पाण्डव वनवासका जीवन व्यतीत कर रहे थे। भगवान् व्यासकी प्रेरणासे अर्जुन अपने भाइयोंकी आजा लेकर तपस्या करने गये तप करके उन्होंने भगवान् शङ्करको प्रसन्न किया, आशुतोषने उन्हें अपना पाशुपतास्त्र प्रदान किया। इसके अनन्तर देवराज इन्द्र अपने रथमें बैठाकर अर्जुनको स्वर्गलोक ले गये। इन्द्रने तथा अन्य लोकपालोंने भी अपने दिव्यास्त्र अर्जुनको दिये। उन दिव्यास्त्रोंको लेकर अर्जुनने देवताओंके शत्रु निवात कवच नामक असुरगणोंपर आक्रमण कर दिया। देवता भी उन असुरोंपर विजय नहीं पा रहे थे, उन असुरोंके बार-बारके आक्रमणसे देवता संत्रस्त हो रहे थे। अर्जुनने युद्धमें असुरोंको पराजित कर दिया। उनके गाण्डीव धनुषसे छूटे बाणोंकी मारसे व्याकुल होकर असुर भाग खड़े हुए और पाताल चले गये।
– विजयी मध्यम पाण्डव जब अमरावती असुर-1 लौटे, तब देवताओंने बड़े उल्लाससे उनका स्वागत किया। देवसभा भरपूर सजायी गयी। देवराज इन्द्र अर्जुनको साथ लेकर अपने सिंहासनपर बैठे। गन्धर्वगणोंने वीणा उठायी। स्वर्गकी श्रेष्ठतम अप्सराएँ एक-एक करके नृत्य करने लगीं। देवराज किसी भी प्रकार अर्जुनको संतुष्ट करना चाहते थे। वे ध्यानसे अर्जुनकी ओर देख रहे थे कि उनकी रुचि और आकर्षणकापता लगा सकें। अर्जुन स्वर्ग में थे। प्रापञ्चिक सौन्दर्य एवं ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा स्वर्गभूमि आज विशेषरूपसे सजायी गयी थी। अप्सराएँ अपनी समस्त कला प्रकट करके देवताओं तथा देवराजके परमप्रिय अतिथिको रिझा लेना चाहती थीं। देवप्रतिहारी एक नृत्य समाप्त होनेपर दूसरी अप्सराका नाम लेकर परिचय देता और देवसभा एक नवीन झंकृतिसे झूम उठती। परंतु जिस अर्जुनके स्वागतमें यह सब हो रहा था, वे मस्तक झुकाये, नेत्र नीचे किये शान्त बैठे थे। स्वर्गके इस वैभवमें उन्हें अपने वल्कल पहिने, फल-मूल खाकर भूमिशयन करनेवाले वनवासी भाई स्मरण आ रहे थे। उन्हें तनिक भी आकर्षण नहीं जान पड़ता था अमरावतीमें।
सहसा देवप्रतिहारीने उर्वशीका नाम लिया। अर्जुनका सिर ऊपर उठा । देवसभामें उपस्थित होकर नृत्य करती उर्वशीको उन्होंने कई बार देखा। सहस्रलोचन इन्द्रने यह बात लक्षित कर ली। महोत्सव समाप्त होनेपर देवराजने गन्धर्वराज चित्रसेनको अपने पास बुलाकर कहा “उर्वशीके पास जाकर मेरी यह आज्ञा सूचित कर दो कि आज रात्रिमें वे अर्जुनकी सेवामें पधारें। अर्जुन हम सबके परम प्रिय हैं। उन्हें आज वे अवश्य प्रसन्न करें।’ उर्वशी स्वयं अर्जुनपर अनुरक्त हो चुकी थी ।चित्रसेनके द्वारा जब उसे देवराजका आदेश मिला, तब उसने उसे बड़ी प्रसन्नतासे स्वीकार किया। उस दिन उसने अपनेको उतना सजाया जितना वह अधिक-से अधिक सजा सकती थी। रात्रिमें भरपूर शृङ्गार करके वह अर्जुनके निवासस्थानपर पहुँची।
