वैष्णव-सङ्गका श्रेष्ठ फल

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“मैंने जीवनपर्यन्त पाप ही पाप किये हैं-रग कम्बल और चमड़ेके व्यापारसे ही जीविका चलायी, जिसको लोग अच्छा काम नहीं समझते। मदिरापान, वेश्यागमन, मिथ्या भाषण मेंसे मैंने किसीको भी नहीं छोड़ा। अवन्तोपुरीका रहनेवाला धनेश्वर ब्राह्मण इस प्रकारकी अनेक बातोंका चिन्तन करता हुआ अपने पथपर बढ़ रहा था। वह सामान खरीदने-बेचनेके लिये माहिष्मती जा रहा था।

माहिष्मती आ गयी। परम पवित्र भगवती नर्मदाकी स्वच्छ तर माहिष्मतीकी प्राचीर चूमकर उसकी पवित्रता बढ़ा रही थीं। ऐसा लगता था मानो अमरकण्टक पर्वतपर तप करनेके बाद सिद्धियोंने माहिष्मतीमें ही निवास करनेका विचार किया हो। इस तीर्थमें कहीं वेदमन्त्रोंका उच्चारण हो रहा था, कहीं बड़े-बड़े यज्ञ हो रहे थे; पुराण श्रवणका क्रम चल रहा था; स्नान, ध्यान पूजनमें लोग तत्पर थे तो कहीं भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेके लिये नृत्य-गान आदि उत्सव भी विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहे थे। नदीके तटपर वैष्णवजन कहीं दान-पुण्य कर रहे थे तो कहीं बड़े-बड़े व्रतअनुष्ठान भी दर्शनीय थे । धनेश्वरको माहिष्मतीमें निवास करते एक मास पूरा हो रहा था, वह घूम-घूमकर शुभ कृत्योंका दर्शन करता था।

‘आह!’ एक दिन नदी-तटपर घूमते समय उसके मुखसे सहसा निकल पड़ा। वह मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे काले साँपने काट लिया था । अगणित लोग एकत्र हो गये। उसकी चेतना लौटानेके लिये वैष्णवोंने तुलसीदल-मिश्रित जलका उसके मुखपर छींटा दिया, श्रीविष्णुका नाम सुनाया, द्वादशाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया; पर उसके शरीरमें प्राणका संचार न हो सका।

संयमनीपुरीमें पहुँचनेपर धनेश्वरके लिये कड़ी-से कड़ी यातनाका विधान सोचा गया। यमदूत उसे मुद्गरसे मारने लगे।

‘इसने पृथ्वीपर एक भी पुण्य नहीं किया है, महाराज! यह महान् पापी है।’ चित्रगुप्तने यमराजका ध्यान आकृष्ट किया; धनेश्वर कुम्भीपाक नरकमें खौलते तेलके कड़ा में डाल दिया गया। उसके गिरते ही तेल ठंडा हो गया।’संयमनीपुरीकी यह पहली आश्चर्यमयी घटना है, महाराज!’ प्रेतराजने विस्मित दृष्टिसे यमराजको देखा।

‘इसमें आश्चर्य करनेकी आवश्यकता ही नहीं है; धनेश्वरने एक मासतक वैष्णवोंके सम्पर्कमें माहिष्मतीमें निवासकर अनेक पुण्य कमाये हैं; व्रत-अनुष्ठान, दान, नृत्य, संगीत, कथा-वार्ता आदिसे इसका मन पवित्र है; इसके पहलेके पाप नष्ट हो गये हैं।’ वीणा बजाते हुए देवर्षि नारद आ पहुँचे । यम और प्रेतराज- दोनोंनेउनकी चरण-वन्दना की।

‘यह यक्षयोनि पानेका अधिकारी है; इसके लिये नरक-यातनाकी आवश्यकता नहीं है, केवल नरक दर्शनसे ही काम चल जायगा।’ नारद चले गये।

प्रेतराजने धनेश्वरको तप्तवालुका, अन्धतामिस्र, क्रकच, असिपत्रवन, अर्गला, कूटशाल्मली, रक्तपूय और कुम्भीपाक नरकका दर्शन कराया। उसने यक्षयोनि पायी।

– रा0 श्री0 (पद्मपुराण, उत्तरखण्ड)

