शिव नीलकंठ कहलाए

                भगवान् शिव का लोकमंगल रूप

          एक समय की बात है, देवों और दानवों ने अमृत पाने की इच्छा से समुद्र-मन्थन किया। मन्थन में सर्वप्रथम सर्वाधिक विषैला कालकूट विष निकला। कालकूट की भयंकरता से प्राणिमात्र जीवन धारण करने के लिये चिन्तित हो उठा। यदि जीवों में कालकूट ने अपना विषैला प्रभाव दिखाया तो ब्रह्माजी की यह सृष्टि कैसे बचेगी ? प्राणी तो क्या देवता तथा दानवों में से कोई भी प्राणी–जलचर, थलचर, नभचर न बचेगा। यहाँ तक कि शस्यश्यामला धरा की उर्वराशक्ति भी सदा के लिये विनष्ट हो जायगी।
          कालकूट की ज्वाला से विश्व के सभी प्राणी झुलसने लगे। सृष्टि की रक्षा के लिये देव-दानव सभी चिन्तित हो उठे। ‘कहाँ रखा जाय इस विष को ?’ देव और दानव दोनों में देर तक मन्त्रणा होती रही। ऐसा कौन स्थान है, जहाँ विष का असर न हो ?
          केवल भगवान् शिव ही रक्षा कर सकते हैं। रक्षा की भावना से जो भी शंकर की शरण में जाता है, शम्भु के शान्तिमय, मुक्त, क्षमाशील और कल्याणरूप का स्मरण करके सहायता की आर्त पुकार करता है, वह सुरक्षा अवश्य पाता है।
          शिव का अर्थ ही मंगलमय, कुशलक्षेम और मुक्तिप्रदाता है। जो प्राणों पर शासन करते हैं, वे शिवात्मा कहलाते हैं। जो वायु को वश में रखते हैं, वे सदाशिव शुद्धात्मा कहलाते हैं। जो जीवन को वश में रखते हैं, वे परम शिव कहलाते हैं।
          देवताओं और दानवों ने भगवान् शंकर की विनती की–‘शिवस्य तु वशे कालो न कालस्य वशे शिवः।’ हे शिव ! काल आपके अधीन है, आप काल से मुक्त चिदानन्द हैं। जिसे मृत्यु को जीतना हो, उसे हे भगवन् ! आपमें स्थित होना चाहिये। आपका मन्त्र ही मृत्युंजय है। हे शंकर! आप त्र्यम्बक अर्थात् तीन नेत्रों वाले हैं। ‘सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्‘ आपके तीन नेत्र हैं। आप कर्म, भक्ति और ज्ञान को धारण करते हैं।
          भगवन् भू, भुवः और स्वः–भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक सर्वत्र आप ही परिव्याप्त हैं। जीवन, मृत्यु और मुक्ति-तीनों ही आपके नेत्र हैं। आप बालचन्द्र, गंगा और शक्ति-तीनों को धारण करते हैं। अतः कालकूट की दाहक ज्वाला से प्राणिमात्र की रक्षा कीजिये।
          उस विषम स्थिति में सबके हाथ विनती में शिव के आगे जुड़े हुए थे। सबने एकाग्र होकर बड़ी श्रद्धा पूर्वक भगवान् शिव का ध्यान किया। शिव का ध्यान सदा ही कल्याणकारी होता है।
          भक्तों की आर्त पुकार सुनकर भगवान् शिव प्रकट हुए। उन्होंने दुष्ट कालकूट की प्राणिमात्र को जलाने वाली ज्वालाएँ देखीं। वे सृष्टि का अन्त आते देखकर अचानक चिन्तित हो उठे। सोचने लगे–‘यदि सृष्टि में मानव समुदाय में कहीं भी यह विष-कलह-क्लेशरूप विष, मतभेद, राग-द्वेष, वाद-विवाद, संघर्ष, दोष-दुर्गुण आदि रहे तो प्राणिमात्र अशान्त होकर जलने लगेगा। इसे सुरक्षित रखने को ऐसी जगह होनी चाहिये कि यह किसी को नुकसान न पहुँचा सके। सभी जीव सुरक्षित रहें।
          ऐसा निरापद सुरक्षित स्थान मेरा, स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है। यदि हलाहल पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है, बाहर रह गया तो सारी सृष्टि ही भस्म हो जायगी। फिर ‘यह कहाँ रहे ?’
          उन्होंने एक ही आचमन में लोक संहारी विष को अपने गले में धारण कर लिया। तभी से विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीले रंग का हो गया, वे नीलकण्ठ कहलाने लगे और देवों के भी देव महादेव बन गये।
                                     



