लोकजीवनकी बोधकथाएँ

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लोकजीवनकी बोधकथाएँ

‘न्याय होय तो असो’
परिवारमें सामान्य चर्चा चल रही थी। तब एक बात न्याय सम्बन्धी निकली कि न्याय करना तो अच्छा है, किंतु जिसके लिये न्याय किया गया है उसे भी लगना चाहिये कि उसे न्याय मिला, तब तो वह न्याय है ‘न्याय’ शब्दसे मेरी चेतनामें समवेत स्वर गूँज उठे
‘हाव वो माँय हाव न्याय होय तो असो। राजा होय तो श्रीकृष्ण जसो।’ इन शब्दोंके साथ मेरी आँखोंके सामने वे सब दृश्य उपस्थित हो गये कि कैसे घरके आँगनमें बैठी महिलाएँ देश-काल, राज्य शासन आदि सबकी जानकारियाँ रखती थीं. वह भी व्रत उपवास, पर्व स्नानकी कथाओंके माध्यमसे। पूर्वी निमाडका एक गाँव कालमुखी घरके आँगनमें बैठी मेरी आजी माँय और उनको घेरे पच्चीस-पचास महिलाएँ। आँचलसे उनके कपालतक ढँके सिर, लटोंसे टपकती पानीकी बूँदें। उनके सम्मुख आरतियोंमें टिमटिमाते दीपक दीपकोंकी स्वर्णिम लौपर बिखरती सूरजकी रक्तिमवर्णी आभा । सबकी आँखें मेरी आजी माँयके मुखपर एक हाथमें जुवार या चावल और फूल तथा उसपर दूसरे हाथका ढक्कन सबका चित्त आजी मायके शब्दोंपर और हुँकारोंसे भरता आँगन-‘हाव ओ माँय हाव’ चल रही थी कथा – वार्ता कार्तिकस्नानकी। संवादों हुँकारोंसे विस्तार लेती कथा वार्ता
चौथे पयर (प्रहर)-की रात! गलीमें गीतकी उठती स्वर-लहर ! राजा श्रीकृष्णकी पटरानियोंकी नींद खुली। सबने पूछा – ‘महाराज ! अभी तो रात पूरी भी नहीं हुई, फिर गाना-बजाना करती सब महिलाएँ कहाँ जा रही हैं?’ श्रीकृष्णजीने बताया-‘पटरानीजी! सुनो कार्तिकमास शुरू हो गया है, सब महिलाएँ यमुनाजीमें कार्तिक स्नानको जा रही हैं।’ श्रीकृष्णजीने यमुना-स्नानका माहात्म्य बताया। तब पटरानियोंने पूछा- ‘महाराज ! आपकी आज्ञा हो, तो हम भी मासभर यमुना-स्नान
कर लें।’ श्रीकृष्णजीकी सहमति से सब पटरानियाँ स्नानको चलीं।
कथा-वार्ता चलती जा रही थी। जमुनाजीपर पहुँचकर सबने जमुनाजीको प्रणाम किया और जलमें डुबकियाँ लगाय सबने जमुनाजीकी पूजा की आरती उतारी और दीप प्रवाहित किये। जमुनाजीको भेंट दी। जमुनाजी हाथ निकालकर सबसे भेंट स्वीकार करती और वरदहस्तसे आशीष देतीं। महीना बीतनेको आया वहाँसे घर आकर सब पटरानियाँ तुलसी पूजा, ठाकुर पूजाकर श्रीकृष्णजीको कलेवा कराती थीं। आठों पटरानियोंमेंसे ‘राई पटरानी’ जरा ज्यादा हो उतावली रहती थीं। उन्हें लगता था कि सबसे पहले स्नानकर सबसे पहले वह ही जमुनाजीको भेंट दे। जल्दी पहुँचनेकी होड़में राई पटरानी सबका साथ छोड़करखेतोंके बीचसे छोटे रास्तेसे जमुनाजी पहुँचती थीं।
हुँकारा भरती महिलाएँ बोलतीं- ‘हाव वो माँय
हाव असो नी करणू, सीधो रस्तो चलणू।
आखिरी दिन, कार्तिक पुन्यवको जरा जल्दी चली गयीं राई पटरानी। उन्होंने डुबकी लगायी, आरती पूजा की, और जैसे ही जमुनाको भेंट देनेके लिये उन्होंने अपने हाथसे अनोखा चूड़ा निकाला तो जमुनाजीने हाथ बाहर नहीं निकाला। राई पटरानीने पुनः प्रार्थना की, फिर भी जमुनाजीने भेंट स्वीकार करनेके लिये अपना हाथ बाहर नहीं निकाला। सबकी भेंट तो जमुनाजी ले रही थीं, पर राई पटरानी जितनी भी बार भेंट देनेका प्रयास करतीं, उतनी ही बार जमुनाजी अपना हाथ भीतर कर लेतीं।
हुँकारे चल रहे थे, महिलाएँ बोलती जा रही थीं ‘हाव वो माँय हाव, असो कसो ?’
