भगवान श्रीकृष्ण की सत्संग महिमा

एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गये और प्रणाम करते हुए बोले, ‘हे लक्ष्मीपते, हे कमलनयन ! कृपा करके इस दास को सत्संग की महिमा सुनाइये।’

भगवान ने मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी मधुर वाणी में कहा- हे नारद ! सत्संग की महिमा का वर्णन करने में तो वाणी की गति नहीं है, फिर क्षण भर रूककर श्री भगवान बोले- ‘हाँ, यहाँ से तुम आगे जाओ। वहाँ इमली के पेड़ पर एक बड़ा विचित्र, रंगीन गिरगिट है, वह सत्संग की महिमा जानता है। उसी से पूछ लो।’

देवर्षि खुशी-खुशी इमली के पेड़ के पास गये और योगविद्या के बल से गिरगिट से बातें करने लगे। उन्होंने गिरगिट से पूछा- ‘सत्संग की महिमा क्या है ? कृपया बतलाइये।’

सवाल सुनते ही वह गिरगिट पेड़ से नीचे गिर गया और छटपटाते हुए प्राण छोड़ दिया। नारदजी को बड़ा अचंभा हुआ। वे डरकर लौट आये और भगवान को सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

भगवान ने मुस्कराते हुए कहा- ‘अच्छा, नगर के उस धनवान के घर जाओ और वहाँ जो तोता पिंजरे में दिखेगा, उसी से सत्संग की महिमा पूछ लेना।’

नारदजी क्षण भर में वहाँ पहुँच गये एवं तोते से वही सवाल पूछा, मगर देवर्षि के देखते ही देखते उसने आँखें मूंद लीं और उसके भी प्राणपखेरू उड़ गये, अब तो नारद जी बड़े घबरा गये।

वे तुरंत भगवान के पास लौट आये और कहने लगे- ‘यह क्या लीला है भगवन् ! क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है ?’

श्री भगवान हँसकर बोले- ‘वत्स ! इसका मर्म भी तुमको समझ में आ जायेगा। इस बार नगर के राजा के महल में जाओ और उसके नवजात पुत्र से अपना प्रश्न पूछो।’

नारदजी तो थरथर काँपने लगे और बोले- ‘हे प्रभु ! अब तक तो बच गया लेकिन अब की बार तो लगता है मुझे ही मरना पड़ेगा। अगर वह नवजात राजपुत्र मर गया तो राजा मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।’

भगवान ने नारदजी को अभयदान दिया। नारदजी दिल मुट्ठी में रखकर राजमहल में आये। वहाँ उनका बड़ा सत्कार किया गया। अब तक राजा को कोई संतान नहीं थी। अतः पुत्र के जन्म पर बड़े आनन्दोल्लास से उत्सव मनाया जा रहा था।

नारदजी ने डरते-डरते राजा से पुत्र के बारे में पूछा। नारदजी को राजपुत्र के पास ले जाया गया। पसीने से तर होते हुए, मन-ही-मन श्रीहरि का नाम लेते हुए नारदजी ने राजपुत्र से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया तो वह नवजात शिशु हँस पड़ा और बोला- ‘महाराज ! जैसे चंदन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता नहीं होता। ऐसे ही आप अपनी महिमा नहीं जानते इसलिए मुझसे पूछ रहे हैं।

वास्तव में आप ही के क्षणमात्र के संग से मैं गिरगिट की योनि से मुक्त हो गया और आप ही के दर्शनमात्र से तोते की क्षुद्र योनि से मुक्त होकर इस मनुष्य जन्म को पा सका।

आपके सान्निध्यमात्र से मेरी कितनी सारी योनियाँ कट गयीं और मैं सीधे मानव-तन में पहुँच गया, राजपुत्र बना। यह सत्संग का कितना अदभुत प्रभाव है ! हे ऋषिवर ! अब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य को पा लूँ।’

नारदजी ने खुशी-खुशी आशीर्वाद दिया और भगवान श्री हरि के पास जाकर सब कुछ बता दिया। श्रीहरि बोले- ‘सचमुच, सत्संग की बड़ी महिमा है। संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त !’ इसलिए जब भी समय मिले सत्संग कीजिये। ।। जय भगवान श्रीहरि नारायण ।।

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