मैं अपने सारे सम्बन्ध, यौवन और धन आदिका त्यागकर संन्यास लूँगा। प्रवजित होना ही मेरे जीवनका लक्ष्य है।’ मगधदेशीय महातिथ्य ग्रामनिवासी कपिल ब्राह्मणके पुत्र पिप्पली माणवकका दृढ़ संकल्प था। उसको माँने उसे वैवाहिक बन्धनमें बाँधनेकी बार वर चेष्टा की, पर उसकी स्वीकृति न मिल सकी। भगवकने एक हजार निष्क (स्वर्ण मुद्रा) की लागत की एक स्वर्ण- प्रतिमा बनवाकर माँसे कहा – यदि मेरी होनेवाली पत्नी इतनी ही रूपवती होगी तो मैं विवाहकर लूँगा। इस तरह उसने समय टालना चाहा; पर माँने प्रतिमाके साथ कन्याकी खोजके लिये आठ ब्राह्मण बाहर भेजे।
ब्राह्मणोंने मद्रदेशमें जाकर एक अत्यन्त रूपवती कन्याका पता लगाया, कन्याके पिताने विवाह करना स्वीकार कर लिया। ब्राह्मणोंने माणवकके घर समाचार भेजा । वह चिन्तित हो उठा। उसने अपनी होनेवाली पत्नी भद्रा कापिलायनीको पत्र लिखा कि ‘अपनी जाति, गोत्र और रूप-रंगके अनुसार गृहस्थ धर्म स्वीकारकरना चाहिये। मेरा प्रव्रजित होनेका विचार है।’ इसी आशयका पत्र भद्राने भी लिखा था। दोनोंके पत्र वाहकोंकी बीचमें ही भेंट हो गयी; उन्होंने पत्र फाड़कर अनुकूल पत्र उपस्थित किये। सम्बन्ध हो गया; अपने पहलेके लिखे पत्रोंके अनुसार दोनों एक-दूसरेसे खिंचे खिंचे रहते थे। दैवयोगसे विवाह होनेके बाद दोनोंने एक-दूसरेका स्पर्शतक नहीं किया।
कुछ दिनोंके बाद माता-पिताका प्राणान्त होनेपर माणवक कुटुम्बके लिये विचार करने लगा, पर मन विषयासक्त न हो सका। एक दिन सजे हुए घोड़ेपर सवार होकर वह सैरके लिये निकला; एक पेड़के नीचे खड़ा होकर उसने कौओंको कीड़े-मकोड़े खाते देखा । मनमें कहा कि ‘ये तो हमारी भूमिके ही जीव हैं, इनके पापका उत्तरदायित्व मुझपर है।’ इसी प्रकारका विचार घरपर भद्राके मनमें भी उठा। एक-दूसरेसे मिलनेपर दोनोंने संन्यासका पक्ष लिया। बाजारसे मिट्टीके नये पात्र मँगाये गये। दोनोंने एक-दूसरेके केश काटे, प्रव्रजित होकर कंधे पर झोली रखकर दोनों घरसे निकल पड़े। जो भी उन्हें मार्गमें देखता था, उसके नयनोंमें अश्रु उमड़ पड़ते थे।
‘देवि! हमारा एक साथ रहना कदापि शोभन नहीं है । संसारके लोग कहेंगे कि माणवक प्रव्रजित होनेपर भी स्त्रीके मोहसे मुक्त न हो सका। इस प्रकार हमारे सम्बन्धमें अनेक भावनाएँ कर वे पापके भागी हो सकतेहैं।’ माणवकका हृदय कठोर हो गया।
‘आर्य पुत्रकी आज्ञा सर्वथा पालनीय है।’ उसने | माणवककी चरण-वन्दना की; दूसरा रास्ता पकड़ लिया। भद्रा प्रसन्न थी।
माणवक भगवान् बुद्धका दर्शन करनेके लिये वेणुवनकी ओर चल पड़ा। शास्ताने उपसम्पदा दी और स्थविर माणवक (महाकाश्यप) को साथ लेकर चारिका करने चल पड़े।
राजगृह और नालन्दाके बीचमें एक पेड़के नीचे तथागत खड़े हो गये।
‘भगवान् इस आसनपर विश्राम करें।’ माणवकने अपनी रेशमी संघाटी बिछा दी ।
‘कितना कोमल है यह!’ तथागतने परीक्षा ली उसके वैराग्यकी ‘तो भगवान् इसे धारण करें।’ माणवक प्रसन्न था। ‘क्या तुम हमारी जीर्ण-शीर्ण गुदड़ी पहन सकते हो ? चिथड़ोंको सीकर पहननेवाला ही इसे उपयोग में ला सकता है, काश्यप!’ तथागत उसकी ओर देखने लगे।
‘जिसे मैंने अपार धन और अत्यन्त रूपवतीके बदले ग्रहण किया है, उस वैराग्यका भाव गिरने नहीं पायेगा । भन्ते । चीवर-परिवर्तन ही हमारे संन्यासका अन्तिम मूल्य है।’ महाकाश्यपने भगवान्का चीवर धारण कर लिया।
– रा0 श्री0 (बुद्धचर्या)