यह सब देख दूसरी पटरानियोंने पूछा- ‘जमुना महारानी ! राईकी भेंट क्यों नहीं लेतीं ?’ तब यमुनाजीने बताया- ‘राई पटरानीको चोरीका पाप लगा है। तेलीके खेतमेंसे निकलते वक्त इसके घाघरेसे तेलीके खेतका तिल्लीका एक डोडा टूटा और घाघरेमें चिपक गया। जब यह इस चोरीके पापसे मुक्त होगी. तब मैं राईकी भेंट स्वीकार करूँगी।’

हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव, सीधो रस्तो चलणू ।’
पटरानियाँ मिलकर घर आयीं। श्रीकृष्णजीको पूरी वार्ता बतायी। तब श्रीकृष्णजीने, जिसका खेत था, उस तेलीको बुलवाया।
महाराज श्रीकृष्णजीका फरमान सुनते ही तेलीका जीव धक-धक करने लगा, कि जाने क्यों महाराज श्रीकृष्ण बुला रहे हैं, हमसे क्या गलती हो गयी। तेलनने अपने पतिको समझाया- ‘स्वामी! तुम क्यों डरते हो ? अपनने तो राजाका कोई नुकसान नहीं किया; चलो, मैं भी साथ चलती हूँ।’ तेली-तेलन राजदरबारमें हाथ जोड़कर खड़े हो गये ।
आँगनमें बैठी महिलाएँ हुँकारा भरते बोलतीं ‘हाव ओ माँय हाव, राजाका दरबार तो कोई नी जाय।’
श्रीकृष्णजीने तेलीको बतलाया-‘राई पटरानी तुम्हारे खेतसे जमुना स्नानको गुजरी। उसके घाघरेमें यह तिल्लीका एक डोडा अटक गया। उसपर चोरीका आरोप लगा है। अब तुम राई पटरानीको जो सजा दोगे, उसे और हमें स्वीकार होगी।’
हुँकारा देती महिलाएँ फिर बोलीं- ‘हाव ओ माँय हाव, राजा होय, तो असो।’
तेली और तेलनने आपसमें बात करी तेलीने कहा- ‘महाराज ! वह तिल्लीका डोडा फोड़ लो, जितने दानें होंगे, राई पटरानी उतने साल हमारे घरमें रहकर हमारे बाल-बच्चे सम्हालेंगी।’
हुँकारा देती महिलाएँ कहती- ‘हाय हाय माँय
तेली तो बड़ो चतुर निकल्यो।’
फिर स्वर निकलते हैं-‘हाव ओ माँय हाव।’
तिल्लीका डोडा फोड़ा गया। उसमें बारह दाने निकले। श्रीकृष्णजीने कहा-‘राई पटरानी! तेलीने तुम्हारी सजा सुनायी है, तुम्हें उसका न्याय मानना होगा। यह तिल्लीके बारह दानोंकी चोरीकी सजा है, तुम्हें बारह साल तेलीके घरपर उसके बाल-बच्चे सम्हालने पड़ेंगे।’
राई पटरानीने सजा स्वीकारते हुए ‘हाँ’ कहा और वे तेली-तेलनके साथ चल पड़ीं। वे उनके घर रहने लगीं और तेलीके बच्चे सम्हालने लगीं।
हुँकारा देती महिलाओंकी टिप्पणी- ‘हाय ओ माँय हाय, कहाँ राजाकी राणी न महल, कहाँ तेलीको गाराको घर । ‘
दिन जाते देर नहीं लगती। तेलीके घर पटरानी उसके बच्चोंको सम्हालती और तेली-तेलन अपना घर खेतीका काम करते और घाणा चलाते ।
तेली तो होशियार था, बड़ा चतुर था। चाहता तो धन-दौलत, घर-गाँव माँग लेता, पर वह जानता था कि जबतक पटरानीजी हमारे घर रहेंगी, तबतक श्रीकृष्णजीका मन हमारे घरमें ही लगा रहेगा।
हुँकारेके साथ ये स्वर- ‘हाव ओ माँय हाव, कसी किरपा हुई तेली पऽऽ ।’
