एक समय श्रीमद्राघवेन्द्र महाराजराजेन्द्र श्रीरामचन्द्रने एक बड़ा विशाल अश्वमेध यज्ञ किया। उसमें उन्होंने सर्वस्व दान कर दिया। उस समय उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि यदि कोई व्यक्ति अयोध्याका राज्य, पुष्पकविमान, कौस्तुभमणि, कामधेनु गाय या सीताको भी माँगेगा तो मैं उसे दे दूंगा।’ बड़े उत्साहके साथ यज्ञकी समाप्ति हुई। ठीक श्रीरामजन्मके ही दिन अवभृथ स्नान हुआ। भगवान्के सच्चिदानन्दमय श्रीविग्रहका दर्शन करके जनता धन्य हो रही थी। देवता, गन्धर्व दिव्य वाद्य बजाकर पुष्पवृष्टि कर रहे थे। अन्तमें भगवान्ने चिन्तामणि और कामधेनुको अपने गुरुको दान करनेकी तैयारी की।
वसिष्ठजीने सोचा कि ‘मेरे पास नन्दिनी तो है ही। यहाँ मैं एक अपूर्व लीला करूँ। आज श्रीराघवके औदार्यका प्रदर्शन कराकर मैं इनकी कीर्ति अक्षय कर दूँ।’ यो विचारकर उन्होंने कहा, ‘राघव! यह गोदान क्या कर रहे हो, इससे मेरी तृप्ति नहीं होती। यदि तुम्हें देना ही हो तो सर्वालंकारमण्डिता सीताको ही दान करो। अन्य सैकड़ों स्त्रियों या वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन या तृति सम्भव नहीं।’
इतना सुनना था कि जनतामें हाहाकार मच गया। कुछ लोग कहने लगे कि ‘क्या ये बूढ़े वसिष्ठ पागल हो गये ?’ कुछ लोग कहने लगे कि ‘यह मुनिका केवल विनोद है।’ कोई कहने लगा-‘मुनि राघवकी धैर्यपरीक्षा कर रहे हैं।’ इसी बीच श्रीरामचन्द्रजीने हँसकर सीताजीको बुलाया और उनका हाथ पकड़कर वे कहने लगे-‘हाँ, अब आप स्त्रीदानका मन्त्र बोलें, मैं सीताको दान कर रहा हूँ।’ वसिष्ठने भी यथाविधि इसका उपक्रम सम्पन्न किया। अब तो सभी जड़-चेतनात्मक जगत् चकित हो गया। वसिष्ठजीने सीताको अपने पीछे | बैठनेको कहा। सीताजी भी खिन्न हो गयीं। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने कहा कि ‘अब कामधेनु गाय भी लीजिये।’
वसिष्ठजीने इसपर कहा – ‘महाबाहो राम! मैंने केवल तुम्हारे औदार्य-प्रदर्शनके लिये यह कौतूहल रचा था। अब तुम मेरी बात सुनो। सीताका आठगुना सोना | तौलकर तुम इसे वापस ले लो और आजसे तुम मेरी आज्ञासे कामधेनु, चिन्तामणि, सीता, कौस्तुभमणि, पुष्पकविमान, अयोध्यापुरी तथा सम्पूर्ण राज्य किसीको देनेका नाम न लेना। यदि मेरी इस आज्ञाका लोप करोगे तो विश्वास रखो, मेरी आज्ञा न माननेसे तुम्हें बहुत क्लेश होगा। इन सात वस्तुओंके अतिरिक्त तुम जो चाहो, स्वेच्छासे ब्राह्मणोंको दो।’
तदनन्तर भगवान्ने वैसा ही किया और निरलंकार केवल दो वस्त्रोंके साथ सीताको लौटा लिया। आकाशसे पुष्पवृष्टि होने लगी तथा जय-जयकारकी महान् दर्सों दिशाएँ भर गयीं। फिर बड़े समुत्साहसे यज्ञकी शेष ध्वनिसे क्रियाएँ पूरी हुईं।
– जा0 श0 (आनन्दरामायण-यागकाण्ड)