अर्जुन उर्वशीको देखते ही शय्यासे उठकर खड़े हो गये। दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम किया और बोले—’माता! आप इस समय कैसे पधारों? मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’
उर्वशी तो अर्जुनके सम्बोधनसे ही भौंचक्की रह गयी। उसने स्पष्ट बतलाया कि वह स्वयं उनपर आसक्त है और देवराजका भी उसे आदेश मिला है। उसने प्रार्थना की कि अर्जुन उसे स्वीकार करें। लेकिन अर्जुनने स्थिरभावसे कहा-‘आप मुझसे ऐसी अनुचित बात फिर न कहें। आप ही कुरुकुलकी जननी हैं, यह बात मैंने ऋषियोंसे सुन रखी थी। आज देवसभामें जब प्रतिहारीने आपका नाम लिया, तब मुझे आपका दर्शन करनेकी इच्छा हुई। मैंने अपने कुलकी माता समझकर अनेक बार आपके सुन्दर चरणोंके दर्शन किये। लगता है कि इसीसे देवराजको मेरे सम्बन्धमें कुछ भ्रम हो गया।’
उर्वशीने समझाया- ‘पार्थ! यह धरा नहीं है, स्वर्ग है। हम अप्सराएँ न किसीकी माता हैं न बहिन, न पत्नी ही स्वर्गमें आया हुआ प्रत्येक प्राणी अपने पुण्यके अनुसार हमारा उपभोग कर सकता है। तुम मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लो।’
रात्रिका एकान्त समय था और पर्याप्त शृङ्गार कियेस्वर्गकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी प्रार्थना कर रही थी; किंतु धर्मज्ञ अर्जुनके चित्तको कामदेव स्पर्श भी नहीं कर सका। उन्होंने उसी प्रकार हाथ जोड़कर प्रार्थना की- ‘जिस प्रकार कुन्ती मेरी माता हैं, जिस प्रकार माद्री मेरी माता हैं, जिस प्रकार इन्द्राणी शचीदेवी मेरी माता हैं, उसी प्रकार आपको भी मैं अपनी माता समझता हूँ। आप मुझे अपना पुत्र मानकर मुझपर अनुग्रह करें।’
उर्वशीकी ऐसी उपेक्षा तो कभी किसी ऋषिने भी नहीं की थी। उसे इसमें अपने सौन्दर्यका अपमान प्रतीत हुआ। उसने कामके क्रोधमें आकर शाप दिया- ‘तुमने नपुंसकके समान मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, इसलिये हिजड़े बनकर स्त्रियोंके बीच नाचते-गाते हुए तुम्हें एक वर्ष रहना पड़ेगा।’
शाप देकर उर्वशी चली गयी। अर्जुन भी उसे शाप देने में समर्थ थे और उन्हें अन्यायपूर्वक शाप दिया गया। था; किंतु उन्होंने उर्वशीको जाते समय भी मस्तक झुकाकर प्रणाम ही किया।
प्रातः काल देवराजको सब बातें ज्ञात हुईं। अर्जुनके संयमपर प्रसन्न होकर वे बोले-‘धनञ्जय! धर्मका पालन करनेवालेपर कभी विपत्ति नहीं आती। यदि कोई विपत्ति आती भी है तो वह उसका मङ्गल ही करती है। उर्वशीका शाप तुम्हारे लिये एक मानव वर्षतक ही रहेगा और उस शापके कारण वनवासके अन्तिम अज्ञातवासवाले एक वर्षके समयमें तुम्हें कोई पहचान नहीं सकेगा। तुम्हारे लिये यह शाप उस समय वरदान ही सिद्ध होगा।’
– सु0 सिं0 (महाभारत, वन0 42 – 46 )
