम सबसे पवित्र हो, तुम्हारे साथी कहाँ गये? कैसे इस भवन से बाहर हुए? इसका पता लगाओ, मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई दिखाई नहीं देता, विप्रवर! तुम्हें किस महामन्त्र का ज्ञान है?

किस विद्या का आश्रय लेते हो तथा किस देवता की दया से तुम्हे अलौकिक शक्ति प्राप्त हो गयी हैं? ब्राह्मण देव! कृपा करके इस गाँव में रहो, मैं तुम्हारी सब प्रकार से सेवा-सुश्रूषा करूँगा, यह कहकर मुखिया ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया, वह दिन रात बड़ी भक्ति से उसकी सेवा करने लगा, जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला “हाय! आज रात में राक्षस ने मेरे बेटे को खा लिया है, मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान और भक्तिमान था।

सुनन्द ने पूछाः- “कहाँ है वह राक्षस? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्र का भक्षण किया है?

मुखिया बोलाः- ब्राह्मण देव! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नर-भक्षी राक्षस रहता है, वह प्रतिदिन आकर इस नगर में मनुष्यों को खा लिया करता था, तब एक दिन समस्त नगर वासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की “राक्षस! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो, हम तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था किये देते हैं, यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेंगे, उनको खा जाना” इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के मुझ मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निश्चित किया, अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा, आप भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे, किंतु राक्षस ने उन सब को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है।

हे ब्राहमणश्रेष्ठ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो, इस समय मेरे पुत्र का एक मित्र आया था, किंतु मैं उसे पहचान न सका, वह मेरे पुत्र को बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया, मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिए गया, परन्तु राक्षस ने उसे भी खा लिया, आज सवेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पूछा “ओ दुष्टात्मन्! तूने रात में मेरे पुत्र को भी खा लिया, तेरे पेट में पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता।”

राक्षस ने कहाः- मुखिया! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्र को न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है, अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजाने में ही मेरा ग्रास बन गया है, वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाता ने ही कर दिया है, जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा, यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाला से बाहर कर दिया था, वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप किया करते हैं, इस अध्याय के मंत्र से सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जल का छींटा दें तो निःसंदेह मेरा शाप से उद्धार हो जाएगा, इस प्रकार उस राक्षस का संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ।

ग्रामपाल बोलाः- हे ब्राह्मण! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था, एक दिन वह अगहनी के खेत की क्यारियों की रक्षा करने में लगा था, वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मार कर खा रहा था, उसी समय एक तपस्वी कहीं से आ निकले, जो उस राही को लिए दूर से ही दया दिखाते आ रहे थे, गिद्ध उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया, तब उस तपस्वी ने उस किसान से कहा “ओ दुष्ट हलवाहे! तुझे धिक्कार है! तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है, दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है, तेरा जीवन नष्टप्राय है, अरे! शक्ति होते हुए भी जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की उपेक्षा करता है, वह उनके वध का फल पाता है।
जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मण को छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता है और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है, जो वन में मारे जाते हुए तथा गिद्ध और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीव की रक्षा के लिए ‘छोड़ो….छोड़ो…’ की पुकार करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिए व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओं के हाथ से मारे जाते हैं,

वे भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होते हैं जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है, सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते, दीन तथा भयभीत जीव की उपेक्षा करने से पुण्यवान पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है, तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।

हलवाहा बोलाः- महात्मन्! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहुत देर से खेत की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्य को मैं नहीं देख सका, अतः मुझ दीन पर आपको अनुग्रह करना चाहिए।

तपस्वी ब्राह्मण ने कहाः- जो प्रति दिन गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तक पर पड़ेगा, उस समय तुम्हे शाप से छुटकारा मिल जायेगा, यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया, अतः द्विजश्रेष्ठ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जल को अभिमन्त्रित करो फिल अपने ही हाथ से उस राक्षस के मस्तक पर उसे छिड़क दो।

मुखिया की यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मण के हृदय में करुणा भर आयी, वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये, वे ब्राह्मण योगी थे, उन्होंने विश्वरूप-दर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षस के मस्तक पर डाला, गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभाव से वह शाप से मुक्त हो गया, उसने राक्षस-देह का परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्रों प्राणियों का भक्षण किया था, वे भी शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए चतुर्भुजरूप हो गये, तत्पश्चात् वे सभी विमान पर सवार हुए।

मुखिया ने राक्षस से कहाः- “निशाचर! मेरा पुत्र कौन है? उसे दिखाओ,” उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धिवाले राक्षस ने कहा ‘ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक के मुकुट से सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कन्धे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदों से विभूषित, कमल के समान नेत्रवाले, हाथ में कमल लिए हुए हैं और दिव्य विमान पर बैठकर देवत्व के प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझो,’ यह सुनकर मुखिया ने उसी रूप में अपने पुत्र को देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा, यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।

