एक बार इन्द्रने बड़ी कठिनतासे राजा यतिको ह निकाला। उस समय वे छिपकर किसी खाली घरमें गदहेके रूपमें कालक्षेप कर रहे थे। इन्द्र और बलिमें कुछ बातें हो रही थीं। बलिने इन्द्रको तत्वज्ञानका = उपदेश दिया तथा कालकी महत्ता बतलायी। बात दोनोंमें चल ही रही थी कि एक अत्यन्त दिव्य स्त्रीबलिके शरीरसे निकल आयी। इसे देख इन्द्रको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बलिसे पूछा – ‘दानवराज! तुम्हारे शरीरसे यह प्रभामयी कौन-सी स्त्री बाहर निकल पड़ी? यह देवी है अथवा आसुरी या मानुषी ?”
बलिने कहा – ‘न यह देवी है न मानुषी और न आसुरी। यह क्या है तथा इसे क्या अभिप्रेत हैसो तुम इसीसे पूछो।’ इसपर इन्द्रने कहा-‘देवी। तुम कौन हो तथा असुरराज बलिको छोड़कर मेरी ओर क्यों आ रही हो ?’
इसपर वह प्रभामयी शक्ति बोली- देवेन्द्र न तो मुझे विरोचन जानते थे और न उनके पुत्र ये बलि ही पण्डित लोग मुझे दुस्सहा, विधित्सा, भूति, श्री और लक्ष्मीके नामोंसे पुकारते हैं। तुम और दूसरे देवता भी मुझे नहीं जानते।’
इन्द्रने पूछा- आयें। तुम बहुत दिनोंतक बलिके पास रहीं। अब बलिमें कौन-सा दोष और मुझमें गुण देखकर उन्हें छोड़ मेरे पास आ रही हो ?’
लक्ष्मीने कहा- ‘देवेन्द्र! मुझे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर धाता विधाता कोई भी नहीं हटा सकता। कालके प्रभावसे हो मैं एकको छोड़कर दूसरेके पास जाती हूँ। इसलिये तुम बलिका अनादर मत करो।’
इन्द्रने पूछा, ‘सुन्दरी! तुम अब असुरोंके पास क्यों नहीं रहना चाहतीं ?’ लक्ष्मी बोलीं- ‘जहाँ सत्य, दान, व्रत, तप, पराक्रम तथा धर्म रहते हैं, मैं वहीं रहती हूँ। असुर इस समय इनसे विमुख हो रहे हैं। पहले ये सत्यवादी जितेन्द्रिय और ब्राह्मणोंके हितैषी थे। पर अब ये ब्राह्मणोंसे ईर्ष्या करने लगे हैं, जूठे हाथ घी छूते हैं, अभक्ष्यभोजन करते और धर्मको मर्यादा तोड़कर मनमाना आचरण करते हैं। पहले ये उपवास और तपमें लगे रहते थे। प्रतिदिन सूर्योदयके पहले जागते और रातमें कभी दही या सत्तू नहीं खाते थे। रातके आधे भागमें हो ये सोते थे, दिनमें तो ये कभी सोनेका नाम भी नहीं लेते थे। दीन, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी तथा स्त्रियोंपर दया करते तथा उनके लिये अन्न-वस्त्रको व्यवस्था करते थे। व्याकुल, विषादग्रस्त, भयभीत, रोगी, दुर्बल, पीड़ित तथा जिसका सर्वस्व लुट गया हो, उसको सदा ढाढ़स बँधाते तथा उसकी सहायता करते थे। पहले ये कार्यके समय परस्पर अनुकूल रहकर गुरुजनों तथा बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें सदा दत्तचित्त रहते थे। ये उत्तम भोजन बनाकर अकेले ही नहीं खाते थे। पहले दूसरोंको देकर पीछे अपने उपभोगमें लाते थे सब प्राणियोंको अपने ही समान समझकर उनपर दया करते थे। चतुरता, सरलता, उत्साह, निरहंकारता, सौहार्द, क्षमा, सत्य, दान, तप, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्रोंसे प्रगाढ़ प्रेमये सभी गुण इनमें सदा मौजूद रहते थे। निद्रा अप्रसन्नता, दोषदृष्टि अविवेक असंतोष और कामना ये दुर्गुण इन्हें स्पर्शतक नहीं कर सके थे।’ ‘पर अब तो इनकी सारी बातें निराली तथा आलस्य, विपरीत हो दीख पड़ती हैं। धर्म तो इनमें अब | ही नहीं गया है। ये सदा काम-क्रोधके वशीभूत रहते. हैं। बड़े-बृद्दों की सभाओंमें ये गुणहीन दैत्य उनमें देश निकालते हुए उनकी हँसी उड़ाया करते हैं। वृद्धह आनेपर ये लोग अपने आसनोंपर से उठते भी नहीं। स्त्री पतिकी, पुत्र पिताकी आज्ञा नहीं मानता। माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरुओंका आदर इ उठ गया। संतानोंके उचित लालन-पालनपर ध्यान नहीं दिया जाता। इनके रसोइये भी अब पवित्र नहीं होते। छोटे बालक आशा लगाकर टकटकी बाँधे देखते ही रह जाते हैं और दैत्यलोग खानेकी चीजें अकेले घर कर जाते हैं। ये पशुओंको घरमें बाँध देते हैं, पर चारा और पानी देकर उनका आदर नहीं करते। ये सूर्योदयतक सोये रहते हैं तथा प्रभातको भी रात ही समझते हैं। प्रायः दिन-रात इनके घरमें कलह ही मचा रहता है।’
‘अब इनके यहाँ वर्णसंकर संतानें होने लगी हैं। वेदवेता ब्राहाणों और मूखको ये एक समान आदर या अनादर देते हैं। ये अपने पूर्वजोंद्वारा ब्राह्मणोंको दी हुई जागीर नास्तिकताके कारण छीन लेते हैं। शिष्य अब गुरुओंसे सेवा करवाते हैं। पत्नी पतिपर शास्त करती है और उसका नाम ले-लेकर पुकारती है। संक्षेपमें ये सब-के-सब कृतघ्र, नास्तिक, पापाचारी और स्वैरी बन गये हैं। अब इनके वदनपर पहलेका सा तेज नहीं रह गया।’
‘इसलिये देवराज! अब मैंने भी निश्चय कर लिया कि इनके घरमें नहीं रहूँगी। इसी कारणसे दैत्योंका | परित्याग करके तुम्हारी ओर आ रही हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो। जहाँ मैं रहूँगी, वहाँ आशा, श्रद्धा ि क्षान्ति, विजिति, संतति, क्षमा और जया-ये आठ देवियाँ भी मेरे साथ निवास करेंगी। मेरे साथ ही ये सभी देवियों भी असुरोंको त्यागकर आ गयी हैं। तुम | देवताओंका मन अब धर्ममें लग गया है, अतएव अब हम तुम्हारे ही यहाँ निवास करेंगी।’
तदनन्तर इन्द्रने उन लक्ष्मीजीका अभिनन्दन किया।सारे देवता भी उनका दर्शन करनेके लिये वहाँ आ गये। तत्पश्चात् सभी लौटकर स्वर्गमें आये। नारदजीने लक्ष्मीजीके आगमनकी स्वर्गीय सभामें प्रशंसा की। एक साथ ही पुनः सभीने बाजे-गाजेके साथ पुष्प और अमृतकीवर्षा की। तबसे फिर अखिल संसार धर्म तथा सुखमय हो गया।
-जा0 श0
(महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्ष0 224-228, बृहद् विष्णुस्मृति, अध्याय 99 महा0 अनुशासनपर्व, अध्याय 11)
एक बार इन्द्रने बड़ी कठिनतासे राजा यतिको ह निकाला। उस समय वे छिपकर किसी खाली घरमें गदहेके रूपमें कालक्षेप कर रहे थे। इन्द्र और बलिमें कुछ बातें हो रही थीं। बलिने इन्द्रको तत्वज्ञानका = उपदेश दिया तथा कालकी महत्ता बतलायी। बात दोनोंमें चल ही रही थी कि एक अत्यन्त दिव्य स्त्रीबलिके शरीरसे निकल आयी। इसे देख इन्द्रको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बलिसे पूछा – ‘दानवराज! तुम्हारे शरीरसे यह प्रभामयी कौन-सी स्त्री बाहर निकल पड़ी? यह देवी है अथवा आसुरी या मानुषी ?”
बलिने कहा – ‘न यह देवी है न मानुषी और न आसुरी। यह क्या है तथा इसे क्या अभिप्रेत हैसो तुम इसीसे पूछो।’ इसपर इन्द्रने कहा-‘देवी। तुम कौन हो तथा असुरराज बलिको छोड़कर मेरी ओर क्यों आ रही हो ?’
इसपर वह प्रभामयी शक्ति बोली- देवेन्द्र न तो मुझे विरोचन जानते थे और न उनके पुत्र ये बलि ही पण्डित लोग मुझे दुस्सहा, विधित्सा, भूति, श्री और लक्ष्मीके नामोंसे पुकारते हैं। तुम और दूसरे देवता भी मुझे नहीं जानते।’
इन्द्रने पूछा- आयें। तुम बहुत दिनोंतक बलिके पास रहीं। अब बलिमें कौन-सा दोष और मुझमें गुण देखकर उन्हें छोड़ मेरे पास आ रही हो ?’
