भगवान राम का दशरथ को ज्ञानोपदेश


राजा दशरथ के दरबार में जब विश्वामित्र ऋषि ने आकर कहा कि ’महाराज मेरे यज्ञ में राक्षस विघ्न करते हैं, तुम राम-लक्ष्मण को मुझको दे दो।

यह सुन कर महाराज दशरथ का मुख कुम्हला गया और कांपते हृदय से उन्होंने ऋषि से कहा…

‘गुरुजी मैं आपसे स्पष्ट कहता हूँ कि जल के बिना कदाचित् मछली जीवित रह सके; परन्तु राम को देखे बिना यह दशरथ जीवित न रह सकेगा। मैं सब कुछ दे सकता हूँ; परंतु अपने राम को आपको नहीं दे सकता हूँ।’
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मागहु भूमि धेनु धन कोसा ।
सर्बस देऊँ आजु सहरोसा ।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं ।
सोउ मुनि देउँ निमिष एक माँही ।।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाई ।
राम देत नहिं बनइ गोसाईं ।।
(राचमा, बालकाण्ड)
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मानव शरीर नश्वर व दु:खरूप है
श्रीराम राजा दशरथ से कहते हैं—‘पिताजी ! यह जीवन क्षणभंगुर है। लोग मरने के लिए ही जन्म लेते हैं और जन्म लेने के लिए ही मरते हैं।
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यह मनुष्य देह अनेक विकारों से भरपूर, दुर्गंधयुक्त और मलपिण्ड है; जो अंत में मृत्यु के मुख में चली जाने वाली है। इस देह से अधिक सारहीन और नाकाम पदार्थ तीनों लोकों में दूसरा कोई भी नहीं है।

इस दु:खरूप देह में अनेक वासना रूपी जहरीले सर्प निवास करते हैं। यह अनेक चिन्ताओं और रोगों का धाम है।

मानव का अपना शरीर जिसका जीवन-भर उसने इतना ध्यान रखा, केवल चिता तक साथ देता है।

उसकी प्रिय पत्नी शोक से विह्वल होकर भी केवल दरवाजे तक साथ देती है, मित्र व परिवारीजन शमशान तक साथ जाते हैं और उसकी देह को भी शीघ्रता से घर से बाहर निकालने की चेष्टा करते हैं, कहीं वजन न बढ़ जाए।

ऐसे कृतघ्नी शरीर पर कैसे आस्था रखी जाए ?

मानव शरीर की प्रत्येक अवस्था दु:खमय है
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पिताजी ! इस संसार में सुख-शांति कहां है ? इस जगत का स्वरूप ऊपर से मनमोहक है, परंतु परिणाम में अत्यंत अप्रिय है।

बाल्यावस्था में भी जीव को शांति कहां है ? बचपन में जीव अशक्ति और न बोल पाने के कारण लाचार रहता है। बालक का हृदय भय से पीड़ित रहता है; इसलिए वह रो-रोकर कष्ट पाता है। चंचलता और अच्छे-बुरे का विवेक न होने के कारण बालक को बहुत क्लेश होता है।
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बाल्यावस्था में मनुष्य अभी पूरी तरह खेलकूद भी नहीं पाता कि उससे पहले बचपन को यौवन निगल जाता है।
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जवानी में काम मनुष्य की छाती पर चढ़ बैठता है; जिससे उसका मन व बुद्धि अनेक विकारों से भर जाती है और वह इंद्रियों का गुलाम बन जाता है।
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यौवन भी बाहर से सुखमय दिखता है; परंतु थोड़े समय में ही ठिकाने लग जाता है। यौवनावस्था में पुरुष को स्त्री-देह और स्त्री को पुरुष-देह लुभाती है; परंतु इस शरीर में सुंदर क्या है ?
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यह तो मांस-मज्जा, नाड़ी और अस्थियों का एक पिंजर है, जिसके ऊपर चमड़ी मढ़ दी गई है। यह शरीर बाहर से केश और अंदर से रक्त से भरा हुआ है। यदि चमड़ी को देह से अलग कर दिया जाए तो शरीर को देखने की इच्छा भी नहीं होगी वरन् घिन ही आएगी।
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यौवन में भोगने की अभिलाषा होती है; परंतु तुलसीदास जी कहते हैं—
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‘विष रस भरा कनक घटु जैसे।’
(बालकाण्ड)