पुत्र बोलाः- मुखिया! कई बार तुम भी मेरे पुत्र बन चुके हो, पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ, इन ब्राह्मण देवता के प्रसाद से वैकुण्ठ-धाम को जाऊँगा, देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूप को प्राप्त हो गया, ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णु धाम को जा रहा है, अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेव से गीता के ग्यारहवें अध्याय का अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो, इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी, तात! मनुष्यों के लिए साधु पुरुषों का संग सर्वथा दुर्लभ है, वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है, अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो, धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मों से क्या लेना है? विश्वरूप अध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की प्राप्त हो जाती है।

सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्म के मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णु का परम तात्त्विक रूप है, तुम उसी का चिन्तन करो, वह मोक्ष के लिए प्रसिद्ध रसायन, संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधि का विनाशक तथा अनेक जन्म के दुःखों का नाश करने वाला है, मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधन को ऐसा नहीं देखता, अतः उसी का अभ्यास करो।

श्री महादेव कहते हैं:– यह कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णु के परम धाम को चला गया, तब मुखिया ने ब्राह्मण के मुख से उस अध्याय को पढ़ा फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से विष्णुधाम को चले गये, पार्वती! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य की कथा सुनायी है, इसके श्रवण मात्र से महान पातकों का नाश हो जाता है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥



Shri Mahadevji says :- Dear! Listen to the story related to the description of the Gita and the holy greatness of the Vishwarupa chapter, Parvati with huge eyes! The greatness of this chapter cannot be described completely, there are many stories related to it, let me tell one of them.

On the banks of the Pranita river, there is a very big city known as Meghankar, its four walls and gates are very high, there are big rest houses, where golden pillars are increasing the beauty, in that city sir, happy, peaceful. , the abode of virtuous and Jitendriya humans, there resides Lord Vishnu, Jagdishwar holding the bow named Sharang in his hand, He is the corporeal form of Parabrahma, His glorious Srivigraha is worshiped by the eye-lotus of Bhagwati Lakshmi, the goddess of the Lord. The tableau is of the Vamana-avatar, His dark complexion and soft shape like a cloud, The symbol of Srivatsa adorns the chest, He is adorned with lotus and Vanmala, Beautified with many types of ornaments

Lord Vaman appears like an ocean studded with jewels, from the pitambar the radiance of his black deity appears as if a cloud surrounded by shining lightning is resplendent; One becomes free, in that city there is a great pilgrimage named Mekhla, by bathing in which one attains the eternal Vaikunth abode, there by seeing Lord Nrisimha, the Lord of the world, the ocean of compassion, one can get rid of the heinous sins committed in seven births. The person who sees Ganeshji in Mekhla, he always crosses over from other obstacles.

In the same city of Meghankar, there was a great Brahmin, who was celibate, free from affection and ego, expert in Vedas, Jitendriya and surrendered to Lord Vasudev, his name was Sunand, dear! He used to recite the eleventh chapter of the Gita-Vishwaroop Darshan near the God holding the sharp bow, with the effect of that chapter he had attained Brahmagyan, turning inward to the senses through the perfect knowledgeable samadhi full of ecstasy-doubt. Due to this he had attained the immovable state and lived forever in the state of a life-free yogi, at a time when Jupiter was situated in Leo.

Mahayogi Sunand started the journey of Godavari Tirtha, he came to the city called Vivad Mandap while taking bath and darshan in Viraj Tirtha, Tara Tirtha, Kapila Sangam, Ashta Tirtha, Kapila Dwar, Narasimha Van, Ambika Puri and Karsthanpur respectively. He went to every house and asked for a place to stay, but he could not find a place anywhere, at last the head of the village showed him a very big dharamshala, the Brahmin along with his companions went inside and stayed for the night, when morning came, he went to his house. He was found outside Dharamshala, but his other companions were not visible, they went to search for him, in the meantime they met the chief. The headman said: “Best sage! You seem to have lived a long life in all respects, you are the most pious among fortunate and virtuous men, where did your companions go? How did you get out of this building? Find out, I only say this to you. I do not see any other ascetic like you, Vipravar! Which great mantra do you have knowledge of?

Which knowledge do you take shelter of and by the grace of which deity have you attained supernatural power? Brahmin Dev! Please stay in this village, I will serve you in every way, saying this, the headman made Munishwar Sunand stay in his village, he started serving him day and night with great devotion, when seven-eight days passed, then One day, coming early in the morning, he was very sad and started crying in front of the Mahatma and said, “Alas! Tonight the demon has eaten my son, my son was very virtuous and devoted.

Sunand asked:- “Where is that demon? And how has he devoured your son?

The chief said: – Brahmin God! A big fierce man-eater monster lives in this city, he used to come everyday and eat humans in this city, then one day all the residents of the city together prayed to him, “Monster! You protect us all, we protect you.” We make arrangements for food for the pilgrims who come here from outside to sleep at night, eat them.” He had to do this to protect, you also came and slept in this house along with other passers-by, but the monster ate them all, leaving only you.

