किसीने महात्मा गांधीजीसे पूछा कि ‘रामचन्द्रने सीताका अग्निमें प्रवेश कराया और उसका त्याग किया। युधिष्ठिरने जुआ खेला और द्रौपदीकी रक्षा करनेकी भी हिम्मत नहीं बतलायी। नलने अपनी पत्नीपर कलङ्क लगाया और अर्धनग्न अवस्थामें उसे घोर वनमें अकेलीछोड़ दिया। इन तीनोंको पुरुष कहें या राक्षस ?’ इसके उत्तरमें महात्माजीने उनको लिखा
‘इसका जवाब सिर्फ दो ही व्यक्ति दे सकते हैं या तो स्वयं कवि या वे सतियाँ। मैं तो प्राकृत दृष्टिसे देखता हूँ तो मुझे ये तीनों ही पुरुष वन्दनीय लगते हैं।रामकी तो बात ही छोड़ देनी चाहिये । परंतु आइये, जरा देरके लिये ऐतिहासिक रामको दूसरे दोनोंकी पंक्ति में रख दें। ये तीनों सतियाँ इतिहासमें सती न बखानी गयी होतीं यदि वे इन तीनों महापुरुषोंकी अर्धाङ्गनाके रूपमें न रही होतीं। दमयन्तीने नलका नाम रसनासे नहीं छोड़ा, सीताके लिये रामके सिवा इस जगत्में दूसरा कोई न था । द्रौपदी धर्मराजपर भौंहें ताने रहती थीं, फिर भी उनसे जुदा नहीं होती थीं। जब-जब इन तीनोंने इन सतियोंको सताया, तब-तब हम यदि उनकी हृदय गुफामें बैठ गये होते तो उसमें जलती हुई दुःखाग्नि हमें भस्म कर डालती । रामको जो दुःख हुआ है, उसका चित्र भवभूतिने चित्रित किया है । द्रौपदीको फूलकी तरह रखनेवाले भी वे पाँचों भाई थे। उसके बोल सहनेवाले भी वही थे। नलने जो कुछ किया, वह तो अपनी अचेत अवस्थामें। नलकी पत्नी-परायणताको तो देवता भी उस समय आकाशमें झाँककर देख रहे थे, जब वह ऋतुपर्णको लेकर आया था। इन तीनों सतियोंके प्रमाणपत्र मेरे लिये बस हैं। हाँ, यह सच है।कि कवियोंने इनको पतियोंसे विशेष गुणवती चित्रित किया है। सीताके बिना रामकी क्या शोभा ? दमयन्तीके बिना नलकी क्या शोभा ? और द्रौपदीके बिना धर्मराजकी क्या शोभा ? पुरुष विह्वल, उनके धर्म- प्रसङ्गानुसार भिन्न-भिन्न और उनकी भक्ति ‘व्यभिचारिणी’ है। पर इन सतियोंकी भक्ति तो स्वच्छ स्फटिक मणिकी तरह अव्यभिचारिणी है। स्त्रीकी क्षमाशीलताके सामने पुरुषकी क्षमाशीलता कोई चीज नहीं। और क्षमा तो वीरताका लक्षण है। इसलिये ये तीनों सतियाँ अबला नहीं बल्कि सबला थीं। पर मानना चाहें तो यह दोष पुरुषमात्रका मान सकते हैं, नलादिका विशेषरूपसे नहीं। कवियोंने इन सतियोंको सहनशीलताकी साक्षात् मूर्ति चित्रित किया है। मैं तो इनको सती-शिरोमणिके रूपमें पहचानता हूँ। परंतु इनके पुण्यरूप पतियोंको राक्षसके रूपमें नहीं देखना चाहता। उन्हें राक्षस माननेसे सतियाँ दूषित होती हैं। सतियोंके पास आसुरी भावना रह ही नहीं सकती। हाँ, वे सतियोंसे कनिष्ठ भले ही माने जायँ पर दोनोंकी जाति तो एक ही है, दोनों पूजनीय हैं।’