बारह बरस पूरे हुए। कार्तिकमास आया। राई पटरानी जमुनाजी स्नानको गयीं, स्नान करके राई पटरानीजीने अपने हाथका चूड़ा निकालकर जमुनाजीको भेंट करनेके लिये जैसे ही हाथ बढ़ाया, जमुनाजीने हाथ निकालकर उनकी भेंट स्वीकार कर ली। उस समय जमुनाजीपर सभी पटरानियाँ उपस्थित थीं, उन्होंने घर आकर श्रीकृष्णजीको बताया कि राईकी भेंट जमुनाजीने ले ली।
हुँकारा भरती महिलाएँ कहतीं – ‘हाव ओ माँयहाव, राई पटरानी दोषमुक्त हुयी।’
श्रीकृष्णभगवान् गाजा-बाजासे तेलीके घर आये। सजा – सजाया रथ, सातों पटरानियाँ साथमें थीं। तेली तेलनको वस्त्राभूषण देकर श्रीकृष्णजी आदरके साथ राई पटरानीको रथपर अपने बगलमें बैठाकर ससम्मान ले गये।
हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव, श्रीकृष्णजी तो जाणता था कि राईकी गलती नी हाई, पण ई शिक्षा थी सबका लेण, कि कदी भी बड़ो आदमी छोटा ख नुकसान नी पहुँचाव, हाव ओ माँय ‘हाव’
तेली-तेलनने भी अपनी बेटी जैसी राईकी बिदा करी और दामाद-जैसे श्रीकृष्णकी आव-भगत करी।
राईपटरानीसहित श्रीकृष्णजीका रथ जैसे ही तेलीके घरसे चला, वैसे ही गलीमें मुड़ते ही तेलीकी घास फूसकी झोपड़ीकी जगह एक बड़ा कंचन-महल खड़ा हो गया। दास-दासी, नौकर-चाकर सब हो गये। तेली तेलनके फटे कपड़े शरीरपर ही रेशमी-जरीके हो गये।
तेली बोला-‘सुण ओ स्याणी! राजा न अपणो न्याय केत्तो अच्छो कर्यो । ‘
हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव “जेको घर साक्षात् भगवान्‌की आधी काया रहेगा, ओकी तो असीज तकदीर बदल गा।’
कथा-वार्ताकी फलश्रुति निमाड़ीमें सुनाते हुए आजी माँयने कहा- ‘भगवान् न जसा राई पटरानीको आदर कर्यो, असो सबको कर। भगवान् न जसा तेली तेलेणपर तुष्टमान हुया, असा सबपर होय।’
भावार्थ- ‘भगवान्ने जैसे तेली-तेलनपर कृपा करी, तेलीके दिन फेरे, ऐसे सबके फेरें।’
श्रोता महिलाएँ हुँकारा देते हुए बोलीं- ‘हाव ओ माँय हाव।’
न्याय भी ऐसा कि जिसकी क्षति हुई है, उसीसे उसकी भरपाईका न्याय पूछना, यह हमारी उदारवादी परम्पराका अनुपम उदाहरण है। तेलीको पता ही नहीं था, कि उसकी क्षति हुई, पर राजाका फर्ज है, प्रजाके नुकसानकी भरपाई करना। तेलीको लगा, अहसास हुआ कि उसके साथ भरपूर न्याय हुआ है।
हमारे व्रत-उपवासकी कथाएँ मात्र कथाएँ नहीं हैं, ये जीवनको संयमित सुसंस्कारित करनेकी, ज्ञान-नीतिकी जीती-जागती पाठशालाएँ हैं। तभी ये कथाएँ-परम्पराएँ | आजतक धाराकी भाँति प्रवाहित होती आ रही हैं, इनके मूलमें निर्मल मनोभावोंके अजस्त्र स्रोत हैं।

लोकजीवनकी बोधकथाएँ
‘न्याय होय तो असो’
परिवारमें सामान्य चर्चा चल रही थी। तब एक बात न्याय सम्बन्धी निकली कि न्याय करना तो अच्छा है, किंतु जिसके लिये न्याय किया गया है उसे भी लगना चाहिये कि उसे न्याय मिला, तब तो वह न्याय है ‘न्याय’ शब्दसे मेरी चेतनामें समवेत स्वर गूँज उठे