O best of Brahmins! You know what kind of influence you have, at this time a friend of my son came, but I could not recognize him, he was very dear to my son, but along with other passers-by I also took him to the same Dharamshala. When my son heard that my friend had also entered it, he went to fetch him from there, but the demon ate him too, this morning I felt very sad and asked the demon, “O evil spirit! You ate even my son in the night, if there is any way to revive my son lying in your stomach, please tell me.”

The demon said: Chief! I have eaten because of not knowing your son who has entered the Dharamshala, along with other pilgrims, your son has also unknowingly become my food, the way he can survive and be protected in my stomach, that solution is given by the creator himself. The Brahmin who always recites the eleventh chapter of Gita, I will be liberated and the dead will get life again. He constantly chants the eleventh chapter of Gita, invoking seven times with the mantra of this chapter, if he sprinkles water on me, then I will surely be saved from the curse, in this way I have come near you after receiving the message of that demon. .

Grampal said: O Brahmin! Earlier, a Brahmin farmer used to live in this village, one day he was engaged in guarding the beds of the firewood field, just a short distance away, a huge vulture was killing and eating a passer-by, at the same time an ascetic came from somewhere. When the vulture flew into the sky after eating that traveler, then the ascetic said to the farmer, “O evil plowman! Woe to you! You are very harsh and cruel. Turning away from the protection of others, is engaged only in the business of making a living, your life is about to be destroyed, hey! Ignores the humans injured by the Betal etc., he gets the result of their slaughter. The one who, despite being powerful, does not try to rescue a Brahmin trapped in the clutches of a thief etc., falls into a terrible hell and is born again in the womb of a wolf, who is killed in the forest and is seen by vultures and tigers. One who calls out ‘Chhodo… Chhodo…’ for the protection of the living being, attains the supreme state, the human beings who are killed by tigers, Bhils and evil kings for the protection of cows,

They attain the supreme position of Lord Vishnu, which is rare even for Yogis, Sahasra Ashwamedha and hundred Vajpayya sacrifices together cannot be equal to the sixteenth art of refuge-protection, by neglecting the humble and fearful creature On arrival, you are cooked in the hell called Kumbhipak, you see the traveler being eaten by the evil vulture, but you did not protect him even though you were able to save him, it makes you feel cruel, so you become a demon.

The plowman said: – Mahatman! I was definitely present here, but my eyes were engaged in protecting the field for a long time, so I could not see this man being killed by the vulture even when he was near, so you should have mercy on me.

The ascetic Brahmin said: – The one who chants the eleventh chapter of the Gita every day, when the water invited by that man falls on your head, at that time you will get rid of the curse, saying this the ascetic Brahmin went away and that halwa became a demon. , So Dwijshrestha! You go and invite the water of the pilgrimage from the eleventh chapter, then sprinkle it on the head of that demon with your own hand.

The Brahmin’s heart was filled with compassion after hearing all these prayers of the headman, he went to the demon with him saying ‘very good’, he was a Brahmin yogi, he invoked water from the eleventh chapter called Vishwaroop-Darshan and poured it on the demon’s head, With the influence of the eleventh chapter of the Gita, he was freed from the curse, leaving the demon-body, he assumed a four-armed form and the thousands of creatures he devoured also became four-armed, holding a conch, wheel and mace. They all boarded the plane.

The chief said to the demon: “Nishachar! Who is my son? Show him.” Who is decorated with garlands, whose shoulders appear graceful because of wearing a necklace, who is adorned with golden bracelets, who has eyes like lotus, who has a lotus in his hand and who has attained divinity by sitting on the celestial plane, consider him as your son. ,’ Hearing this, the chief saw his son in the same form and wanted to take him to his house, seeing this his son laughed and said thus.

Son said :- Chief! Many times you have also become my son, earlier I was your son, but now I have become a deity, I will go to Vaikuntha-Dham with the prasad of this Brahmin deity, see, this Nishachar has also attained the four-armed form, in the eleventh chapter With greatness he is going to Sri Vishnu Dham with all the people, so you also study the eleventh chapter of Gita from this Brahmin Dev and keep chanting it continuously, there is no doubt that you will also have such a good speed, Tat! The company of saints is very rare for humans, that too you have got at this time, so prove your wish, what do you have to do with money, enjoyment, charity, yagya, penance and past deeds? Ultimate welfare is achieved only by reciting Vishwaroop Adhyay.

The nectar-filled sermon that came out from the mouth of Brahm named Sachchidanand Swaroop Shri Krishna to his friend Arjuna in Kurukshetra, is the supreme elemental form of Sri Vishnu, you think of him, he is the famous chemical for salvation, the man who is afraid of the world. It is the destroyer of half-diseases and the destroyer of sorrows of many births, I do not see any other means like this, so practice it.

Shri Mahadev says :- Having said this, he went to the supreme abode of Sri Vishnu with everyone, then the chief read that chapter from the mouth of the Brahmin, then both of them went to Vishnudham with his greatness, Parvati! In this way, the story of the greatness of the eleventh chapter has been told to you, just hearing it destroys the great sinners.

॥ Hari: Om Tat Sat.

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