फुफकारो, पर काटो मत

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फुफकारो, पर काटो मत

किसी जंगलमें कुछ चरवाहे गौएँ चराते थे। वहाँ एक बड़ा विषधर सर्प रहता था। उसके डरसे लोग बड़ी सावधानीसे आया-जाया करते थे। किसी दिन एक ब्रह्मचारीजी उसी रास्तेसे आ रहे थे। चरवाहे दौड़ते हुए उनके पास आये और उनसे कहा-‘महाराज। इस रास्तेसे न जाइये; यहाँ एक साँप रहता है, बड़ा विषधर है।’ ब्रह्मचारीजीने कहा- ‘तो क्या हुआ, बेटा, मुझे कोई डर नहीं, मैं मन्त्र जानता हूँ।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजी उसी ओर चले गये। डरके मारे चरवाहे उनके साथ न गये। इधर साँप फन उठाये झपटता चला आ रहा था, परंतु पास पहुँचने के पहले ही ब्रह्मचारीजीने मन्त्र पढ़ा। साँप आकर उनके पैरोंपर लोटने लगा। ब्रह्मचारीने कहा- ‘तू भला हिंसा क्यों करता है ? ले, मैं तुझे मन्त्र देता हूँ। इस मन्त्रको जपेगा तो ईश्वरपर भक्ति होगी, तुझे ईश्वर के दर्शन होंगे; फिर यह हिंसावृत्ति न रह जायगी।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजीने साँपको मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर सौंपने गुरुको प्रणाम किया और पूछा ‘भगवन्! मैं क्या साधना करूँ ?’ गुरुने कहा- ‘ इस मन्त्रको जप और हिंसा छोड़ दे।’ चलते समय ब्रह्मचारीजी फिर आनेका वचन दे गये।
इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। चरवाहोंने देखा कि साँप अब काटता नहीं, ढेला मारनेपर भी गुस्स नहीं होता, केंचुएकी तरह हो गया है। एक दिन चरवाहोंने उसके पास जाकर पूँछ पकड़कर उसे घुमाया और वहीं पटक दिया। साँपके मुँहसे खून बह चला, वह बेहोश पड़ा रहा; हिल-डुलतक न सकत था। चरवाहोंने सोचा कि सौंप मर गया यह सोचकर वहाँसे वे चले गये।
जब बहुत रात बीती, तब सौंप होशमें आया औ धीरे-धीरे अपने बिलके भीतर गया। देह चूर-चूर हं गयी थी, हिलनेतककी शक्ति नहीं रह गयी थी। बहुर दिनोंके बाद जब चोट कुछ अच्छी हुई, तब भोजनक खोजमें बाहर निकला। जबसे मारा गया, तबसे सिर्फ रातको ही बाहर निकलता था। हिंसा करता ही न था। सिर्फ घास-फूस, फल-फूल खाकर रह जाता था।
सालभर बाद ब्रह्मचारी फिर आये। आते ही सौंपकी खोज करने लगे। चरवाहोंने कहा-‘वह तो मर गया है’, पर ब्रह्मचारीजीको इस बातपर विश्वास न आया। वे जानते थे कि जो मन्त्र वे दे गये हैं, वह जबतक सिद्ध न होगा, तबतक उसकी देह छूट नहीं सकती। अतः उसे ढूँढ़ते हुए वे अपने दिये हुए नामसे साँपको पुकारने लगे। गुरुदेवकी आवाज सुनकर साँप बिलसे निकल आया और बड़े भक्तिभावसे प्रणाम किया। ब्रह्मचारीजीने पूछा ‘क्यों कैसा है?’ उसने कहा- ‘जी, अच्छा हूँ।’ ब्रह्मचारीजी – ‘ तो तू इतना दुबला क्यों हो गया ?’ साँपने कहा- ‘महाराज! जबसे आप आज्ञा दे गये हैं, तबसे मैं हिंसा नहीं करता; फल-फूल, घास-पात खाकर पेट भर लेता हूँ; इसलिये शायद दुबला हो गया हूँ।’ सत्त्वगुण बढ़ जानेके कारण किसीपर वह क्रोध न कर सकता था। इसीसे मारकी बात भी वह भूल गया। ब्रह्मचारीजीने कहा—’सिर्फ न खानेसे ही किसीकी यह दशा नहीं होती, कोई दूसरा कारण अवश्य होगा, तू अच्छी तरह सोच तो।’ साँपको चरवाहोंकी मार याद आ गयी। उसने कहा ‘हाँ, महाराज! अब याद आया, चरवाहोंने एक दिन मुझे पटक-पटककर मारा था। उन अज्ञानियोंको तो मेरे मनकीअवस्था मालूम थी नहीं। वे क्या जानें कि मैंने हिंसा
करना छोड़ दिया है।’ ब्रह्मचारीजी बोले- ‘राम-राम, तू ऐसा मूर्ख है? अपनी रक्षा करना भी तू नहीं जानता? मैंने तो तुझे काटनेको ही मना किया था, पर फुफकारनेसे तुझे कब रोका था ? फुफकार मारकर उन्हें भय क्यों नहीं दिखाया ?’
इस तरह दुष्टोंके पास फुफकार मारना चाहिये, भय दिखाना चाहिये, जिससे वे अनिष्ट न कर बैठें; पर उनमें विष न डालना चाहिये, उनका अनिष्ट न करना चाहिये।