‘हाव वो माँय हाव न्याय होय तो असो। राजा होय तो श्रीकृष्ण जसो।’ इन शब्दोंके साथ मेरी आँखोंके सामने वे सब दृश्य उपस्थित हो गये कि कैसे घरके आँगनमें बैठी महिलाएँ देश-काल, राज्य शासन आदि सबकी जानकारियाँ रखती थीं. वह भी व्रत उपवास, पर्व स्नानकी कथाओंके माध्यमसे। पूर्वी निमाडका एक गाँव कालमुखी घरके आँगनमें बैठी मेरी आजी माँय और उनको घेरे पच्चीस-पचास महिलाएँ। आँचलसे उनके कपालतक ढँके सिर, लटोंसे टपकती पानीकी बूँदें। उनके सम्मुख आरतियोंमें टिमटिमाते दीपक दीपकोंकी स्वर्णिम लौपर बिखरती सूरजकी रक्तिमवर्णी आभा । सबकी आँखें मेरी आजी माँयके मुखपर एक हाथमें जुवार या चावल और फूल तथा उसपर दूसरे हाथका ढक्कन सबका चित्त आजी मायके शब्दोंपर और हुँकारोंसे भरता आँगन-‘हाव ओ माँय हाव’ चल रही थी कथा – वार्ता कार्तिकस्नानकी। संवादों हुँकारोंसे विस्तार लेती कथा वार्ता
चौथे पयर (प्रहर)-की रात! गलीमें गीतकी उठती स्वर-लहर ! राजा श्रीकृष्णकी पटरानियोंकी नींद खुली। सबने पूछा – ‘महाराज ! अभी तो रात पूरी भी नहीं हुई, फिर गाना-बजाना करती सब महिलाएँ कहाँ जा रही हैं?’ श्रीकृष्णजीने बताया-‘पटरानीजी! सुनो कार्तिकमास शुरू हो गया है, सब महिलाएँ यमुनाजीमें कार्तिक स्नानको जा रही हैं।’ श्रीकृष्णजीने यमुना-स्नानका माहात्म्य बताया। तब पटरानियोंने पूछा- ‘महाराज ! आपकी आज्ञा हो, तो हम भी मासभर यमुना-स्नान
कर लें।’ श्रीकृष्णजीकी सहमति से सब पटरानियाँ स्नानको चलीं।
कथा-वार्ता चलती जा रही थी। जमुनाजीपर पहुँचकर सबने जमुनाजीको प्रणाम किया और जलमें डुबकियाँ लगाय सबने जमुनाजीकी पूजा की आरती उतारी और दीप प्रवाहित किये। जमुनाजीको भेंट दी। जमुनाजी हाथ निकालकर सबसे भेंट स्वीकार करती और वरदहस्तसे आशीष देतीं। महीना बीतनेको आया वहाँसे घर आकर सब पटरानियाँ तुलसी पूजा, ठाकुर पूजाकर श्रीकृष्णजीको कलेवा कराती थीं। आठों पटरानियोंमेंसे ‘राई पटरानी’ जरा ज्यादा हो उतावली रहती थीं। उन्हें लगता था कि सबसे पहले स्नानकर सबसे पहले वह ही जमुनाजीको भेंट दे। जल्दी पहुँचनेकी होड़में राई पटरानी सबका साथ छोड़करखेतोंके बीचसे छोटे रास्तेसे जमुनाजी पहुँचती थीं।
हुँकारा भरती महिलाएँ बोलतीं- ‘हाव वो माँय
हाव असो नी करणू, सीधो रस्तो चलणू।
आखिरी दिन, कार्तिक पुन्यवको जरा जल्दी चली गयीं राई पटरानी। उन्होंने डुबकी लगायी, आरती पूजा की, और जैसे ही जमुनाको भेंट देनेके लिये उन्होंने अपने हाथसे अनोखा चूड़ा निकाला तो जमुनाजीने हाथ बाहर नहीं निकाला। राई पटरानीने पुनः प्रार्थना की, फिर भी जमुनाजीने भेंट स्वीकार करनेके लिये अपना हाथ बाहर नहीं निकाला। सबकी भेंट तो जमुनाजी ले रही थीं, पर राई पटरानी जितनी भी बार भेंट देनेका प्रयास करतीं, उतनी ही बार जमुनाजी अपना हाथ भीतर कर लेतीं।
हुँकारे चल रहे थे, महिलाएँ बोलती जा रही थीं ‘हाव वो माँय हाव, असो कसो ?’
