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छन्द-
नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदांबुजं, अकामिनां स्वधामदं।।१।।
निकाम श्याम सुन्दरं, भवांबुनाथ मंदरं।
प्रफुल्ल कंज लोचनं, मदादि दोष मोचनं।।२।।
प्रलंब बाहु विक्रमं, प्रभोअप्रमेय वैभवं।
निषंग चाप सायकं, धरं त्रिलोक नायकं।।३।।
दिनेश वंश मंडनं, महेश चाप खंडनं।
मुनीन्द्र संत रंजनं, सुरारि वृंद भंजनं।।४।।
मनोज वैरि वंदित, अजादि देव सेवितं।
विशुद्ध बोध विग्रहं, समस्त दूषणपहं।।५।।
नमामि इंदिरा पतिं, सुखाकरं सतां गतिं।
भजं सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं।।६।।
त्वदंघ्रि मूल ये नराः, भजंति हीन मत्सराः।
पतंति नो भवार्णवे, वितर्क वीचि संकुले।।७।।
विविक्त वासिनः सदा, भजंति मुक्तये मुदा।
निरस्य इंद्रियादिकं, प्रयांति ते गतिं स्वकं।।८।।
तमेकमद्भूतं प्रभुं, निरीहमीश्वरं विभुं।
जगद्गुरुं च शाश्वतं, तुरीयमेव केवलं।।९।।
भजामि भाव वल्लभं, कुयोगिनां सुदुर्लभं।
स्वभक्त कल्प पादपं, समं सुसेव्यमन्वहं।।१०।।
अनूप रूप भूपतिं, नतोअहमुर्विजा पतिं।
प्रसीद मे नमामि ते, पदाब्ज भक्ति देहि मे।।११।।
पठंति ये स्तवं इदं, नरादरेण ते पदं।
व्रजंति नात्र संशयं, त्वदीय भक्ति संयुक्ता:।।१२।।
दोहा-
बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि।।४।।
भावार्थ-
हे भक्तवत्सल ! हे कृपालु ! हे कोमल स्वभाववाले ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषोंको अपना परमधाम देनेवाले आपके चरणकमलोंको मैं भजता हूँ।।१।।
आप नितान्त सुन्दर श्याम, संसार ( आवागमन ) रूपी समुद्रको मथनेके लिये मन्द्राचलरूप, फुले हुए कमलके समान नेत्रोंवाले और मद आदि दोषोंसे छुड़ानेवाले हैं।।२।।
हे प्रभो ! आपकी लम्बी भुजाओंका पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धिके परे अथवा असीम ) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करनेवाले तीनों लॉकों के स्वामी।।३।।
सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़नेवाले,मुनिराजों और संतोंको आनन्द देनेवाले तथा देवताओंके शत्रु असुरोंके समूहका नाश करनेवाले है।।४।।
आप कामदेव के शत्रु महादेवजीके द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं ने सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषोंको नष्ट करनेवाले हैं।। ५।।
हे लक्ष्मीपते ! हे सुखोंकी खान और सत्पुरुषोंकी एकमात्र गति ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे शचीपति ( इंद्र ) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी )! स्वरूपा-शक्ति श्रीसीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको भजता हूँ।।६।।
जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरणकमलों का सेवन करते हैं,वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरङ्गों से पूर्ण संसाररूपी समुद्र में नही गिरते (आवागमनके चक्करमें नहीं पड़ते)।।७।।
जो एकांतवासी पुरुष मुक्तिके लिये, इंद्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर ) प्रसन्तापूर्वक आपको भजते हैं,वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं।।८।।
उन (आप) को जो एक (अद्वितीय) ,अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगदगुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थि ) है।।९।।
तथा जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिये अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिये कल्पवृक्ष (अर्थात उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले), सम (पक्षपात रहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरन्तर भजता हूँ।।१०।।
हे अनुपम सुन्दर ! हे पृथ्वीपति ! हे जानकीनाथ ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझपर प्रसन्न होइये, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरणकमलोंकी भक्ति दीजिये।।११।।
जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परमपद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नही है।।१२।।
मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ ! मेरी बुद्धि आपके चरणकमलों को कभी न छोड़े।।४।।
।। जय नारायणावतार भगवान श्रीराम ।।
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Verse- I bow to the devotee who is affectionate, merciful and gentle in character. I worship Your lotus feet, the abode of the unwilling.