फुफकारो, पर काटो मत
किसी जंगलमें कुछ चरवाहे गौएँ चराते थे। वहाँ एक बड़ा विषधर सर्प रहता था। उसके डरसे लोग बड़ी सावधानीसे आया-जाया करते थे। किसी दिन एक ब्रह्मचारीजी उसी रास्तेसे आ रहे थे। चरवाहे दौड़ते हुए उनके पास आये और उनसे कहा-‘महाराज। इस रास्तेसे न जाइये; यहाँ एक साँप रहता है, बड़ा विषधर है।’ ब्रह्मचारीजीने कहा- ‘तो क्या हुआ, बेटा, मुझे कोई डर नहीं, मैं मन्त्र जानता हूँ।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजी उसी ओर चले गये। डरके मारे चरवाहे उनके साथ न गये। इधर साँप फन उठाये झपटता चला आ रहा था, परंतु पास पहुँचने के पहले ही ब्रह्मचारीजीने मन्त्र पढ़ा। साँप आकर उनके पैरोंपर लोटने लगा। ब्रह्मचारीने कहा- ‘तू भला हिंसा क्यों करता है ? ले, मैं तुझे मन्त्र देता हूँ। इस मन्त्रको जपेगा तो ईश्वरपर भक्ति होगी, तुझे ईश्वर के दर्शन होंगे; फिर यह हिंसावृत्ति न रह जायगी।’ यह कहकर ब्रह्मचारीजीने साँपको मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर सौंपने गुरुको प्रणाम किया और पूछा ‘भगवन्! मैं क्या साधना करूँ ?’ गुरुने कहा- ‘ इस मन्त्रको जप और हिंसा छोड़ दे।’ चलते समय ब्रह्मचारीजी फिर आनेका वचन दे गये।
इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। चरवाहोंने देखा कि साँप अब काटता नहीं, ढेला मारनेपर भी गुस्स नहीं होता, केंचुएकी तरह हो गया है। एक दिन चरवाहोंने उसके पास जाकर पूँछ पकड़कर उसे घुमाया और वहीं पटक दिया। साँपके मुँहसे खून बह चला, वह बेहोश पड़ा रहा; हिल-डुलतक न सकत था। चरवाहोंने सोचा कि सौंप मर गया यह सोचकर वहाँसे वे चले गये।
जब बहुत रात बीती, तब सौंप होशमें आया औ धीरे-धीरे अपने बिलके भीतर गया। देह चूर-चूर हं गयी थी, हिलनेतककी शक्ति नहीं रह गयी थी। बहुर दिनोंके बाद जब चोट कुछ अच्छी हुई, तब भोजनक खोजमें बाहर निकला। जबसे मारा गया, तबसे सिर्फ रातको ही बाहर निकलता था। हिंसा करता ही न था। सिर्फ घास-फूस, फल-फूल खाकर रह जाता था।
सालभर बाद ब्रह्मचारी फिर आये। आते ही सौंपकी खोज करने लगे। चरवाहोंने कहा-‘वह तो मर गया है’, पर ब्रह्मचारीजीको इस बातपर विश्वास न आया। वे जानते थे कि जो मन्त्र वे दे गये हैं, वह जबतक सिद्ध न होगा, तबतक उसकी देह छूट नहीं सकती। अतः उसे ढूँढ़ते हुए वे अपने दिये हुए नामसे साँपको पुकारने लगे। गुरुदेवकी आवाज सुनकर साँप बिलसे निकल आया और बड़े भक्तिभावसे प्रणाम किया। ब्रह्मचारीजीने पूछा ‘क्यों कैसा है?’ उसने कहा- ‘जी, अच्छा हूँ।’ ब्रह्मचारीजी – ‘ तो तू इतना दुबला क्यों हो गया ?’ साँपने कहा- ‘महाराज! जबसे आप आज्ञा दे गये हैं, तबसे मैं हिंसा नहीं करता; फल-फूल, घास-पात खाकर पेट भर लेता हूँ; इसलिये शायद दुबला हो गया हूँ।’ सत्त्वगुण बढ़ जानेके कारण किसीपर वह क्रोध न कर सकता था। इसीसे मारकी बात भी वह भूल गया। ब्रह्मचारीजीने कहा—’सिर्फ न खानेसे ही किसीकी यह दशा नहीं होती, कोई दूसरा कारण अवश्य होगा, तू अच्छी तरह सोच तो।’ साँपको चरवाहोंकी मार याद आ गयी। उसने कहा ‘हाँ, महाराज! अब याद आया, चरवाहोंने एक दिन मुझे पटक-पटककर मारा था। उन अज्ञानियोंको तो मेरे मनकीअवस्था मालूम थी नहीं। वे क्या जानें कि मैंने हिंसा
करना छोड़ दिया है।’ ब्रह्मचारीजी बोले- ‘राम-राम, तू ऐसा मूर्ख है? अपनी रक्षा करना भी तू नहीं जानता? मैंने तो तुझे काटनेको ही मना किया था, पर फुफकारनेसे तुझे कब रोका था ? फुफकार मारकर उन्हें भय क्यों नहीं दिखाया ?’
इस तरह दुष्टोंके पास फुफकार मारना चाहिये, भय दिखाना चाहिये, जिससे वे अनिष्ट न कर बैठें; पर उनमें विष न डालना चाहिये, उनका अनिष्ट न करना चाहिये।

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