यह सब देख दूसरी पटरानियोंने पूछा- ‘जमुना महारानी ! राईकी भेंट क्यों नहीं लेतीं ?’ तब यमुनाजीने बताया- ‘राई पटरानीको चोरीका पाप लगा है। तेलीके खेतमेंसे निकलते वक्त इसके घाघरेसे तेलीके खेतका तिल्लीका एक डोडा टूटा और घाघरेमें चिपक गया। जब यह इस चोरीके पापसे मुक्त होगी. तब मैं राईकी भेंट स्वीकार करूँगी।’
हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव, सीधो रस्तो चलणू ।’
पटरानियाँ मिलकर घर आयीं। श्रीकृष्णजीको पूरी वार्ता बतायी। तब श्रीकृष्णजीने, जिसका खेत था, उस तेलीको बुलवाया।
महाराज श्रीकृष्णजीका फरमान सुनते ही तेलीका जीव धक-धक करने लगा, कि जाने क्यों महाराज श्रीकृष्ण बुला रहे हैं, हमसे क्या गलती हो गयी। तेलनने अपने पतिको समझाया- ‘स्वामी! तुम क्यों डरते हो ? अपनने तो राजाका कोई नुकसान नहीं किया; चलो, मैं भी साथ चलती हूँ।’ तेली-तेलन राजदरबारमें हाथ जोड़कर खड़े हो गये ।
आँगनमें बैठी महिलाएँ हुँकारा भरते बोलतीं ‘हाव ओ माँय हाव, राजाका दरबार तो कोई नी जाय।’
श्रीकृष्णजीने तेलीको बतलाया-‘राई पटरानी तुम्हारे खेतसे जमुना स्नानको गुजरी। उसके घाघरेमें यह तिल्लीका एक डोडा अटक गया। उसपर चोरीका आरोप लगा है। अब तुम राई पटरानीको जो सजा दोगे, उसे और हमें स्वीकार होगी।’
हुँकारा देती महिलाएँ फिर बोलीं- ‘हाव ओ माँय हाव, राजा होय, तो असो।’
तेली और तेलनने आपसमें बात करी तेलीने कहा- ‘महाराज ! वह तिल्लीका डोडा फोड़ लो, जितने दानें होंगे, राई पटरानी उतने साल हमारे घरमें रहकर हमारे बाल-बच्चे सम्हालेंगी।’
हुँकारा देती महिलाएँ कहती- ‘हाय हाय माँय
तेली तो बड़ो चतुर निकल्यो।’
फिर स्वर निकलते हैं-‘हाव ओ माँय हाव।’
तिल्लीका डोडा फोड़ा गया। उसमें बारह दाने निकले। श्रीकृष्णजीने कहा-‘राई पटरानी! तेलीने तुम्हारी सजा सुनायी है, तुम्हें उसका न्याय मानना होगा। यह तिल्लीके बारह दानोंकी चोरीकी सजा है, तुम्हें बारह साल तेलीके घरपर उसके बाल-बच्चे सम्हालने पड़ेंगे।’
राई पटरानीने सजा स्वीकारते हुए ‘हाँ’ कहा और वे तेली-तेलनके साथ चल पड़ीं। वे उनके घर रहने लगीं और तेलीके बच्चे सम्हालने लगीं।
हुँकारा देती महिलाओंकी टिप्पणी- ‘हाय ओ माँय हाय, कहाँ राजाकी राणी न महल, कहाँ तेलीको गाराको घर । ‘
दिन जाते देर नहीं लगती। तेलीके घर पटरानी उसके बच्चोंको सम्हालती और तेली-तेलन अपना घर खेतीका काम करते और घाणा चलाते ।
तेली तो होशियार था, बड़ा चतुर था। चाहता तो धन-दौलत, घर-गाँव माँग लेता, पर वह जानता था कि जबतक पटरानीजी हमारे घर रहेंगी, तबतक श्रीकृष्णजीका मन हमारे घरमें ही लगा रहेगा।