Nikam Shyam Sundaram, Bhavambunath Mandir. Bright lotus eyes, freeing from the evils of intoxication and others.
Prolonged arm prowess, Lord immeasurable glory. Nishanga bow arrow, hold the hero of the three worlds.
Dinesh dynasty adornment, Mahesh arc refutation. O lord of sages, you are the delight of saints, you are the breaker of the host of wines.
Manoj Vairi Vandit, Ajadi Dev Sevitam. Pure enlightenment conflict, removing all contamination.
I bow to Indira, the husband, the happy path of the virtuous. I worship my brother with my power, my dear brother, the husband of Sachi.
Those men who are at the root of Thy feet, worship without envy. They fall us into the ocean of death, in the crowd of searching for arguments.
They live in solitude always, worshiping for liberation with joy. Rejecting the senses and others, they go to their own destination.
That one wonderful Lord, the selfless God, the Almighty. And the eternal teacher of the universe, the fourth alone.
I worship the dearest of feelings, very rare for the bad yogis. The tree of the Kalpa of his devotee, is equally well served daily.
Anoop rup bhupatim, natoahmurvija patim. Have mercy on me, I bow to You, and grant me devotion to Your lotus feet.
Those who recite this hymn, with respect to men, their feet. They go there, no doubt, united with Thy devotion.
Couplet- Please pray to the sage, saying siru, you will be very happy. Charan Saroruh Nath Jani, when will I die..4..
gist- O devotee! O merciful one! O gentle natured one! I salute you. I worship your lotus feet which gives its supreme abode to selfless people.1.
You are extremely beautiful dark, in the form of Mandrachal to churn the ocean of the world (avagamana), with eyes like blossoming lotuses and freeing from the evils of intoxication and others.
Oh, Lord ! The might of your long arms and your majesty are immeasurable (beyond the intellect or limitless). You are the master of the three locks holding the quiver and the bow and arrow.
The ornaments of the Suryavansh are the ones who break the bow of Mahadevji, give joy to sages and saints and destroy the group of demons who are enemies of the gods. 4.
You are the one worshiped by Mahadevji, the enemy of Kamadeva, served by the gods like Brahma, the deity of pure knowledge and the one who destroys all the faults. 5.
Oh Lord Lakshmi! O mine of happiness and the only path of good men! I salute you. O dear younger brother (Vamanji) of Sachipati (Indra)! Swarupa-Shakti, I worship you along with Shri Sitaji and younger brother Lakshmanji.
Those people who eat your lotus feet without being jealous, do not fall into the ocean of the world full of waves of arguments (various types of doubts). 7.
Those solitary men who worship you happily by controlling the senses (removing them from objects) for the sake of liberation, attain their own state (their own form).8.
To those (you) who are one (unique), wonderful (unique from the material world), Lord (all-powerful), desireless, Ishwar (Lord of all), all-pervasive, world-guru, eternal (eternal), Turiya (completely beyond the three gunas) and It is only (stable in its form).
And I constantly worship the one who is very loving to the senses, extremely rare for Kuyogis (subjective persons), Kalpavriksha for his devotees (i.e. the one who fulfills all their desires), sama (without bias) and always able to be consumed happily.10. .
O unique beauty! Oh Lord of the Earth! Hey Janakinath! I salute you. Be pleased with me, I salute you. Give me devotion to your lotus feet..11..
There is no doubt that those people who read this praise respectfully, with devotion towards you, attain your supreme position.
The sage prayed (thus) and then bowed his head and folded his hands and said – O Lord! May my intellect never leave your lotus feet.4.
, Jai Narayanavtar Lord Shri Ram.