मैं अपने सारे सम्बन्ध, यौवन और धन आदिका त्यागकर संन्यास लूँगा। प्रवजित होना ही मेरे जीवनका लक्ष्य है।’ मगधदेशीय महातिथ्य ग्रामनिवासी कपिल ब्राह्मणके पुत्र पिप्पली माणवकका दृढ़ संकल्प था। उसको माँने उसे वैवाहिक बन्धनमें बाँधनेकी बार वर चेष्टा की, पर उसकी स्वीकृति न मिल सकी। भगवकने एक हजार निष्क (स्वर्ण मुद्रा) की लागत की एक स्वर्ण- प्रतिमा बनवाकर माँसे कहा – यदि मेरी होनेवाली पत्नी इतनी ही रूपवती होगी तो मैं विवाहकर लूँगा। इस तरह उसने समय टालना चाहा; पर माँने प्रतिमाके साथ कन्याकी खोजके लिये आठ ब्राह्मण बाहर भेजे।
ब्राह्मणोंने मद्रदेशमें जाकर एक अत्यन्त रूपवती कन्याका पता लगाया, कन्याके पिताने विवाह करना स्वीकार कर लिया। ब्राह्मणोंने माणवकके घर समाचार भेजा । वह चिन्तित हो उठा। उसने अपनी होनेवाली पत्नी भद्रा कापिलायनीको पत्र लिखा कि ‘अपनी जाति, गोत्र और रूप-रंगके अनुसार गृहस्थ धर्म स्वीकारकरना चाहिये। मेरा प्रव्रजित होनेका विचार है।’ इसी आशयका पत्र भद्राने भी लिखा था। दोनोंके पत्र वाहकोंकी बीचमें ही भेंट हो गयी; उन्होंने पत्र फाड़कर अनुकूल पत्र उपस्थित किये। सम्बन्ध हो गया; अपने पहलेके लिखे पत्रोंके अनुसार दोनों एक-दूसरेसे खिंचे खिंचे रहते थे। दैवयोगसे विवाह होनेके बाद दोनोंने एक-दूसरेका स्पर्शतक नहीं किया।
कुछ दिनोंके बाद माता-पिताका प्राणान्त होनेपर माणवक कुटुम्बके लिये विचार करने लगा, पर मन विषयासक्त न हो सका। एक दिन सजे हुए घोड़ेपर सवार होकर वह सैरके लिये निकला; एक पेड़के नीचे खड़ा होकर उसने कौओंको कीड़े-मकोड़े खाते देखा । मनमें कहा कि ‘ये तो हमारी भूमिके ही जीव हैं, इनके पापका उत्तरदायित्व मुझपर है।’ इसी प्रकारका विचार घरपर भद्राके मनमें भी उठा। एक-दूसरेसे मिलनेपर दोनोंने संन्यासका पक्ष लिया। बाजारसे मिट्टीके नये पात्र मँगाये गये। दोनोंने एक-दूसरेके केश काटे, प्रव्रजित होकर कंधे पर झोली रखकर दोनों घरसे निकल पड़े। जो भी उन्हें मार्गमें देखता था, उसके नयनोंमें अश्रु उमड़ पड़ते थे।
‘देवि! हमारा एक साथ रहना कदापि शोभन नहीं है । संसारके लोग कहेंगे कि माणवक प्रव्रजित होनेपर भी स्त्रीके मोहसे मुक्त न हो सका। इस प्रकार हमारे सम्बन्धमें अनेक भावनाएँ कर वे पापके भागी हो सकतेहैं।’ माणवकका हृदय कठोर हो गया।
‘आर्य पुत्रकी आज्ञा सर्वथा पालनीय है।’ उसने | माणवककी चरण-वन्दना की; दूसरा रास्ता पकड़ लिया। भद्रा प्रसन्न थी।
माणवक भगवान् बुद्धका दर्शन करनेके लिये वेणुवनकी ओर चल पड़ा। शास्ताने उपसम्पदा दी और स्थविर माणवक (महाकाश्यप) को साथ लेकर चारिका करने चल पड़े।
राजगृह और नालन्दाके बीचमें एक पेड़के नीचे तथागत खड़े हो गये।
‘भगवान् इस आसनपर विश्राम करें।’ माणवकने अपनी रेशमी संघाटी बिछा दी ।
‘कितना कोमल है यह!’ तथागतने परीक्षा ली उसके वैराग्यकी ‘तो भगवान् इसे धारण करें।’ माणवक प्रसन्न था। ‘क्या तुम हमारी जीर्ण-शीर्ण गुदड़ी पहन सकते हो ? चिथड़ोंको सीकर पहननेवाला ही इसे उपयोग में ला सकता है, काश्यप!’ तथागत उसकी ओर देखने लगे।
‘जिसे मैंने अपार धन और अत्यन्त रूपवतीके बदले ग्रहण किया है, उस वैराग्यका भाव गिरने नहीं पायेगा । भन्ते । चीवर-परिवर्तन ही हमारे संन्यासका अन्तिम मूल्य है।’ महाकाश्यपने भगवान्का चीवर धारण कर लिया।
– रा0 श्री0 (बुद्धचर्या)