राजाके पापसे प्रजाका विनाश होता है

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राजाके पापसे प्रजाका विनाश होता है

बृहस्पतिजी देवताओंके गुरु हैं। एक बार वे इन्द्रके अवहेलनापूर्ण व्यवहारसे खिन्न हो गये। तब गुरु बृहस्पतिके बिना भी शचीपति इन्द्रने कुछ कालतक राज्य शासन किया। उस समय विश्वरूपजी इन्द्रके पुरोहित हुए थे। विश्वरूपके तीन मस्तक थे; वे यज्ञ और पूजनमें उचित भाग देकर देवताओंके साथ-साथ असुरों और मनुष्योंको भी तृप्त करते थे। यह बात शचीपति इन्द्रसे छिपी न रह सकी। पुरोहित विश्वरूपजी देवताओंका भाग उच्चस्वरसे बोलकर देते थे। दैत्योंको चुपचाप बिना बोले ही देते थे।
और मनुष्योंको मध्यम स्वरसे मन्त्र पढ़कर भाग समर्पित करते थे। यह उनका प्रतिदिनका कार्य था। एक दिन इन्द्रको गुरुजीकी इस बातका पता लग गया। तब उन्होंने छिपे छिपे यह जान लिया कि विश्वरूपजी क्या करना चाहते हैं। ‘ये दैत्योंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उन्हें भाग अर्पण करते हैं, हमारे पुरोहित होकर दूसरोंको फल देते हैं।’ यों समझकर इन्द्रने सौ पर्ववाले वज्रसे विश्वरूपके मस्तक काट डाले। वज्रके आघातसे तत्काल उनकी मृत्यु हो गयी । इन्द्र ब्रह्महत्याके अपराधी हुए।
तदनन्तर धुएँके समान रंगवाली तथा तीन मस्तकोंवाली ब्रह्महत्या इन्द्रको निगल जानेके लिये उनके पास आयी। उसे देखकर इन्द्रको बड़ा भय हुआ, अतः वे वहाँसे भाग चले। उन्हें भागते देख भयदायिनी ब्रह्महत्या उनका पीछा करने लगी। जब वे भागते तब वह भी पीछे-पीछे दौड़ती और उनके खड़े होनेपर खड़ी हो जाती। परछाईके समान वह इन्द्रके पीछे लगी रहती। जाते-जाते सहसा वह इन्द्रको लपेट लेनेके लिये झपटी, इतनेमें ही इन्द्र बड़ी फुर्तीके साथ पानीमें कूद पड़े और वहीं गोता लगा गये, मानो वे चिरकालसे जलमें ही निवास करनेवाले कोई जलचर जीव हों। इस प्रकार उस जलमें बड़े दुःखसे निवास करते हुए इन्द्रके तीन सौ दिव्य वर्ष पूरे हो गये। उस समय स्वर्गलोकमें भयंकर अराजकता छा गयी। देवता और तपस्वी ऋषि भी चिन्तित हो उठे। तीनों लोक विपत्तिग्रस्त हो गये। जिस राज्यमें एक भी ब्रह्महत्यारा निर्भय होकर निवास करता है, वहाँ साधु पुरुषोंकी अकालमृत्यु होती है। जिस राज्यमें पापात्मा राजा निवास करता है, वहाँ प्रजाके विनाशके लिये दुर्भिक्ष, मृत्यु, उपद्रव तथा और भी बहुत-से अनर्थ उत्पन्न होते हैं। अतः राजाको श्रद्धापूर्वक धर्मका पालन करना चाहिये। राजाके पवित्र होनेसे ही उसकी प्रजा पवित्र रहकर स्थिरता प्राप्त करती है।a
इन्द्रने जो पाप किया था, उसके कारण सम्पूर्ण जगत् नाना प्रकारके सन्तापोंसे पीड़ित और उपद्रवग्रस्त हो गया; क्योंकि राजाके पापसे प्रजाका भी विनाश होता है।