यह स्त्री देह विषलता के समान है, जो मनुष्य को सन्मार्ग से हटा कर मृत्यु की ओर ढकेल देती है।

भोग केवल ऊपर-ऊपर से ही सुंदर लगते हैं, सुख का आभास कराते हैं; परंतु देते मनुष्य को दु:ख ही हैं। भोगों के त्याग से ही शांति मिलती है।
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वृद्धावस्था बहुत भौंड़ी होती है। वह देह को शिथिल और जर्जर कर मनुष्य के रूप को बिगाड़ देती है। मनुष्य की बुद्धि बिगड़ जाती है। चिंता, भय और लाचारी बढ़ जाती है।
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लेकिन बुढ़ापे में मनुष्य के मन और जीभ जवान हो जाते हैं। मन जवानी में भोगे हुए सुखों को बार-बर याद करता है। यद्यपि खाया हुआ पचता नहीं फिर भी जीभ नित नए स्वाद मांगती है।
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लोग हंसी उड़ाते हैं, कोई सेवा करता नहीं, सब अपमान करते हैं; फिर भी मनुष्य को जीने की इच्छा रहती है। यह कैसी बिडम्बना है ?
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मनुष्य का जीवन बकरे की तरह ‘मैं-मैं’ करने में ही बीतता है। मनुष्य की ‘मैं-मैं’ सुन कर काल रूपी भेड़िया आ जाता है। काल से कोई बच सकता नहीं।
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जैसे समुद्र में बुलबुला उत्पन्न होकर पल भर में ही नष्ट हो जाता है; उसी प्रकार यह मानव शरीर भी उत्पन्न होकर पल भर में नाश को प्राप्त हो जाता है।
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बिल्ली जिस प्रकार चूहे को निगल जाने की ताक में रहती है, उसी प्रकार काल मनुष्य को निगल जाने को ताका करता है। काल की पकड़ से वही छूट सकता है, जिसे ब्रह्मज्ञान है, जिसे परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं।
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मनुष्य का जीवन आज तो पूरा सौ वर्ष का भी नहीं है। ऐसे छोटे से जीवन का आधा भाग नींद में बीत जाता है। एक चौथाई भाग बचपन और बुढ़ापे में बीतता है, जिसमें मनुष्य को छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना होता है।
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अब जो दूसरा चौथाई भाग बचा, वह पेट भरने के लिए किए जाने वाले परिश्रम और उसकी चिंता में बीतता है।
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फिर काल का भय भी निरंतर बना रहता है। मनुष्य को सत्कर्म करने के लिए समय रहता ही कहां है ? ऐसे जीवन में सुख कहां से प्राप्त हो सकता है ?
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इस प्रकार जगत में अनेक योनियों में भटकते हुए जीवों की आयु भोग भोगने में और पाप करने में ही बीत जाती है। तब फिर संसार नाम के इस पदार्थ में मेरे जैसों का क्या विश्वास रहे ?
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प्रभु श्रीराम के ऐसे ज्ञानपूर्ण वचन सुन कर वहां बैठे ऋषि वसिष्ठ, मुनि विश्वामित्र और सभी ब्रह्मज्ञानियों को अत्यंत आश्चर्य हुआ कि ऐसा बृहस्पति जी भी नहीं बोल सकते, ऐसे अपूर्व वचन ये कुमार बोल रहा है। कितना ज्ञान है इस किशोर में ?

