नगर बसेरे की कथा

                    कार्तिक की कहानी

                         

          एक जाट का था एक भाट का था। दोनों दोस्त थे। जाट का चला बहन के, भाट का चला सासरे। रास्ते में कुएँ की पाल पर दोनों बैठ गए। जाट का बोला नगर बसेरा कर ले। भाट का बोला कि मैं तो सासरे जा रहा हूँ, खूब खातिर होगी, सो तू कर।
          जाट कुएँ की पाल पर बैठकर पानी की घण्टी और चावल का दाना लेकर नगर बसेरा करने लगा और बोला–‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता मांडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ ना देगी माँवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। मेरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालूँ पानी हो जाय घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ जाट का ठकरा कर के चल पड़ा।
          जाट के की बहन ने बूरा चावल जिमाकर खूब बातचीत की। भाट का पहुँचा तो सासरे में आग लगी पाई। बुझाते-बुझाते, राख उठाते-उठाते हाथ भी काला मुँह भी काला, रोटी न पानी। पड़ोसन आई बोली जवांई आया उसकी भी पूछ कर लो। सास बोली क्या करूँ, मेरा तो टापड़ा-भूपता सब चला आया। पड़ोसन ने एक रोटी और छाछ दी, उसने खा ली।
          शाम को दोनों फिर मिले, दोनों बोले कह बात। भाट का बोला–‘मेरी ससुराल में आग लगी पाई, बुझाते-बुझाते हाथ भी काला मुहँ भी काला रोटी ना पानी।
          जाट का बोला–‘मेरी तो खूब खातिर हुई। मैंने कही थी ना नगर बसेरा कर ले। बोला आ अब कर ले।’
          भाट का बोला–‘अब भी ना करूँ। तेरी मांवसी है पता नहीं रोटी दे या ना। मेरी तो माँ है, दही की छुंछली, चूरमा की पेड़ी धरी पवायेगी।’ भाट ने नहीं किया।
          जाट ने नगर बसेरा करा–‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता मांडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ दे ना मांवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। मेरा जिबड़ो श्री कृष्ण के पास, डालू पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ कर करा के चल पड़ा।
          घर पहुँचते ही जाट की मांवरसी ने बहुत लाड़-चाव किया। भाट का घर गया तो उनकी भैंस खो गई, बाप एक लाठी धरे एक उठावे, बोला कि ससुराल गया तो आग लगा दी, यहाँ आया तो भैंस खो दी। पहले भैंस खोजकर ला, तभी रोटी-पानी मिलेगी।
          सारा दिन हो गया ढूँढते-ढूँढते पर भैंस नही मिलीं बाजार में फिर दोनों मिले, तो जाट के ने पूछा–‘क्या खबर है।’ भाट का बोला कि आते ही मेरे बाप की भैंस खो गई, उसी दिन से ही ढूँढ़ रहा हूँ रोटियों का ठिकाना नहीं।’
          जाट बोला–‘मैंने पहले ही कहा था नगर बसेरा कर ले।’ भाट बोला कि तेरे नगर बसेरे में इतना गुण है, तो अब कर ले।
          दोनों नगर बसेरा करने लगे–‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता माँडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ दे ना माँवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। भरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालू पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ उन्होंने नगर बसेरा किया तो आगे चला तो रास्ते में भैंस मिल गई, लेकर घर गया।
          माँ बोली–‘लड़के को आते ही निकाल दिया, सारा दिन हो गया भूखा मरता।’ उसने खूब अच्छी तरह जिमाया।
          उन्होंने सारी नगरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि सब कोई कार्तिक में और पीहर, सासरे में आते-जाते नगर बसेरा करें।      
                           



Karthik’s story

एक जाट का था एक भाट का था। दोनों दोस्त थे। जाट का चला बहन के, भाट का चला सासरे। रास्ते में कुएँ की पाल पर दोनों बैठ गए। जाट का बोला नगर बसेरा कर ले। भाट का बोला कि मैं तो सासरे जा रहा हूँ, खूब खातिर होगी, सो तू कर। जाट कुएँ की पाल पर बैठकर पानी की घण्टी और चावल का दाना लेकर नगर बसेरा करने लगा और बोला-‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता मांडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ ना देगी माँवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। मेरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालूँ पानी हो जाय घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ जाट का ठकरा कर के चल पड़ा। जाट के की बहन ने बूरा चावल जिमाकर खूब बातचीत की। भाट का पहुँचा तो सासरे में आग लगी पाई। बुझाते-बुझाते, राख उठाते-उठाते हाथ भी काला मुँह भी काला, रोटी न पानी। पड़ोसन आई बोली जवांई आया उसकी भी पूछ कर लो। सास बोली क्या करूँ, मेरा तो टापड़ा-भूपता सब चला आया। पड़ोसन ने एक रोटी और छाछ दी, उसने खा ली। शाम को दोनों फिर मिले, दोनों बोले कह बात। भाट का बोला-‘मेरी ससुराल में आग लगी पाई, बुझाते-बुझाते हाथ भी काला मुहँ भी काला रोटी ना पानी। जाट का बोला-‘मेरी तो खूब खातिर हुई। मैंने कही थी ना नगर बसेरा कर ले। बोला आ अब कर ले।’ भाट का बोला-‘अब भी ना करूँ। तेरी मांवसी है पता नहीं रोटी दे या ना। मेरी तो माँ है, दही की छुंछली, चूरमा की पेड़ी धरी पवायेगी।’ भाट ने नहीं किया। जाट ने नगर बसेरा करा-‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता मांडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ दे ना मांवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। मेरा जिबड़ो श्री कृष्ण के पास, डालू पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ कर करा के चल पड़ा। घर पहुँचते ही जाट की मांवरसी ने बहुत लाड़-चाव किया। भाट का घर गया तो उनकी भैंस खो गई, बाप एक लाठी धरे एक उठावे, बोला कि ससुराल गया तो आग लगा दी, यहाँ आया तो भैंस खो दी। पहले भैंस खोजकर ला, तभी रोटी-पानी मिलेगी। सारा दिन हो गया ढूँढते-ढूँढते पर भैंस नही मिलीं बाजार में फिर दोनों मिले, तो जाट के ने पूछा-‘क्या खबर है।’ भाट का बोला कि आते ही मेरे बाप की भैंस खो गई, उसी दिन से ही ढूँढ़ रहा हूँ रोटियों का ठिकाना नहीं।’ जाट बोला-‘मैंने पहले ही कहा था नगर बसेरा कर ले।’ भाट बोला कि तेरे नगर बसेरे में इतना गुण है, तो अब कर ले। दोनों नगर बसेरा करने लगे-‘नगर बसेरा जो करे, सो मल धोवे पाँव, ताता माँडा तापसी देगी मेरी माँ, माँ दे ना माँवसी, देगा द्वारका का वासी, मीठा-मीठा गास, वृन्दावन का वास, पाँच कुल्ठी छठी रास। भरा जिबड़ो श्रीकृष्ण के पास, डालू पानी हो जाए घी, झट से निकल जाए मेरा जी।’ उन्होंने नगर बसेरा किया तो आगे चला तो रास्ते में भैंस मिल गई, लेकर घर गया। माँ बोली-‘लड़के को आते ही निकाल दिया, सारा दिन हो गया भूखा मरता।’ उसने खूब अच्छी तरह जिमाया। उन्होंने सारी नगरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि सब कोई कार्तिक में और पीहर, सासरे में आते-जाते नगर बसेरा करें।

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