पाण्डव वनवासका जीवन व्यतीत कर रहे थे। भगवान् व्यासकी प्रेरणासे अर्जुन अपने भाइयोंकी आजा लेकर तपस्या करने गये तप करके उन्होंने भगवान् शङ्करको प्रसन्न किया, आशुतोषने उन्हें अपना पाशुपतास्त्र प्रदान किया। इसके अनन्तर देवराज इन्द्र अपने रथमें बैठाकर अर्जुनको स्वर्गलोक ले गये। इन्द्रने तथा अन्य लोकपालोंने भी अपने दिव्यास्त्र अर्जुनको दिये। उन दिव्यास्त्रोंको लेकर अर्जुनने देवताओंके शत्रु निवात कवच नामक असुरगणोंपर आक्रमण कर दिया। देवता भी उन असुरोंपर विजय नहीं पा रहे थे, उन असुरोंके बार-बारके आक्रमणसे देवता संत्रस्त हो रहे थे। अर्जुनने युद्धमें असुरोंको पराजित कर दिया। उनके गाण्डीव धनुषसे छूटे बाणोंकी मारसे व्याकुल होकर असुर भाग खड़े हुए और पाताल चले गये।
– विजयी मध्यम पाण्डव जब अमरावती असुर-1 लौटे, तब देवताओंने बड़े उल्लाससे उनका स्वागत किया। देवसभा भरपूर सजायी गयी। देवराज इन्द्र अर्जुनको साथ लेकर अपने सिंहासनपर बैठे। गन्धर्वगणोंने वीणा उठायी। स्वर्गकी श्रेष्ठतम अप्सराएँ एक-एक करके नृत्य करने लगीं। देवराज किसी भी प्रकार अर्जुनको संतुष्ट करना चाहते थे। वे ध्यानसे अर्जुनकी ओर देख रहे थे कि उनकी रुचि और आकर्षणकापता लगा सकें। अर्जुन स्वर्ग में थे। प्रापञ्चिक सौन्दर्य एवं ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा स्वर्गभूमि आज विशेषरूपसे सजायी गयी थी। अप्सराएँ अपनी समस्त कला प्रकट करके देवताओं तथा देवराजके परमप्रिय अतिथिको रिझा लेना चाहती थीं। देवप्रतिहारी एक नृत्य समाप्त होनेपर दूसरी अप्सराका नाम लेकर परिचय देता और देवसभा एक नवीन झंकृतिसे झूम उठती। परंतु जिस अर्जुनके स्वागतमें यह सब हो रहा था, वे मस्तक झुकाये, नेत्र नीचे किये शान्त बैठे थे। स्वर्गके इस वैभवमें उन्हें अपने वल्कल पहिने, फल-मूल खाकर भूमिशयन करनेवाले वनवासी भाई स्मरण आ रहे थे। उन्हें तनिक भी आकर्षण नहीं जान पड़ता था अमरावतीमें।
सहसा देवप्रतिहारीने उर्वशीका नाम लिया। अर्जुनका सिर ऊपर उठा । देवसभामें उपस्थित होकर नृत्य करती उर्वशीको उन्होंने कई बार देखा। सहस्रलोचन इन्द्रने यह बात लक्षित कर ली। महोत्सव समाप्त होनेपर देवराजने गन्धर्वराज चित्रसेनको अपने पास बुलाकर कहा “उर्वशीके पास जाकर मेरी यह आज्ञा सूचित कर दो कि आज रात्रिमें वे अर्जुनकी सेवामें पधारें। अर्जुन हम सबके परम प्रिय हैं। उन्हें आज वे अवश्य प्रसन्न करें।’ उर्वशी स्वयं अर्जुनपर अनुरक्त हो चुकी थी ।चित्रसेनके द्वारा जब उसे देवराजका आदेश मिला, तब उसने उसे बड़ी प्रसन्नतासे स्वीकार किया। उस दिन उसने अपनेको उतना सजाया जितना वह अधिक-से अधिक सजा सकती थी। रात्रिमें भरपूर शृङ्गार करके वह अर्जुनके निवासस्थानपर पहुँची।
अर्जुन उर्वशीको देखते ही शय्यासे उठकर खड़े हो गये। दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम किया और बोले—’माता! आप इस समय कैसे पधारों? मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’
उर्वशी तो अर्जुनके सम्बोधनसे ही भौंचक्की रह गयी। उसने स्पष्ट बतलाया कि वह स्वयं उनपर आसक्त है और देवराजका भी उसे आदेश मिला है। उसने प्रार्थना की कि अर्जुन उसे स्वीकार करें। लेकिन अर्जुनने स्थिरभावसे कहा-‘आप मुझसे ऐसी अनुचित बात फिर न कहें। आप ही कुरुकुलकी जननी हैं, यह बात मैंने ऋषियोंसे सुन रखी थी। आज देवसभामें जब प्रतिहारीने आपका नाम लिया, तब मुझे आपका दर्शन करनेकी इच्छा हुई। मैंने अपने कुलकी माता समझकर अनेक बार आपके सुन्दर चरणोंके दर्शन किये। लगता है कि इसीसे देवराजको मेरे सम्बन्धमें कुछ भ्रम हो गया।’
उर्वशीने समझाया- ‘पार्थ! यह धरा नहीं है, स्वर्ग है। हम अप्सराएँ न किसीकी माता हैं न बहिन, न पत्नी ही स्वर्गमें आया हुआ प्रत्येक प्राणी अपने पुण्यके अनुसार हमारा उपभोग कर सकता है। तुम मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लो।’
रात्रिका एकान्त समय था और पर्याप्त शृङ्गार कियेस्वर्गकी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी प्रार्थना कर रही थी; किंतु धर्मज्ञ अर्जुनके चित्तको कामदेव स्पर्श भी नहीं कर सका। उन्होंने उसी प्रकार हाथ जोड़कर प्रार्थना की- ‘जिस प्रकार कुन्ती मेरी माता हैं, जिस प्रकार माद्री मेरी माता हैं, जिस प्रकार इन्द्राणी शचीदेवी मेरी माता हैं, उसी प्रकार आपको भी मैं अपनी माता समझता हूँ। आप मुझे अपना पुत्र मानकर मुझपर अनुग्रह करें।’
उर्वशीकी ऐसी उपेक्षा तो कभी किसी ऋषिने भी नहीं की थी। उसे इसमें अपने सौन्दर्यका अपमान प्रतीत हुआ। उसने कामके क्रोधमें आकर शाप दिया- ‘तुमने नपुंसकके समान मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, इसलिये हिजड़े बनकर स्त्रियोंके बीच नाचते-गाते हुए तुम्हें एक वर्ष रहना पड़ेगा।’
शाप देकर उर्वशी चली गयी। अर्जुन भी उसे शाप देने में समर्थ थे और उन्हें अन्यायपूर्वक शाप दिया गया। था; किंतु उन्होंने उर्वशीको जाते समय भी मस्तक झुकाकर प्रणाम ही किया।
प्रातः काल देवराजको सब बातें ज्ञात हुईं। अर्जुनके संयमपर प्रसन्न होकर वे बोले-‘धनञ्जय! धर्मका पालन करनेवालेपर कभी विपत्ति नहीं आती। यदि कोई विपत्ति आती भी है तो वह उसका मङ्गल ही करती है। उर्वशीका शाप तुम्हारे लिये एक मानव वर्षतक ही रहेगा और उस शापके कारण वनवासके अन्तिम अज्ञातवासवाले एक वर्षके समयमें तुम्हें कोई पहचान नहीं सकेगा। तुम्हारे लिये यह शाप उस समय वरदान ही सिद्ध होगा।’
– सु0 सिं0 (महाभारत, वन0 42 – 46 )