विश्वामित्र जी ने राम जी से कहा—‘राम ! जो जानने योग्य है, वह सब कुछ तुम जान ही चुके हो। अब कुछ विशेष जानना बाकी नहीं है। बस इसे थोड़ा स्थिर करने की आवश्यकता है।



राजा दशरथ के दरबार में जब विश्वामित्र ऋषि ने आकर कहा कि ’महाराज मेरे यज्ञ में राक्षस विघ्न करते हैं, तुम राम-लक्ष्मण को मुझको दे दो। यह सुन कर महाराज दशरथ का मुख कुम्हला गया और कांपते हृदय से उन्होंने ऋषि से कहा… ‘गुरुजी मैं आपसे स्पष्ट कहता हूँ कि जल के बिना कदाचित् मछली जीवित रह सके; परन्तु राम को देखे बिना यह दशरथ जीवित न रह सकेगा। मैं सब कुछ दे सकता हूँ; परंतु अपने राम को आपको नहीं दे सकता हूँ।’ . मागहु भूमि धेनु धन कोसा । सर्बस देऊँ आजु सहरोसा ।। देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं । सोउ मुनि देउँ निमिष एक माँही ।। सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाई । राम देत नहिं बनइ गोसाईं ।। (राचमा, बालकाण्ड) . मानव शरीर नश्वर व दु:खरूप है श्रीराम राजा दशरथ से कहते हैं—‘पिताजी ! यह जीवन क्षणभंगुर है। लोग मरने के लिए ही जन्म लेते हैं और जन्म लेने के लिए ही मरते हैं। . यह मनुष्य देह अनेक विकारों से भरपूर, दुर्गंधयुक्त और मलपिण्ड है; जो अंत में मृत्यु के मुख में चली जाने वाली है। इस देह से अधिक सारहीन और नाकाम पदार्थ तीनों लोकों में दूसरा कोई भी नहीं है। इस दु:खरूप देह में अनेक वासना रूपी जहरीले सर्प निवास करते हैं। यह अनेक चिन्ताओं और रोगों का धाम है। मानव का अपना शरीर जिसका जीवन-भर उसने इतना ध्यान रखा, केवल चिता तक साथ देता है। उसकी प्रिय पत्नी शोक से विह्वल होकर भी केवल दरवाजे तक साथ देती है, मित्र व परिवारीजन शमशान तक साथ जाते हैं और उसकी देह को भी शीघ्रता से घर से बाहर निकालने की चेष्टा करते हैं, कहीं वजन न बढ़ जाए। ऐसे कृतघ्नी शरीर पर कैसे आस्था रखी जाए ? मानव शरीर की प्रत्येक अवस्था दु:खमय है . पिताजी ! इस संसार में सुख-शांति कहां है ? इस जगत का स्वरूप ऊपर से मनमोहक है, परंतु परिणाम में अत्यंत अप्रिय है। बाल्यावस्था में भी जीव को शांति कहां है ? बचपन में जीव अशक्ति और न बोल पाने के कारण लाचार रहता है। बालक का हृदय भय से पीड़ित रहता है; इसलिए वह रो-रोकर कष्ट पाता है। चंचलता और अच्छे-बुरे का विवेक न होने के कारण बालक को बहुत क्लेश होता है। . बाल्यावस्था में मनुष्य अभी पूरी तरह खेलकूद भी नहीं पाता कि उससे पहले बचपन को यौवन निगल जाता है। . जवानी में काम मनुष्य की छाती पर चढ़ बैठता है; जिससे उसका मन व बुद्धि अनेक विकारों से भर जाती है और वह इंद्रियों का गुलाम बन जाता है। . यौवन भी बाहर से सुखमय दिखता है; परंतु थोड़े समय में ही ठिकाने लग जाता है। यौवनावस्था में पुरुष को स्त्री-देह और स्त्री को पुरुष-देह लुभाती है; परंतु इस शरीर में सुंदर क्या है ? . यह तो मांस-मज्जा, नाड़ी और अस्थियों का एक पिंजर है, जिसके ऊपर चमड़ी मढ़ दी गई है। यह शरीर बाहर से केश और अंदर से रक्त से भरा हुआ है। यदि चमड़ी को देह से अलग कर दिया जाए तो शरीर को देखने की इच्छा भी नहीं होगी वरन् घिन ही आएगी। . यौवन में भोगने की अभिलाषा होती है; परंतु तुलसीदास जी कहते हैं— . ‘विष रस भरा कनक घटु जैसे।’ (बालकाण्ड) यह स्त्री देह विषलता के समान है, जो मनुष्य को सन्मार्ग से हटा कर मृत्यु की ओर ढकेल देती है। भोग केवल ऊपर-ऊपर से ही सुंदर लगते हैं, सुख का आभास कराते हैं; परंतु देते मनुष्य को दु:ख ही हैं। भोगों के त्याग से ही शांति मिलती है। . वृद्धावस्था बहुत भौंड़ी होती है। वह देह को शिथिल और जर्जर कर मनुष्य के रूप को बिगाड़ देती है। मनुष्य की बुद्धि बिगड़ जाती है। चिंता, भय और लाचारी बढ़ जाती है। . लेकिन बुढ़ापे में मनुष्य के मन और जीभ जवान हो जाते हैं। मन जवानी में भोगे हुए सुखों को बार-बर याद करता है। यद्यपि खाया हुआ पचता नहीं फिर भी जीभ नित नए स्वाद मांगती है। . लोग हंसी उड़ाते हैं, कोई सेवा करता नहीं, सब अपमान करते हैं; फिर भी मनुष्य को जीने की इच्छा रहती है। यह कैसी बिडम्बना है ? . मनुष्य का जीवन बकरे की तरह ‘मैं-मैं’ करने में ही बीतता है। मनुष्य की ‘मैं-मैं’ सुन कर काल रूपी भेड़िया आ जाता है। काल से कोई बच सकता नहीं। . जैसे समुद्र में बुलबुला उत्पन्न होकर पल भर में ही नष्ट हो जाता है; उसी प्रकार यह मानव शरीर भी उत्पन्न होकर पल भर में नाश को प्राप्त हो जाता है। . बिल्ली जिस प्रकार चूहे को निगल जाने की ताक में रहती है, उसी प्रकार काल मनुष्य को निगल जाने को ताका करता है। काल की पकड़ से वही छूट सकता है, जिसे ब्रह्मज्ञान है, जिसे परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं। . मनुष्य का जीवन आज तो पूरा सौ वर्ष का भी नहीं है। ऐसे छोटे से जीवन का आधा भाग नींद में बीत जाता है। एक चौथाई भाग बचपन और बुढ़ापे में बीतता है, जिसमें मनुष्य को छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना होता है। . अब जो दूसरा चौथाई भाग बचा, वह पेट भरने के लिए किए जाने वाले परिश्रम और उसकी चिंता में बीतता है। . फिर काल का भय भी निरंतर बना रहता है। मनुष्य को सत्कर्म करने के लिए समय रहता ही कहां है ? ऐसे जीवन में सुख कहां से प्राप्त हो सकता है ? . इस प्रकार जगत में अनेक योनियों में भटकते हुए जीवों की आयु भोग भोगने में और पाप करने में ही बीत जाती है। तब फिर संसार नाम के इस पदार्थ में मेरे जैसों का क्या विश्वास रहे ? . प्रभु श्रीराम के ऐसे ज्ञानपूर्ण वचन सुन कर वहां बैठे ऋषि वसिष्ठ, मुनि विश्वामित्र और सभी ब्रह्मज्ञानियों को अत्यंत आश्चर्य हुआ कि ऐसा बृहस्पति जी भी नहीं बोल सकते, ऐसे अपूर्व वचन ये कुमार बोल रहा है। कितना ज्ञान है इस किशोर में ? विश्वामित्र जी ने राम जी से कहा—‘राम ! जो जानने योग्य है, वह सब कुछ तुम जान ही चुके हो। अब कुछ विशेष जानना बाकी नहीं है। बस इसे थोड़ा स्थिर करने की आवश्यकता है।

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