राजाके पापसे प्रजाका विनाश होता है
बृहस्पतिजी देवताओंके गुरु हैं। एक बार वे इन्द्रके अवहेलनापूर्ण व्यवहारसे खिन्न हो गये। तब गुरु बृहस्पतिके बिना भी शचीपति इन्द्रने कुछ कालतक राज्य शासन किया। उस समय विश्वरूपजी इन्द्रके पुरोहित हुए थे। विश्वरूपके तीन मस्तक थे; वे यज्ञ और पूजनमें उचित भाग देकर देवताओंके साथ-साथ असुरों और मनुष्योंको भी तृप्त करते थे। यह बात शचीपति इन्द्रसे छिपी न रह सकी। पुरोहित विश्वरूपजी देवताओंका भाग उच्चस्वरसे बोलकर देते थे। दैत्योंको चुपचाप बिना बोले ही देते थे।
और मनुष्योंको मध्यम स्वरसे मन्त्र पढ़कर भाग समर्पित करते थे। यह उनका प्रतिदिनका कार्य था। एक दिन इन्द्रको गुरुजीकी इस बातका पता लग गया। तब उन्होंने छिपे छिपे यह जान लिया कि विश्वरूपजी क्या करना चाहते हैं। ‘ये दैत्योंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उन्हें भाग अर्पण करते हैं, हमारे पुरोहित होकर दूसरोंको फल देते हैं।’ यों समझकर इन्द्रने सौ पर्ववाले वज्रसे विश्वरूपके मस्तक काट डाले। वज्रके आघातसे तत्काल उनकी मृत्यु हो गयी । इन्द्र ब्रह्महत्याके अपराधी हुए।
तदनन्तर धुएँके समान रंगवाली तथा तीन मस्तकोंवाली ब्रह्महत्या इन्द्रको निगल जानेके लिये उनके पास आयी। उसे देखकर इन्द्रको बड़ा भय हुआ, अतः वे वहाँसे भाग चले। उन्हें भागते देख भयदायिनी ब्रह्महत्या उनका पीछा करने लगी। जब वे भागते तब वह भी पीछे-पीछे दौड़ती और उनके खड़े होनेपर खड़ी हो जाती। परछाईके समान वह इन्द्रके पीछे लगी रहती। जाते-जाते सहसा वह इन्द्रको लपेट लेनेके लिये झपटी, इतनेमें ही इन्द्र बड़ी फुर्तीके साथ पानीमें कूद पड़े और वहीं गोता लगा गये, मानो वे चिरकालसे जलमें ही निवास करनेवाले कोई जलचर जीव हों। इस प्रकार उस जलमें बड़े दुःखसे निवास करते हुए इन्द्रके तीन सौ दिव्य वर्ष पूरे हो गये। उस समय स्वर्गलोकमें भयंकर अराजकता छा गयी। देवता और तपस्वी ऋषि भी चिन्तित हो उठे। तीनों लोक विपत्तिग्रस्त हो गये। जिस राज्यमें एक भी ब्रह्महत्यारा निर्भय होकर निवास करता है, वहाँ साधु पुरुषोंकी अकालमृत्यु होती है। जिस राज्यमें पापात्मा राजा निवास करता है, वहाँ प्रजाके विनाशके लिये दुर्भिक्ष, मृत्यु, उपद्रव तथा और भी बहुत-से अनर्थ उत्पन्न होते हैं। अतः राजाको श्रद्धापूर्वक धर्मका पालन करना चाहिये। राजाके पवित्र होनेसे ही उसकी प्रजा पवित्र रहकर स्थिरता प्राप्त करती है।a
इन्द्रने जो पाप किया था, उसके कारण सम्पूर्ण जगत् नाना प्रकारके सन्तापोंसे पीड़ित और उपद्रवग्रस्त हो गया; क्योंकि राजाके पापसे प्रजाका भी विनाश होता है।

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