लक्ष्मीने कहा- ‘देवेन्द्र! मुझे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर धाता विधाता कोई भी नहीं हटा सकता। कालके प्रभावसे हो मैं एकको छोड़कर दूसरेके पास जाती हूँ। इसलिये तुम बलिका अनादर मत करो।’
इन्द्रने पूछा, ‘सुन्दरी! तुम अब असुरोंके पास क्यों नहीं रहना चाहतीं ?’ लक्ष्मी बोलीं- ‘जहाँ सत्य, दान, व्रत, तप, पराक्रम तथा धर्म रहते हैं, मैं वहीं रहती हूँ। असुर इस समय इनसे विमुख हो रहे हैं। पहले ये सत्यवादी जितेन्द्रिय और ब्राह्मणोंके हितैषी थे। पर अब ये ब्राह्मणोंसे ईर्ष्या करने लगे हैं, जूठे हाथ घी छूते हैं, अभक्ष्यभोजन करते और धर्मको मर्यादा तोड़कर मनमाना आचरण करते हैं। पहले ये उपवास और तपमें लगे रहते थे। प्रतिदिन सूर्योदयके पहले जागते और रातमें कभी दही या सत्तू नहीं खाते थे। रातके आधे भागमें हो ये सोते थे, दिनमें तो ये कभी सोनेका नाम भी नहीं लेते थे। दीन, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी तथा स्त्रियोंपर दया करते तथा उनके लिये अन्न-वस्त्रको व्यवस्था करते थे। व्याकुल, विषादग्रस्त, भयभीत, रोगी, दुर्बल, पीड़ित तथा जिसका सर्वस्व लुट गया हो, उसको सदा ढाढ़स बँधाते तथा उसकी सहायता करते थे। पहले ये कार्यके समय परस्पर अनुकूल रहकर गुरुजनों तथा बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें सदा दत्तचित्त रहते थे। ये उत्तम भोजन बनाकर अकेले ही नहीं खाते थे। पहले दूसरोंको देकर पीछे अपने उपभोगमें लाते थे सब प्राणियोंको अपने ही समान समझकर उनपर दया करते थे। चतुरता, सरलता, उत्साह, निरहंकारता, सौहार्द, क्षमा, सत्य, दान, तप, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्रोंसे प्रगाढ़ प्रेमये सभी गुण इनमें सदा मौजूद रहते थे। निद्रा अप्रसन्नता, दोषदृष्टि अविवेक असंतोष और कामना ये दुर्गुण इन्हें स्पर्शतक नहीं कर सके थे।’ ‘पर अब तो इनकी सारी बातें निराली तथा आलस्य, विपरीत हो दीख पड़ती हैं। धर्म तो इनमें अब | ही नहीं गया है। ये सदा काम-क्रोधके वशीभूत रहते. हैं। बड़े-बृद्दों की सभाओंमें ये गुणहीन दैत्य उनमें देश निकालते हुए उनकी हँसी उड़ाया करते हैं। वृद्धह आनेपर ये लोग अपने आसनोंपर से उठते भी नहीं। स्त्री पतिकी, पुत्र पिताकी आज्ञा नहीं मानता। माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरुओंका आदर इ उठ गया। संतानोंके उचित लालन-पालनपर ध्यान नहीं दिया जाता। इनके रसोइये भी अब पवित्र नहीं होते। छोटे बालक आशा लगाकर टकटकी बाँधे देखते ही रह जाते हैं और दैत्यलोग खानेकी चीजें अकेले घर कर जाते हैं। ये पशुओंको घरमें बाँध देते हैं, पर चारा और पानी देकर उनका आदर नहीं करते। ये सूर्योदयतक सोये रहते हैं तथा प्रभातको भी रात ही समझते हैं। प्रायः दिन-रात इनके घरमें कलह ही मचा रहता है।’
‘अब इनके यहाँ वर्णसंकर संतानें होने लगी हैं। वेदवेता ब्राहाणों और मूखको ये एक समान आदर या अनादर देते हैं। ये अपने पूर्वजोंद्वारा ब्राह्मणोंको दी हुई जागीर नास्तिकताके कारण छीन लेते हैं। शिष्य अब गुरुओंसे सेवा करवाते हैं। पत्नी पतिपर शास्त करती है और उसका नाम ले-लेकर पुकारती है। संक्षेपमें ये सब-के-सब कृतघ्र, नास्तिक, पापाचारी और स्वैरी बन गये हैं। अब इनके वदनपर पहलेका सा तेज नहीं रह गया।’
‘इसलिये देवराज! अब मैंने भी निश्चय कर लिया कि इनके घरमें नहीं रहूँगी। इसी कारणसे दैत्योंका | परित्याग करके तुम्हारी ओर आ रही हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो। जहाँ मैं रहूँगी, वहाँ आशा, श्रद्धा ि क्षान्ति, विजिति, संतति, क्षमा और जया-ये आठ देवियाँ भी मेरे साथ निवास करेंगी। मेरे साथ ही ये सभी देवियों भी असुरोंको त्यागकर आ गयी हैं। तुम | देवताओंका मन अब धर्ममें लग गया है, अतएव अब हम तुम्हारे ही यहाँ निवास करेंगी।’
तदनन्तर इन्द्रने उन लक्ष्मीजीका अभिनन्दन किया।सारे देवता भी उनका दर्शन करनेके लिये वहाँ आ गये। तत्पश्चात् सभी लौटकर स्वर्गमें आये। नारदजीने लक्ष्मीजीके आगमनकी स्वर्गीय सभामें प्रशंसा की। एक साथ ही पुनः सभीने बाजे-गाजेके साथ पुष्प और अमृतकीवर्षा की। तबसे फिर अखिल संसार धर्म तथा सुखमय हो गया।
-जा0 श0
(महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्ष0 224-228, बृहद् विष्णुस्मृति, अध्याय 99 महा0 अनुशासनपर्व, अध्याय 11)