Lord Shiva’s folk form

एक समय की बात है, देवों और दानवों ने अमृत पाने की इच्छा से समुद्र-मन्थन किया। मन्थन में सर्वप्रथम सर्वाधिक विषैला कालकूट विष निकला। कालकूट की भयंकरता से प्राणिमात्र जीवन धारण करने के लिये चिन्तित हो उठा। यदि जीवों में कालकूट ने अपना विषैला प्रभाव दिखाया तो ब्रह्माजी की यह सृष्टि कैसे बचेगी ? प्राणी तो क्या देवता तथा दानवों में से कोई भी प्राणी-जलचर, थलचर, नभचर न बचेगा। यहाँ तक कि शस्यश्यामला धरा की उर्वराशक्ति भी सदा के लिये विनष्ट हो जायगी। कालकूट की ज्वाला से विश्व के सभी प्राणी झुलसने लगे। सृष्टि की रक्षा के लिये देव-दानव सभी चिन्तित हो उठे। ‘कहाँ रखा जाय इस विष को ?’ देव और दानव दोनों में देर तक मन्त्रणा होती रही। ऐसा कौन स्थान है, जहाँ विष का असर न हो ? केवल भगवान् शिव ही रक्षा कर सकते हैं। रक्षा की भावना से जो भी शंकर की शरण में जाता है, शम्भु के शान्तिमय, मुक्त, क्षमाशील और कल्याणरूप का स्मरण करके सहायता की आर्त पुकार करता है, वह सुरक्षा अवश्य पाता है। शिव का अर्थ ही मंगलमय, कुशलक्षेम और मुक्तिप्रदाता है। जो प्राणों पर शासन करते हैं, वे शिवात्मा कहलाते हैं। जो वायु को वश में रखते हैं, वे सदाशिव शुद्धात्मा कहलाते हैं। जो जीवन को वश में रखते हैं, वे परम शिव कहलाते हैं। देवताओं और दानवों ने भगवान् शंकर की विनती की-‘शिवस्य तु वशे कालो न कालस्य वशे शिवः।’ हे शिव ! काल आपके अधीन है, आप काल से मुक्त चिदानन्द हैं। जिसे मृत्यु को जीतना हो, उसे हे भगवन् ! आपमें स्थित होना चाहिये। आपका मन्त्र ही मृत्युंजय है। हे शंकर! आप त्र्यम्बक अर्थात् तीन नेत्रों वाले हैं। ‘सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्‘ आपके तीन नेत्र हैं। आप कर्म, भक्ति और ज्ञान को धारण करते हैं। भगवन् भू, भुवः और स्वः-भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक सर्वत्र आप ही परिव्याप्त हैं। जीवन, मृत्यु और मुक्ति-तीनों ही आपके नेत्र हैं। आप बालचन्द्र, गंगा और शक्ति-तीनों को धारण करते हैं। अतः कालकूट की दाहक ज्वाला से प्राणिमात्र की रक्षा कीजिये। उस विषम स्थिति में सबके हाथ विनती में शिव के आगे जुड़े हुए थे। सबने एकाग्र होकर बड़ी श्रद्धा पूर्वक भगवान् शिव का ध्यान किया। शिव का ध्यान सदा ही कल्याणकारी होता है। भक्तों की आर्त पुकार सुनकर भगवान् शिव प्रकट हुए। उन्होंने दुष्ट कालकूट की प्राणिमात्र को जलाने वाली ज्वालाएँ देखीं। वे सृष्टि का अन्त आते देखकर अचानक चिन्तित हो उठे। सोचने लगे-‘यदि सृष्टि में मानव समुदाय में कहीं भी यह विष-कलह-क्लेशरूप विष, मतभेद, राग-द्वेष, वाद-विवाद, संघर्ष, दोष-दुर्गुण आदि रहे तो प्राणिमात्र अशान्त होकर जलने लगेगा। इसे सुरक्षित रखने को ऐसी जगह होनी चाहिये कि यह किसी को नुकसान न पहुँचा सके। सभी जीव सुरक्षित रहें। ऐसा निरापद सुरक्षित स्थान मेरा, स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है। यदि हलाहल पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है, बाहर रह गया तो सारी सृष्टि ही भस्म हो जायगी। फिर ‘यह कहाँ रहे ?’ उन्होंने एक ही आचमन में लोक संहारी विष को अपने गले में धारण कर लिया। तभी से विष के प्रभाव से उनका कण्ठ नीले रंग का हो गया, वे नीलकण्ठ कहलाने लगे और देवों के भी देव महादेव बन गये।

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