मायामय संसार

stones balance stack

मायामय संसार

पूर्वकालमें देवशर्मा नामके एक ब्राह्मण थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे और सदा स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे। देवशर्माकी गृहिणीका नाम भग्ना था। वे भादोंके शुक्लपक्षमें पंचमी तिथि आनेपर पिताका एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया करते थे। पहले दिन रात्रिमें सुख और सौभाग्य प्रदान करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रण देते और निर्मल प्रभातकाल आनेपर दूसरे दूसरे नये बर्तन
मँगवाते तथा उन सभी बर्तनोंमें अपनी स्त्रीके द्वारा पाक तैयार कराते । वह पाक अठारह रसोंसे युक्त एवं पितरोंको सन्तोष प्रदान करनेवाला होता था। पाक तैयार होनेपर वे पृथक्-पृथक् ब्राह्मणोंको बुलावा भेजकर बुलवाते थे।
एक बार उक्त समयपर निमन्त्रण पाकर समस्त वेदपाठी ब्राह्मण दोपहरी में देवशर्माके घर उपस्थित हुए। विप्रवर देवशर्माने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। फिर घरके भीतर जानेपर सबको बैठनेके लिये आसन दिया और मिष्टान्नके साथ उत्तम अन्न, उन्हें भोजन करनेके लिये परोसा; साथ ही विधिपूर्वक पिण्डदानकी पूर्ति करनेवाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिताका चिन्तन करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके वस्त्र, दक्षिणा और ताम्बूल निवेदन किये। फिर उन सबको विदा किया। तत्पश्चात् अपने बन्धु बान्धव तथा और भी जो लोग भूखे थे, उन सबको ब्राह्मणने विधिपूर्वक भोजन कराया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होनेपर ब्राह्मण जब कुटीके दरवाजेपर बैठे, उस समय उनके घरकी कुतिया और बैल दोनों परस्पर कुछ बातचीत करने लगे। बुद्धिमान् ब्राह्मणने उन दोनोंकी बातें सुनीं और समझीं। फिर मन-ही-मन वे इस प्रकार सोचने लगे—’ये साक्षात् मेरे पिता हैं, जो मेरे ही घरके पशु हुए हैं तथा यह भी साक्षात् मेरी माता है, जो दैवयोगसे कृतिया हो गयी है। अब मैं इनके उद्धारके लिये निश्चित रूपसे क्या करूँ?’ इसी विचारमें पड़े-पड़े ब्राह्मणको रातभर नींद नहीं आयी। प्रात: काल होनेपर वे ऋषियोंके समीप गये। वहाँ वसिष्ठजीने उन महामनीषीका भलीभाँति स्वागत किया।
वसिष्ठजी बोले-अपने आनेका कारण बताओ।
ब्राह्मण बोले- मुनिवर ! आज मैंने शास्त्रोक्त विधिसे श्राद्ध किया, ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा समस्त कुटुम्बके लोगोंको भी भोजन दिया है। सबके भोजनके पश्चात् एक कुतिया आयी और मेरे घरमें जहाँ एक बैल रहता है, वहाँ जा उसे पतिरूपसे सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगी- ‘स्वामिन्! आज जो घटना घटी है, उसे सुन लीजिये। इस घरमें जो दूधका बर्तन रखा हुआ था, उसे सौंपने अपना जहर उगलकर दूषित कर दिया। यह मैंने अपनी आँखों देखा था। इसे देखकर मेरे मनमें बड़ी चिन्ता हुई। सोचने लगी- इस दूधसे जब भोजन तैयार होगा, उस समय सब ब्राह्मण इसको खाते ही मर जायेंगे। यों विचारकर मैं स्वयं उस दूधको पीने लगी। इतनेमें बहूकी दृष्टि मुझपर पड़ गयी। उसने मुझे खूब मारा। मेरा अंग-भंग हो गया है। इसीसे मैं लड़खड़ाती हुई चल रही हूँ। क्या करूँ, बहुत दुखी हूँ।’
कुतियाके दुःखका अनुभव करके बैलने भी उससे कहा- ‘अब मैं अपने दुःखका कारण बताता हूँ, सुनो; मैं पूर्वजन्ममें इस ब्राह्मणका साक्षात् पिता था। आज इसने ब्राह्मणोंको भोजन कराया और प्रचुर अन्नका दान किया है; किंतु मेरे आगे इसने घास और जलतक नहीं रखा। इसी दुःखसे मुझे आज बहुत कष्ट हुआ है।’ यही संसारका स्वरूप है। कलतक हम लोग इस घरके मालिक-मालकिन थे, आज हमारे ही पुत्र-पुत्रवधू हमसे यह व्यवहार कर रहे हैं। इस मायामय संसारका यही स्वरूप है। [ पद्मपुराण ]