एक समय श्रीमद्राघवेन्द्र महाराजराजेन्द्र श्रीरामचन्द्रने एक बड़ा विशाल अश्वमेध यज्ञ किया। उसमें उन्होंने सर्वस्व दान कर दिया। उस समय उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि यदि कोई व्यक्ति अयोध्याका राज्य, पुष्पकविमान, कौस्तुभमणि, कामधेनु गाय या सीताको भी माँगेगा तो मैं उसे दे दूंगा।’ बड़े उत्साहके साथ यज्ञकी समाप्ति हुई। ठीक श्रीरामजन्मके ही दिन अवभृथ स्नान हुआ। भगवान्के सच्चिदानन्दमय श्रीविग्रहका दर्शन करके जनता धन्य हो रही थी। देवता, गन्धर्व दिव्य वाद्य बजाकर पुष्पवृष्टि कर रहे थे। अन्तमें भगवान्ने चिन्तामणि और कामधेनुको अपने गुरुको दान करनेकी तैयारी की।
वसिष्ठजीने सोचा कि ‘मेरे पास नन्दिनी तो है ही। यहाँ मैं एक अपूर्व लीला करूँ। आज श्रीराघवके औदार्यका प्रदर्शन कराकर मैं इनकी कीर्ति अक्षय कर दूँ।’ यो विचारकर उन्होंने कहा, ‘राघव! यह गोदान क्या कर रहे हो, इससे मेरी तृप्ति नहीं होती। यदि तुम्हें देना ही हो तो सर्वालंकारमण्डिता सीताको ही दान करो। अन्य सैकड़ों स्त्रियों या वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन या तृति सम्भव नहीं।’
इतना सुनना था कि जनतामें हाहाकार मच गया। कुछ लोग कहने लगे कि ‘क्या ये बूढ़े वसिष्ठ पागल हो गये ?’ कुछ लोग कहने लगे कि ‘यह मुनिका केवल विनोद है।’ कोई कहने लगा-‘मुनि राघवकी धैर्यपरीक्षा कर रहे हैं।’ इसी बीच श्रीरामचन्द्रजीने हँसकर सीताजीको बुलाया और उनका हाथ पकड़कर वे कहने लगे-‘हाँ, अब आप स्त्रीदानका मन्त्र बोलें, मैं सीताको दान कर रहा हूँ।’ वसिष्ठने भी यथाविधि इसका उपक्रम सम्पन्न किया। अब तो सभी जड़-चेतनात्मक जगत् चकित हो गया। वसिष्ठजीने सीताको अपने पीछे | बैठनेको कहा। सीताजी भी खिन्न हो गयीं। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने कहा कि ‘अब कामधेनु गाय भी लीजिये।’
वसिष्ठजीने इसपर कहा – ‘महाबाहो राम! मैंने केवल तुम्हारे औदार्य-प्रदर्शनके लिये यह कौतूहल रचा था। अब तुम मेरी बात सुनो। सीताका आठगुना सोना | तौलकर तुम इसे वापस ले लो और आजसे तुम मेरी आज्ञासे कामधेनु, चिन्तामणि, सीता, कौस्तुभमणि, पुष्पकविमान, अयोध्यापुरी तथा सम्पूर्ण राज्य किसीको देनेका नाम न लेना। यदि मेरी इस आज्ञाका लोप करोगे तो विश्वास रखो, मेरी आज्ञा न माननेसे तुम्हें बहुत क्लेश होगा। इन सात वस्तुओंके अतिरिक्त तुम जो चाहो, स्वेच्छासे ब्राह्मणोंको दो।’
तदनन्तर भगवान्ने वैसा ही किया और निरलंकार केवल दो वस्त्रोंके साथ सीताको लौटा लिया। आकाशसे पुष्पवृष्टि होने लगी तथा जय-जयकारकी महान् दर्सों दिशाएँ भर गयीं। फिर बड़े समुत्साहसे यज्ञकी शेष ध्वनिसे क्रियाएँ पूरी हुईं।
– जा0 श0 (आनन्दरामायण-यागकाण्ड)