“मैंने जीवनपर्यन्त पाप ही पाप किये हैं-रग कम्बल और चमड़ेके व्यापारसे ही जीविका चलायी, जिसको लोग अच्छा काम नहीं समझते। मदिरापान, वेश्यागमन, मिथ्या भाषण मेंसे मैंने किसीको भी नहीं छोड़ा। अवन्तोपुरीका रहनेवाला धनेश्वर ब्राह्मण इस प्रकारकी अनेक बातोंका चिन्तन करता हुआ अपने पथपर बढ़ रहा था। वह सामान खरीदने-बेचनेके लिये माहिष्मती जा रहा था।
माहिष्मती आ गयी। परम पवित्र भगवती नर्मदाकी स्वच्छ तर माहिष्मतीकी प्राचीर चूमकर उसकी पवित्रता बढ़ा रही थीं। ऐसा लगता था मानो अमरकण्टक पर्वतपर तप करनेके बाद सिद्धियोंने माहिष्मतीमें ही निवास करनेका विचार किया हो। इस तीर्थमें कहीं वेदमन्त्रोंका उच्चारण हो रहा था, कहीं बड़े-बड़े यज्ञ हो रहे थे; पुराण श्रवणका क्रम चल रहा था; स्नान, ध्यान पूजनमें लोग तत्पर थे तो कहीं भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेके लिये नृत्य-गान आदि उत्सव भी विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहे थे। नदीके तटपर वैष्णवजन कहीं दान-पुण्य कर रहे थे तो कहीं बड़े-बड़े व्रतअनुष्ठान भी दर्शनीय थे । धनेश्वरको माहिष्मतीमें निवास करते एक मास पूरा हो रहा था, वह घूम-घूमकर शुभ कृत्योंका दर्शन करता था।
‘आह!’ एक दिन नदी-तटपर घूमते समय उसके मुखसे सहसा निकल पड़ा। वह मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे काले साँपने काट लिया था । अगणित लोग एकत्र हो गये। उसकी चेतना लौटानेके लिये वैष्णवोंने तुलसीदल-मिश्रित जलका उसके मुखपर छींटा दिया, श्रीविष्णुका नाम सुनाया, द्वादशाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया; पर उसके शरीरमें प्राणका संचार न हो सका।
संयमनीपुरीमें पहुँचनेपर धनेश्वरके लिये कड़ी-से कड़ी यातनाका विधान सोचा गया। यमदूत उसे मुद्गरसे मारने लगे।
‘इसने पृथ्वीपर एक भी पुण्य नहीं किया है, महाराज! यह महान् पापी है।’ चित्रगुप्तने यमराजका ध्यान आकृष्ट किया; धनेश्वर कुम्भीपाक नरकमें खौलते तेलके कड़ा में डाल दिया गया। उसके गिरते ही तेल ठंडा हो गया।’संयमनीपुरीकी यह पहली आश्चर्यमयी घटना है, महाराज!’ प्रेतराजने विस्मित दृष्टिसे यमराजको देखा।
‘इसमें आश्चर्य करनेकी आवश्यकता ही नहीं है; धनेश्वरने एक मासतक वैष्णवोंके सम्पर्कमें माहिष्मतीमें निवासकर अनेक पुण्य कमाये हैं; व्रत-अनुष्ठान, दान, नृत्य, संगीत, कथा-वार्ता आदिसे इसका मन पवित्र है; इसके पहलेके पाप नष्ट हो गये हैं।’ वीणा बजाते हुए देवर्षि नारद आ पहुँचे । यम और प्रेतराज- दोनोंनेउनकी चरण-वन्दना की।
‘यह यक्षयोनि पानेका अधिकारी है; इसके लिये नरक-यातनाकी आवश्यकता नहीं है, केवल नरक दर्शनसे ही काम चल जायगा।’ नारद चले गये।
प्रेतराजने धनेश्वरको तप्तवालुका, अन्धतामिस्र, क्रकच, असिपत्रवन, अर्गला, कूटशाल्मली, रक्तपूय और कुम्भीपाक नरकका दर्शन कराया। उसने यक्षयोनि पायी।
– रा0 श्री0 (पद्मपुराण, उत्तरखण्ड)

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