किसीने महात्मा गांधीजीसे पूछा कि ‘रामचन्द्रने सीताका अग्निमें प्रवेश कराया और उसका त्याग किया। युधिष्ठिरने जुआ खेला और द्रौपदीकी रक्षा करनेकी भी हिम्मत नहीं बतलायी। नलने अपनी पत्नीपर कलङ्क लगाया और अर्धनग्न अवस्थामें उसे घोर वनमें अकेलीछोड़ दिया। इन तीनोंको पुरुष कहें या राक्षस ?’ इसके उत्तरमें महात्माजीने उनको लिखा
‘इसका जवाब सिर्फ दो ही व्यक्ति दे सकते हैं या तो स्वयं कवि या वे सतियाँ। मैं तो प्राकृत दृष्टिसे देखता हूँ तो मुझे ये तीनों ही पुरुष वन्दनीय लगते हैं।रामकी तो बात ही छोड़ देनी चाहिये । परंतु आइये, जरा देरके लिये ऐतिहासिक रामको दूसरे दोनोंकी पंक्ति में रख दें। ये तीनों सतियाँ इतिहासमें सती न बखानी गयी होतीं यदि वे इन तीनों महापुरुषोंकी अर्धाङ्गनाके रूपमें न रही होतीं। दमयन्तीने नलका नाम रसनासे नहीं छोड़ा, सीताके लिये रामके सिवा इस जगत्में दूसरा कोई न था । द्रौपदी धर्मराजपर भौंहें ताने रहती थीं, फिर भी उनसे जुदा नहीं होती थीं। जब-जब इन तीनोंने इन सतियोंको सताया, तब-तब हम यदि उनकी हृदय गुफामें बैठ गये होते तो उसमें जलती हुई दुःखाग्नि हमें भस्म कर डालती । रामको जो दुःख हुआ है, उसका चित्र भवभूतिने चित्रित किया है । द्रौपदीको फूलकी तरह रखनेवाले भी वे पाँचों भाई थे। उसके बोल सहनेवाले भी वही थे। नलने जो कुछ किया, वह तो अपनी अचेत अवस्थामें। नलकी पत्नी-परायणताको तो देवता भी उस समय आकाशमें झाँककर देख रहे थे, जब वह ऋतुपर्णको लेकर आया था। इन तीनों सतियोंके प्रमाणपत्र मेरे लिये बस हैं। हाँ, यह सच है।कि कवियोंने इनको पतियोंसे विशेष गुणवती चित्रित किया है। सीताके बिना रामकी क्या शोभा ? दमयन्तीके बिना नलकी क्या शोभा ? और द्रौपदीके बिना धर्मराजकी क्या शोभा ? पुरुष विह्वल, उनके धर्म- प्रसङ्गानुसार भिन्न-भिन्न और उनकी भक्ति ‘व्यभिचारिणी’ है। पर इन सतियोंकी भक्ति तो स्वच्छ स्फटिक मणिकी तरह अव्यभिचारिणी है। स्त्रीकी क्षमाशीलताके सामने पुरुषकी क्षमाशीलता कोई चीज नहीं। और क्षमा तो वीरताका लक्षण है। इसलिये ये तीनों सतियाँ अबला नहीं बल्कि सबला थीं। पर मानना चाहें तो यह दोष पुरुषमात्रका मान सकते हैं, नलादिका विशेषरूपसे नहीं। कवियोंने इन सतियोंको सहनशीलताकी साक्षात् मूर्ति चित्रित किया है। मैं तो इनको सती-शिरोमणिके रूपमें पहचानता हूँ। परंतु इनके पुण्यरूप पतियोंको राक्षसके रूपमें नहीं देखना चाहता। उन्हें राक्षस माननेसे सतियाँ दूषित होती हैं। सतियोंके पास आसुरी भावना रह ही नहीं सकती। हाँ, वे सतियोंसे कनिष्ठ भले ही माने जायँ पर दोनोंकी जाति तो एक ही है, दोनों पूजनीय हैं।’