हुँकारेके साथ ये स्वर- ‘हाव ओ माँय हाव, कसी किरपा हुई तेली पऽऽ ।’
बारह बरस पूरे हुए। कार्तिकमास आया। राई पटरानी जमुनाजी स्नानको गयीं, स्नान करके राई पटरानीजीने अपने हाथका चूड़ा निकालकर जमुनाजीको भेंट करनेके लिये जैसे ही हाथ बढ़ाया, जमुनाजीने हाथ निकालकर उनकी भेंट स्वीकार कर ली। उस समय जमुनाजीपर सभी पटरानियाँ उपस्थित थीं, उन्होंने घर आकर श्रीकृष्णजीको बताया कि राईकी भेंट जमुनाजीने ले ली।
हुँकारा भरती महिलाएँ कहतीं – ‘हाव ओ माँयहाव, राई पटरानी दोषमुक्त हुयी।’
श्रीकृष्णभगवान् गाजा-बाजासे तेलीके घर आये। सजा – सजाया रथ, सातों पटरानियाँ साथमें थीं। तेली तेलनको वस्त्राभूषण देकर श्रीकृष्णजी आदरके साथ राई पटरानीको रथपर अपने बगलमें बैठाकर ससम्मान ले गये।
हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव, श्रीकृष्णजी तो जाणता था कि राईकी गलती नी हाई, पण ई शिक्षा थी सबका लेण, कि कदी भी बड़ो आदमी छोटा ख नुकसान नी पहुँचाव, हाव ओ माँय ‘हाव’
तेली-तेलनने भी अपनी बेटी जैसी राईकी बिदा करी और दामाद-जैसे श्रीकृष्णकी आव-भगत करी।
राईपटरानीसहित श्रीकृष्णजीका रथ जैसे ही तेलीके घरसे चला, वैसे ही गलीमें मुड़ते ही तेलीकी घास फूसकी झोपड़ीकी जगह एक बड़ा कंचन-महल खड़ा हो गया। दास-दासी, नौकर-चाकर सब हो गये। तेली तेलनके फटे कपड़े शरीरपर ही रेशमी-जरीके हो गये।
तेली बोला-‘सुण ओ स्याणी! राजा न अपणो न्याय केत्तो अच्छो कर्यो । ‘
हुँकारा देती महिलाएँ कहतीं- ‘हाव ओ माँय हाव “जेको घर साक्षात् भगवान्‌की आधी काया रहेगा, ओकी तो असीज तकदीर बदल गा।’
कथा-वार्ताकी फलश्रुति निमाड़ीमें सुनाते हुए आजी माँयने कहा- ‘भगवान् न जसा राई पटरानीको आदर कर्यो, असो सबको कर। भगवान् न जसा तेली तेलेणपर तुष्टमान हुया, असा सबपर होय।’
भावार्थ- ‘भगवान्ने जैसे तेली-तेलनपर कृपा करी, तेलीके दिन फेरे, ऐसे सबके फेरें।’
श्रोता महिलाएँ हुँकारा देते हुए बोलीं- ‘हाव ओ माँय हाव।’
न्याय भी ऐसा कि जिसकी क्षति हुई है, उसीसे उसकी भरपाईका न्याय पूछना, यह हमारी उदारवादी परम्पराका अनुपम उदाहरण है। तेलीको पता ही नहीं था, कि उसकी क्षति हुई, पर राजाका फर्ज है, प्रजाके नुकसानकी भरपाई करना। तेलीको लगा, अहसास हुआ कि उसके साथ भरपूर न्याय हुआ है।
हमारे व्रत-उपवासकी कथाएँ मात्र कथाएँ नहीं हैं, ये जीवनको संयमित सुसंस्कारित करनेकी, ज्ञान-नीतिकी जीती-जागती पाठशालाएँ हैं। तभी ये कथाएँ-परम्पराएँ | आजतक धाराकी भाँति प्रवाहित होती आ रही हैं, इनके मूलमें निर्मल मनोभावोंके अजस्त्र स्रोत हैं।

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