मायामय संसार
पूर्वकालमें देवशर्मा नामके एक ब्राह्मण थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे और सदा स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे। देवशर्माकी गृहिणीका नाम भग्ना था। वे भादोंके शुक्लपक्षमें पंचमी तिथि आनेपर पिताका एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया करते थे। पहले दिन रात्रिमें सुख और सौभाग्य प्रदान करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रण देते और निर्मल प्रभातकाल आनेपर दूसरे दूसरे नये बर्तन
मँगवाते तथा उन सभी बर्तनोंमें अपनी स्त्रीके द्वारा पाक तैयार कराते । वह पाक अठारह रसोंसे युक्त एवं पितरोंको सन्तोष प्रदान करनेवाला होता था। पाक तैयार होनेपर वे पृथक्-पृथक् ब्राह्मणोंको बुलावा भेजकर बुलवाते थे।
एक बार उक्त समयपर निमन्त्रण पाकर समस्त वेदपाठी ब्राह्मण दोपहरी में देवशर्माके घर उपस्थित हुए। विप्रवर देवशर्माने विधिपूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया। फिर घरके भीतर जानेपर सबको बैठनेके लिये आसन दिया और मिष्टान्नके साथ उत्तम अन्न, उन्हें भोजन करनेके लिये परोसा; साथ ही विधिपूर्वक पिण्डदानकी पूर्ति करनेवाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिताका चिन्तन करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके वस्त्र, दक्षिणा और ताम्बूल निवेदन किये। फिर उन सबको विदा किया। तत्पश्चात् अपने बन्धु बान्धव तथा और भी जो लोग भूखे थे, उन सबको ब्राह्मणने विधिपूर्वक भोजन कराया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होनेपर ब्राह्मण जब कुटीके दरवाजेपर बैठे, उस समय उनके घरकी कुतिया और बैल दोनों परस्पर कुछ बातचीत करने लगे। बुद्धिमान् ब्राह्मणने उन दोनोंकी बातें सुनीं और समझीं। फिर मन-ही-मन वे इस प्रकार सोचने लगे—’ये साक्षात् मेरे पिता हैं, जो मेरे ही घरके पशु हुए हैं तथा यह भी साक्षात् मेरी माता है, जो दैवयोगसे कृतिया हो गयी है। अब मैं इनके उद्धारके लिये निश्चित रूपसे क्या करूँ?’ इसी विचारमें पड़े-पड़े ब्राह्मणको रातभर नींद नहीं आयी। प्रात: काल होनेपर वे ऋषियोंके समीप गये। वहाँ वसिष्ठजीने उन महामनीषीका भलीभाँति स्वागत किया।
वसिष्ठजी बोले-अपने आनेका कारण बताओ।
ब्राह्मण बोले- मुनिवर ! आज मैंने शास्त्रोक्त विधिसे श्राद्ध किया, ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा समस्त कुटुम्बके लोगोंको भी भोजन दिया है। सबके भोजनके पश्चात् एक कुतिया आयी और मेरे घरमें जहाँ एक बैल रहता है, वहाँ जा उसे पतिरूपसे सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगी- ‘स्वामिन्! आज जो घटना घटी है, उसे सुन लीजिये। इस घरमें जो दूधका बर्तन रखा हुआ था, उसे सौंपने अपना जहर उगलकर दूषित कर दिया। यह मैंने अपनी आँखों देखा था। इसे देखकर मेरे मनमें बड़ी चिन्ता हुई। सोचने लगी- इस दूधसे जब भोजन तैयार होगा, उस समय सब ब्राह्मण इसको खाते ही मर जायेंगे। यों विचारकर मैं स्वयं उस दूधको पीने लगी। इतनेमें बहूकी दृष्टि मुझपर पड़ गयी। उसने मुझे खूब मारा। मेरा अंग-भंग हो गया है। इसीसे मैं लड़खड़ाती हुई चल रही हूँ। क्या करूँ, बहुत दुखी हूँ।’
कुतियाके दुःखका अनुभव करके बैलने भी उससे कहा- ‘अब मैं अपने दुःखका कारण बताता हूँ, सुनो; मैं पूर्वजन्ममें इस ब्राह्मणका साक्षात् पिता था। आज इसने ब्राह्मणोंको भोजन कराया और प्रचुर अन्नका दान किया है; किंतु मेरे आगे इसने घास और जलतक नहीं रखा। इसी दुःखसे मुझे आज बहुत कष्ट हुआ है।’ यही संसारका स्वरूप है। कलतक हम लोग इस घरके मालिक-मालकिन थे, आज हमारे ही पुत्र-पुत्रवधू हमसे यह व्यवहार कर रहे हैं। इस मायामय संसारका यही स्वरूप है। [ पद्मपुराण ]

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *